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________________ ४५६ ) छक्खंडागमे संतकम्म हस्स-रदि-अरदि-सोग-इत्थि - णवंसयवेदाणं भुजगार-अप्पदरसंकमणकालो जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अवट्टिय० णत्थि । णवरि इत्थिवेद० अप्पदर० उक्क० बे-छावद्विसागरो० सादिरेयाणि । णवंस० अप्पदर० सतिपलिदोवमाणि बे- छावट्ठिसागरोवमाणि । पुरिसवेदस्स मदिआवरणभंगो। णिरयगइणामाए भुजगार० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । अप्पदर० जह० अंतोमुत्तं' उक्क० बे-छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवट्ठिदसंकमो णत्थिा तिरिक्खगइणामाए भुजगारसंकमो हेदुणा उवएसेण च जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । अप्पदर० तिरिक्खगइणामाए जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेवढिसागरोवमसदं सादिरेयं । अवट्टिय० णत्थि। मतिज्ञानावरणके समान है। हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद; इनके भुजाकार व अल्पतर संक्रामकोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है । इनका अवस्थित संक्रम नहीं होता । विशेष इतना है कि स्त्रीवेदके अल्पतर संक्रामकका काल उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है, तथा नपुंसकवेदके अल्पतर संक्रामका उत्कृष्ट काल तीन पल्योपमोंसे सहित दो छयासठ सागरोपम मात्र है । पुरुषवेदकी प्ररूपणा मतिज्ञानावरणके समान है। नरकगति नामकर्मके भुजाकार संक्रामकका काल जघन्य और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। अल्पतर संक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। अवस्थित संक्रम उसका नहीं होता । तिर्यंचगति नामकर्मके भुजाकार संक्रामका जघन्य व उत्कृष्ट काल हेतु और उपदेशसे अन्तर्महर्त मात्र है। तिर्यंचगति नामकर्मके अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्षसे साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम मात्र है । अबस्थित संक्रम उसका नहीं होता । मनुष्यगति नामकर्मके भुजाकार संक्रमका काल असंखेज्जदिभागो । अप्पदरसंकमा केवचिरं कालादो होदि? जहण्णेण एयसमओ । उक्कस्सेण बेछाव'ट्रसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अवट्रिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ। उक्कस्सेण संखेज्जा समया। अवत्तव्वसंकामगो केवचिर कालादो होदि? जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ क.पा. सु.प. ४३०, ३२९-३९. ताप्रतौ वारसकसाय-दुगुंछाणं इति पाठः । ४ वारसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं भुजगार-अप्पदरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेणेयसमओ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। अव दिदसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एयसमओ। उक्कस्सेग संखेन्जा समया। अवत्त व्वसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णक्कस्सेण एयसमओ। क. पा. सु. पू. ४३१, ३४०-४७. * हस्स-रइ-अरइ-सोगाणं, भुजगार-अयरसंकमो केचिरं कालादो होदि ? जहणेण एयसमओ। उक्स्से ण अंतीमुहुत्तं । क. पा. सु पृ. ४३२, ३६०-६२. 8 अप्पयरसंकमो केवचिरं कालाहो होदि ? जहणेण एगसमओ। उक्स्सेग वे छावट्रिसागरोवमाणि संखेज्जवस्सब्महियाणि । क. पा. सु. पू. ४३१, ३५१-५३. णवंसयवेदस्स अप्पयरसंकमो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एयसमओ । उकस्सेण बे छावट्ठिसागरोवमाणि तिणि पलिदोवमागि सादिरेगा। सेसाणि इत्यिवेदमंगो क पा.सू.प ४३२,३५६-५९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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