________________
३४२ )
छक्खंडागमे संतकम्म
जसकित्तिवज्जाणं ताव संकमो जाव सकसाओ जाव आवलियबाहिरं च संतकम्ममथि। जसकित्तीए ताव संकामगो जाव परभवियणामयपडीणं बंधदि। उच्चागोदस्स संकामओ को होदि ? जो णीचागोदस्स बंधओ जाव आवलियबाहिरं संतकम्ममत्थि । णीचागोदस्स संकामओ को होदि? जो उच्चागोदस्स बंधओ सकसाओ। एवं सामित्तं समत्तं।
एयजीवेण कालो--पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-पणुवीसमोहणीय-अणुव्वेल्लमाणसव्वणामपयडीणं पंचंतराइयाणं च संकमो केवचिरं कालादो होदि ? अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो वा । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो जहण्णण अंतोमुत्तं, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियट्टं। सादासादाणं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जह० अंतोमुत्तं, उक्क० बेछावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । णवरि मिच्छत्तस्स छावट्टिसागरो० सादिरेयाणि । सम्मत्तस्स जह० अंतोमुत्तं, उक्कस्सेण पलिदो० असंखे० भागो।
णिरयगइ-देवगइणामागं तदाणुपुव्वीणामाणं वेउब्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंगबंधण-संघादाणं च जह० अदुवस्साणि सादिरेयाणि अंतोमुत्तं वा, उक्क० बेसागरोववमसहस्साणि सादिरेयाणि । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वीणं जह० अट्ठवस्ताणि
शेष सभी नामप्रकतियोंका तब तक संक्रप होता है जब तक कि जीव सकषाय है और जब तक उनका सत्कर्म आवलीके बाहिर रहता है । यशकीर्तिका संक्रामक तब तक होता है जब तक परभविक नामप्रकृतियोंको बांधता है । उच्चगोत्रका संक्रामक कौन होता है ? जो नीचगोत्रका बन्धक होता है वह उच्चगोत्रका तब तक संक्रामक होता है जब तक उसका आवलीके बाहिर सत्कर्म रहता है । नीचगोत्रका संक्रामक कौन होता है ? जो सकषाय जीव उच्चगोत्रका बन्धक होता है वह नीचगोत्रका संक्रामक होता है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ।
एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है--पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, पच्चीस मोहनीय, उद्वेलित न की जानेवाली सब नाम प्रकृतियां और पांच अन्तराय; इनका संक्रमण कितने काल होता है ? उनके संक्रमणका काल अनादि अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्ययसित भी है । इनमें जो सादि-सपर्यवसित है उसका प्रमाण जधन्यसे अन्तमहर और उत्कर्षसे उपार्ध पुद्गलपरिबर्तन है । साता व असाता वेदनीयके संक्रमणका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तमुहुर्त मात्र है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रमणका काल जधन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ अधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। विशेष इतना है कि मिथ्यात्वका वह काल साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। सम्यक्त्व प्रकृतिके संक्रमणका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है।
___ नरकगति, देवगति, नरकगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकबन्धन और वैक्रियिकसंघात नामकर्मोंके संक्रमणका काल जघन्पसे साधिक आठ वर्ष या अन्तर्मुहूर्त, और उत्कर्षसे साधिक दो हजार सागरोपम मात्र है । मनुष्यगति और मनष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के संक्रमणका काल जघन्यसे साधिक आठ वर्ष या अन्तर्मुहुर्त और D अ-काप्रत्योः ' पयडि' इति पाठः । For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International