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________________ लेस्सा णुयोगद्दारे लेस्साठ्ठाणाणुभागप्पाबहुअं ( ४८९ अगंतगुणवड्ढिकमेण पादेक्कं छट्ठाणपदिदाओ। काउलेस्सा णियमा दुट्ठाणिया, सेसाओ लेस्साओ दुट्ठाण-तिट्ठाण-चदुट्ठाणियायो । एत्थ तिव्व-मंददाए अप्पाबहुअं । तं जहा- सव्वमंदाणुभागं जहग्णयं काउट्ठाणं । णीलाए जहण्णयमणंतगुणं । किण्णाए जहण्णयमणंतगुणं । तेऊए जहण्णयमणंतगुणं । पम्माए जहण्णयमणंतगुणं । सुक्काए जहण्णयमणंतगुणं । काऊए उक्कस्सयमणंतगुणं। णीलाए उकस्सयमणंतगुणं । किण्णाए उक्कस्सयमणंतगुणं । तेऊए उक्कस्सयमणंतगुणं । पम्माए उक्कस्सयमणंतगुणं सुक्काए उक्कस्सयमगंतगुणं एवं लेस्से त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । गुणवृद्धिके क्रमसे छह स्थानोंमें पतित है । कापोतलेश्या नियमसे द्विस्थानिक तथा शेष लेश्यायें द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक व चतुस्थानिक है। यहां तीव्रता और मन्दताका अल्पबहुत्व इस प्रकार है- कापोतका जघन्य स्थान सबसे मन्द अनुभागसे संयुक्त है । नीललेश्याका जघन्य स्थान उससे अनन्तगुणा है । कृष्णलेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है । तेजलेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है। पद्मलेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है । शुक्ललेश्याका जघन्य स्थान अनन्तगुणा है । कापोतका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । नीलका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है। कृष्णका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । तेजका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । पद्मका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । शुक्लका उत्कृष्ट स्थान अनन्तगुणा है । इस प्रकार लेश्या अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। . प्रतिषु 'पादेवक' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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