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________________ ( ३४१ संकमाणुयोगद्दारे पयडिसंकमो सकसाओ। दसणमोहणीयं चरित्तमोहणीए ण संकमदि, चरित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमदि। कुदो? साभावियादो। सम्मामिच्छाइट्ठी दंसणमोहणीयस्स असंकामगो। एवं सासणो वि*। सम्मत्तस्स णियमा मिच्छाइट्ठी संकामगो जस्स आवलियबाहिरंसंतकम्ममत्थि। मिच्छत्तस्स संकामओ को होदि ? सम्माइट्ठी जस्स आवलियबाहिरं मिच्छत्तस्स संतकम्ममत्थि । सम्मामिच्छत्तस्स संकामगो को होदि? सम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा जस्स आवलियबाहिरं संतकम्ममत्थि । बारसण्णं कसायाणं णाणावरणभंगो। इथिवेदस्स संकामओ को होदि ? जाव इत्थिवेदो चरिमसमयअणुवसंतो चरिमसमयअक्खीणो वा। णqसयवेदस्स इत्थिवेदभंगो। पुरिसवेदस्स संकामगो को होदि ? जाव पुरिसवेदो पढमसमयउवसंतो पढमसमयखीणो वा । तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदभंगो। लोहसंजलणाए संकामओ को होदि ? उवसामया खवगा च जाव अंतरं चरिमसमयअकदं ति अक्खवय-अणुवसामओ च । चदुण्णमाउआणं संकमो णत्थि। कुदो ? साभावियादो। सव्वासि पि णामपयडीणं है। दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीयमें संक्रान्त नहीं होती और चारित्रमोहनीय भी दर्शनमोहनीयमें संक्रान्त नहीं होती, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका असंक्रामक होता है । इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि भी दर्शनमोहनीयका असंक्रामक होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिका संक्रामक नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव होता है, जिसके कि उसका सकर्म आवलीके बाहिर होता है। मिथ्यात्वका संक्रामक कौन होता है ? उसका संक्रामक सम्यग्दृष्टि होता है, जिसके मिथ्यात्वका सत्कर्म आवलिके बाहिर होता है। सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक कौन होता है ? उसका संक्रामक सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि होता है, जिसके उसका सत्कर्म आवलोके बाहिर होता है। बारह कषायोंके संक्रमणकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। स्त्रीवेदका संक्रामक कौन होता है ? स्त्रीवेदके अनुपशान्त रहनेके अन्तिम समय तक अथवा उसके अक्षीण रहने के अन्तिम समय तक जीव उसका संक्रामक होता है। नपुंसकवेदके संक्रमणकी प्ररूपणा स्त्रीवेदके समान है । पुरुषवेदका संक्रामक कौन होता है ? पुरुषवेदके उपशान्त होने के प्रथम समय तक अथवा उसके क्षीण होने के प्रथम समय तक जीव उसका संक्रामक होता है । तीन संज्वलनोंके संक्रमणकी प्ररूपणा पुरुषवेदके समान है। संज्वलन लोभका संक्रामक कौन होता है ? उसके संक्रामक उपशामक और क्षपक जीव अन्तर न किये जानेके अन्तिम समय तक होते हैं, अक्षपक व अनुपशामक जीव भी उसके संक्रामक होते हैं। चार आयु कर्मोका संक्रम नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। यशकीतिको छोडकर मोहदुगाउग-मूल ग्यडीण न परोप्परंमि संकमणं । संकम-बंध दउब्वट्टणा (णव) लिगाईणकरणाई। क प्र. २, ३. * मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'सामगो वि ' इति पाठः । तथा सासादनाः सम्यग्मिथ्यादष्टयश्च न किमपि दर्शनमोहनीयं क्वापि संक्रमयन्ति, अविशद्धदष्टित्वात । बन्धाभावे हि दर्शनमोहनीयस्य संक्रमो विशुद्धदृष्टेरेव भवति, नाविशुद्धदृष्टः। क. प्र. (मलय.) २, ३. ताप्रतौ 'तिसंजलणाणं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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