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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो कायव्वं । जहा कोहसंजलणाए तहा माण-माया--पुरिसवेद --छण्णोकसायाणं कायव्वं । णवरि छण्णोकसायाणं उक्कस्सिया हाणी चरिमसमयअणुवसंते से काले मदो देवो जादो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० हाणी । चदुणोकसायाणमवट्ठाणं णत्थि । भय-दुगुंछाणमवट्ठाणं मदिआवरणभंगो। इत्थि-णवंसयवेदाणमुक्क० वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो सव्वसंकमेण चरिमफालि संकातओ तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्क०हाणी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार संज्वलन मान, माया, पुरुषवेद और छह नोकषायोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट हानि उनके अनुपशान्त रहने के अन्तिम समयके पश्चात् अनन्तर कालमें (जहां वे उपशान्त होनेवाले थे ) जो मरणको प्राप्त होकर देव हुआ है, उस प्रथम समयवर्ती देवके होती हैं । चार नोकषायोंका ( हास्य, रति, अरति और शोक ) का अवस्थान नहीं हैं । भय और जुगुप्साके अवस्थानकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। विशेषार्थ - यहां संज्वलन लोभके स्वामित्वकी प्ररूपणा नहीं की गई है ( सम्भव है प्रतिलिपिकारकी असावधानीसे वह लिखनेसे रह गयी हो ) । उसकी प्ररूपणा कसायपाहुड ( चूणिसूत्र ) में इस प्रकार की गई है - संज्वलन लोभकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिस गुणितकर्माशिक जीवने अल्प काल में चार वार कषायोंको उपशान्त किया है, तथा जो अन्तिम भवमें दो वार कषायोंको उपशान्त कर क्षपणामें उद्यत हुआ है, उसके जब अकृतअन्तरकरण अवस्थाका अन्तिम समय प्राप्त होता है तब उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकांशिक तीन वार कषायों को उपशान्त कर चौथी वार उनके उपशान्त करने में प्रवर्तमान है वह जब अन्तिम समयवर्ती अकृतअन्तरकरण रहनेके अनन्तर समयमें मरणको प्राप्त होकर देव होता है तब उसके देव होने के पश्चात् एक समय अधिक आवली मात्र कालके वीतनेपर उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। उसके उत्कृष्ट अवस्थानकी प्ररूपणा अप्रत्याख्यानावरणके समान है । ( देखिये क. पा. सु. पृ. ४४९, ५६३-६७) स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक सर्वसंक्रमण द्वारा अन्तिम फालिको संक्रान्त कर रहा है उसके उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उनकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक अन्तिम समयवर्ती उपशामक होकर - * कोहसंजलणस्म उक्कस्सिया वड्ढी कस्स? जस्स उकस्सओ सब्वसंकमो तस्स उकास्मिया वड्ढी। तस्सेव से काले उकस्सिया हाणी । वरि से काले संकमाओग्गा समयबद्धा जहण्णा कायब्वा । तं जहाजेसि से काले आवलियमेताणं समयपबद्धाणं पदेसग्गं संकामिज्जाहिदि ते समयबद्धा तप्पाओग्गजहण्णा । एदीए परूवणाए सव्वसंकम संछ हदूण जस्स से काले पुवपरू विदो संकमो तस्स उक्कस्सिया हाणी काहसंजलणस्स। तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । क. पा. सु. प. ४४८, ५५५-६१. ४ ताप्रती 'माण-माय "पुरिसवेद-' इति पाठः। जहा कोहसं जलणस्स तहा माण-मायासंजलण-पुरिसवेदाण । क. पा. सु. पृ. ४४९, ५६२. अ-काप्रत्योः 'दुगुंछावठाणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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