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________________ ४८८ ) छक्खंडागमे संतकम्म लोहिदया अणंतगुणा, हालिया अणंतगुणा, बिदियवियप्पो उच्चदे- कालया थोवा, णीलया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा, सुक्किलया अणंतगुणा, हालिद्दया अणंतगुणा। तदियवियप्पो वुच्चदे। तं जहा- कालया थोवा, णीलया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा, हालिया अणंतगुणा, सुक्किला अणंतगुणा । णादिविकत्थेण गारेण एसा सुक्कुक्कदा पम्मा (?) । सुक्काए एक्को वियप्पो, तं जहा- कालया थोवा, णीलया अणंतगुणा, लोहिदया अणंतगुणा, हालिया अणंतगुणा। सुक्किला वियद्रेण अणंतगुणा । एवं किण्णाए एक्को वियप्पो, णीलाए एक्को, काऊए तिण्णि, तेऊए एक्को, पम्माए तिष्णि, सुक्काए एक्को । काउलेस्सा णियमा दुढाणिया, सेसाओ लेस्साओ दुट्ठाण-तिढाण-चदुट्ठाणियाओ। एवं दव्वलेस्सा परूविदा । संपहि भावलेस्सा वुच्चदे। तं जहा- मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगजणिदो जीवसंसकारो भावलेस्सा णाम । तत्थ जो तिव्वो सा काउलेस्सा। जो तिव्वयरो सा णीललेसा। जो तिव्वतमो सा किण्णलेस्सा। जो मंदो सा तेउलेस्सा। जो मंदयरो सा पम्मलेस्सा। जो मंदतमो सा सुक्कलेस्सा। एदाओ छप्पि लेस्साओ अणंतभागवड्ढि--असंखे० भागवड्ढि--संखे०भागवड्ढि--संखे० गुणवड्ढि-असंखेज्जगुणवड्ढि-- गुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे, और हरिद्र गुण अनन्तगुणे होते हैं। द्वितीय विकल्पके अनुसार श्याम गुण स्तोक, नील गुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे, शुक्ल गुण अनन्तगुणे, और हारिद्र गुण अनन्तगुणे होते हैं । तृतीय विकल्पके अनुसार श्याम गुण स्तोक, नील गुण अनन्तगुणे, लोहित गुण अनन्तगुणे, हारिद्र गुण अनन्तगुणे, और शुक्ल गुण अनन्त गुणे होते हैं । अन्तमें गौर वर्णकी विशेषता होनेसे तिसरे विकल्पमें इसे शुक्लोत्कृष्ट कहते हैं। शुक्ललेश्याके विषयमें एक विकल्प है । यथा श्याम गुण स्तोक हैं, नील गुण अनन्तगुणे हैं, लोहित गुण अनन्तगुणे हैं, हारिद्र गुण अनन्तगुणे हैं, और शुक्ल उत्कट गुण अनन्तगुण हैं। इस प्रकार कृष्णलेश्याके एक, नीललेश्याके एक, कपोतके तीन, तेजके एक, पद्मके तीन और शुक्लके एक; इतने इन द्रव्यलेश्याओंके विषय में अल्पबहुत्वके विकल्प हैं। कापोतलेश्या नियमसे द्विस्थानिक तथा शेष लेश्यायें द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक व चतःस्थानिक हैं। इस प्रकार द्रव्य लेश्याकी प्ररूपणा की गयी है। अब भावलेश्याका कथन करते हैं। यथा- मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगसे उत्पन्न हुए जीवके संस्कारको भावलेश्या कहते हैं। उसमें जो तीव्र संस्कार है उसे कापोतलेश्या, उससे जो तीव्रतर संस्कार है उसे नीललेश्या, और जो तीव्रतम संस्कार है उसे कृष्णलेश्या कहा जाता है । जो मन्द संस्कार है उसे तेजलेश्या, जो मन्दतर संस्कार है उसे पद्मलेश्या, और जो मन्दतम संस्कार है उसे शुक्ललेश्या कहते हैं। इन छहों लेश्याओं में से प्रत्येक अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्त मप्रती । सुक्कुकदा' इति पाठः । ४ काप्रती 'सुक्किला विय?ण अणंतगुणा ' इति पाठः। ताप्रती 'सुक्कुक्कदा। पम्मा-सुक्काए' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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