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________________ १२ संकमाणुयोगद्दारं मुणिसुव्वयदेसयरं पणमिय मुणिसुब्वयं जिणं देवं । संकममणुओगमिणं जहासुअं वण्णइस्सामो ॥१॥ संकमे त्ति अणुओगद्दारे संकमो णिक्खिवियवो । तं जहा--णामसंकमो ट्ठवणसंकमो दवियसंकमो खेत्तसंकमो कालसंकमो भावसंकमो चेदि छविहो संकमो । तत्थ संकमसद्दो णामसंकमो णाम । सो एसो त्ति अण्णस्स सरूवं बुद्धीए णिधत्तो ट्ठवणसंकमो णाम । दवियसंकमो दुविहो आगम-णोआगमदवियसंकमो चेदि । आगमदवियसंकमो सुगमो। णोआगमदवियसंकमो जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तदवियसंकमभेदेण तिविहो । जाणुगसरीर-भवियदव्वसंकमा सुगमा । तव्वदिरित्तसंकमो दुविहो णोकम्मसंकमो कम्मसंकमो चेदि । णोकम्मसंकमो जहा मट्टियाए घडसरूवेण परिणामो। कम्मसंकमो थप्पो।। एगक्खेत्तस्स खेत्तरगमणं खेत्तसंकमो णाम। किरियाविरहिदस्स खेत्तस्स कधं संकमो ? ण, जीव-पोग्गलाणं सक्किरियाणं आधेये आधारोवयारेण लद्ध* खेत्तववएसाणं संकमुवलंभादो। ण च खेत्तस्स संकमववहारो अप्पअिद्धो, उड्ढलोगो संकेतो त्ति मुनियोंके उत्तम चरित्रका उपदेश करनेवाले मुनिसुव्रत जिनेन्द्रको नमस्कार करके श्रुतके अनुसार संक्रम-अनुयोगद्वारका वर्णन करते हैं ।। १ ।। संक्रम इस अनुयोगद्वारमें संक्रमका निक्षेप किया जाता है । वह इस प्रकारसे- नामसंक्रम, स्थापनासंक्रम, द्रव्यसंक्रम, क्षेत्रसंक्रम, कालसंक्रम और भावसंक्रमके भेदसे संक्रम छह प्रकारका है। उनमें 'संक्रम' यह शब्द नामसंक्रम कहलाता है । ' वह यह है ' इस प्रकार अन्यके स्वरूपको बुद्धिमें स्थापित करना, यह स्थापनासंक्रम है । द्रव्यसंक्रम दो प्रकारका हैआगमद्रव्यसंक्रम और नोआगमद्रव्यसंक्रम। इनमें आगमद्रव्यसंक्रम सुगम है। नोआगमद्रव्यसंक्रम ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त द्रव्यसंक्रमके भेदसे तीन प्रकार है । इनमें ज्ञायकशरीर और भव्यद्रव्यसंक्रम सुगम है । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंक्रम दो प्रकारका हैनोकर्मसंक्रम और कर्मसंक्रम । नोकर्मसंक्रम- जैसे मिट्टीका घट स्वरूपसे परिणमन । कर्मसंक्रमको अभी स्थगित किया जाता है। एक क्षेत्रके क्षेत्रान्तरको प्राप्त होने का नाम क्षेत्रसंक्रम है ।। शंका- क्षेत्र तो क्रियासे रहित है, फिर उसका क्षेत्रान्तरमें गमन कसे सम्भव है? समाधान- नहीं, क्योंकि, आधेयमें आधारका उपचार करनेसे सक्रिय जीव और पुद्गलोंकी क्षेत्र' संज्ञा सम्भव है और उनका संक्रम पाया ही जाता है। दूसरे, क्षेत्रके संक्रमका व्यवहार अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, ऊर्ध्वलोक संक्रान्त हुआ, ऐता व्यवहार पाया जाता है। * अ-कापत्योः ' बद्ध', ताप्रती ' ब ( ल ) द्ध इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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