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________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे अणुभागमंतकम्मं (५६३ दंडओ समत्तो (?) ___एइंदिएसु उक्कस्सेण जं पदेसग्गं संकामिज्जदि समस्ते तं थोवं । सम्मामिछत्ते० असंखे० गुणं । अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए. विसे० । लोहे० विमे० । पच्चक्खाणमाणे * विसे० कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । केवलणाण. विसे० । पयला० विसे० । णिद्दा० विसे० । पयलापयला० विसे० । णिहाणिद्दा० विसे० । थोणगिद्धि० विसे० । केवलदंस० विसे । णिरयगइ० अणंतगुणं । आहार. असंखे० । जसकित्ति० असंखे० गुणं । वेउव्विय० संखे० गुणं । ओरालिय० विसे० । तेज० विसे० । कम्मइय० विसे० । अजसकित्ति० संखे० गुणं । देवगइ० विसे० । तिरिक्खगइ० विसे । मणुसगइ० विसे । हस्स-भये. संखे० गुणं । रदि० विसे० । साद० संखे० गुणं । इत्थि० संखे० गुणं । सोगे० विसे० । अरदि० विसे० । णवूस० विसे० दुगुंछ० विसे० । भय० विसे० । माणसंजलण विसे० । कोहे० विसे० । मायाए. विसे० । लोहे. विसे । दाणंतराइय० विसे० । एवं विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव विरियंतराइयं ति । मणपज्जव० विसे० । ओहिणाण. विसे० । सुद० ओघदण्डकके समान प्ररूपणा है। एकेन्द्रिय जीवों में उत्कर्षसे जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृति में संक्रान्त होता है वह स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मानमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण माया में विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरण में विशेष अधिक है । प्रचलाम विशेष अधिक है । निद्रामें विशेष अधिक है। प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रानिद्राम विशेष अधिक है स्त्यानगद्धिमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। नरकतिम अनन्तगुणा है । आहारकशरीरमें असंख्यातगुणा है । यशकीर्तिमें संख्यातगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें संख्यातगुणा है। औदारिकशरीर में विशेष अधिक है। तेजसशरीरमें विशेष अधिक है । कार्मणशरीरमें विशेष अधिक है। अयशकीति में संख्यातगुणा है। देवगतिमें विशेष अधिक है । तिर्यग्गतिमें विशेष अधिक है । मनुष्यगतिमें विशेष अधिक है। हास्य और भयमें संख्यातगुणा है । रतिमें विशेष अधिक है । सातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है । शोकमें विशेष अधिक है । अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेदमें विशेष अधिक है। जुगुप्सामें विशेष अधिक है । भयमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें विशेष अधिक है । संज्वलन क्रोध में विशेष अधिक है । संज्वलन माया में विशेष अधिक है । संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है । दानान्तरायमें विशेष अधिक है। इस प्रकार वीर्यान्तराय तक विशेष अधिक क्रमसे ले जाना चाहिये । आगे मानपर्ययज्ञानावरणमे विशेष अधिक है। अवधि * ताप्रती 'संजलणमाणे ( पच्चक्खागमागे इनि पाठः । अतोऽग्रे अ-काप्रत्यो: 'संजलमाणे० विसे कोहे. विसेमामाए० विसे० लोहे. विसे० ' इत्येतावनाधिकः पाठोऽस्ति।४ काप्रती 'हस्से. भय०', ताप्रती 'हस्से (भय०)' इति पाठः ।। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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