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________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंकमो ( ३९५ अणंतगुणो । इत्थिवेद० अणंतगुणो । णवंसय० अणंतगुणो । मणपज्ज० अणंतगुणो । थीणगिद्धि० अणंतगुणो । दाणंतराइय०० अणंतगणो । ओहिणाण० ओहिदसण० लाहंतराइय० अणंतगुणो । सुदणाण. अचक्खुदंसण० भोगंतराइय० अणंतगुणो। चक्खु० अणंतगुणो। आभिणिबोहिय० परिभोगंतराइय० अणंतगुणो । अपच्चवखाणमाणे० अणंतगुणो। कोहे० विसेसाहिओ। माया०विसे । लोभे० विसे । पच्चक्खाणमाणे० अणंतगुगो । कोहे० विसे० । माया० विसे० । लोभे० विसे० । संजलणमाणे० अणंतगुणो। कोहे० विसे । माया० विसे० । लोभे० विसे० । केवलणाण. केवलदंसण० असाद० वीरियं० अणंतगुणो। उच्चागोद० अणंतगुणो। अजसकित्ति० अणंतगुणो । साद० अणंनगुणो। मिच्छत्त० अणंतगुणो । आहारसरीर० अणंतगुणो। एवं णिरयगईए जहण्णओ अणुभागसंकमदंडओ समत्तो। तिरिक्खगईए सव्वमंदाणुभागं सम्मत्तं । सम्मामिच्छत्त० अणंतगुणो 1 अणंताणुबंधिमाणे अणंतगुणो । कोधे० विसे । माया० विसे० । लोभे० विसे० । वेउव्वियसरीर० अणंतगुणो। तिरिक्खाउ० अणंतगुणो । मणुस्साउ० अणंतगुणो । णिरयगई० अणंतगुणो । मणुसगई० अणंतगुणो। देवगई ० अणंतगुणो । उच्चागोद० अणंतगुणो। अनन्तगुणा है। पुरुष वेदमें अनन्तगुणा है। स्त्रीवेदमें अनन्तगुणा है। नपुंसकवेदमें अनन्तगुणा है। मनःपर्ययज्ञानावरण में अनन्तगुणा है। स्त्यानगृद्धि में अनन्तगुणा है। दानान्तरायम अनन्तगुणा है। अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायमें अनन्तगुणा है । श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायमें अनन्तगुणा है। चक्षुदर्शनावरणमें अनन्तगुणा है । आभिनिबोधिकज्ञानावरण ओर परिभोगान्तरायमें अनन्तगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें अनन्तगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है । अप्रत्याख्यानावरण माया में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण लोभ में विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मानमें अनन्तगुणा है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है। संज्वलन मानमें अनन्तगुणा है। संज्वलन क्रोध में विशेष अधिक है। संज्वलन मायामें विशेष अधिक है। संज्वलन लोभमें विशेष अधिक है । केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, असातावेदनीय और वीर्यान्तरायमें अनन्तगुणा है। उच्चगोत्रमें अनन्तगुणा है । अयशकीर्तिमें अनन्तगुणा है । सातावेदनीयमें अनन्तगुणा है। मिथ्यात्वमें अनन्तगुणा है। आहारशरीरमें अनन्तगुणा है। इस प्रकार नरकगतिमें जघन्य अनुभागसंक्रमदण्डक समाप्त हुआ। तिर्यंचगतिमें सम्यक्त्व प्रकृति सबसे मन्द अनुभागवाली है। उससे सम्यग्मिथ्यात्वम वह अनन्तगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें अनन्तगुणा है। अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है। वैक्रियिकशरीरमें अनन्तगुणा है। तिर्यगायुमें अनन्तगुणा है। मनुष्यायुमें अनन्तगुणा है। नरकगतिमें अनन्तगुणा है। मनुष्यगतिमें अनन्तगुणा है । देवगतिमें अनन्तगुणा है । ४ अ-काप्रत्योः 'थीणगिद्धि० दाणंतराइय०' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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