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________________ ३७८ ) छक्खंडागमे संतकम्म अप्पसत्थणामपयडि--णीचागोद--पंचतराइयाणं । सादस्स उक्कस्साणुभागसंकमो कस्स? चरिमसमयसुहमसांपराइएण खवएण जं बद्धमणुभागं आवलियादिक्कतं संकममाणस्स खीणकसायस्स सजोगिकेवलिस्स वा । जसकित्ति-उच्चागोदाणं सादभंगो। णिरयाउअस्स उक्कस्सओ अणुभागसंकमो कस्स ? जो उक्कस्साणुभागं बंधिदूण आवलियादिक्कतो सो ताव पाओग्गा जाव समयाहियावलियचरिमसमयतब्भवत्थो त्ति । एवं सेसाणमाउआणं । जाओ पसत्थाओ परभवियणामबंधज्झवसाणस्स चरिमसमये बज्झंति तासि बंधज्झवसाणवोच्छेदादो आवलियादिक्कतमादि कादूण जाव चरिमसमयसजोगादो • त्ति उक्कस्साणुभागसंकमोमणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुत्वी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-बंधण-संघाद-वज्जरिसहसंघडणाणमुक्कस्सओ अणुभागसंकमो कस्स ? देवेसु सव्वविसुद्धण पबद्धाणुभागं आवलियादिक्कतं संकममाणस्स। सो कत्थ होदि? देवेसु रइएसु तिरिक्खेसुमणुस्सेसु एइंदिय-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय-पंचिदिएसु सुहमेसुल असातावेदनीय, अप्रशस्त नामप्रकृतियों, नीचगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियोंके भी उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका कथन करना चाहिये । सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम किसके होता है ? अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके द्वारा जो अनभाग बांधा गया है आवलिकातिक्रान्त उसका संक्रमण करनेवाले क्षीणकषाय अथवा सयोगकेवलीके उसका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है । यशकीर्ति और उच्चगोत्रकी प्ररूपणा सातावेदनीयके समान है । नारकायुके उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम किसके होता है ? जो उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर बन्धावलीको बिता चुका है वह अन्तिम समयवर्ती तद्भवस्थ होने में एक समय अधिक आवली मात्र कालके शेष रहने तक नारकायुके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके योग्य होता है। इसी प्रकार शेष आयु कर्मोकी प्ररूपणा है। जो प्रशस्त प्रकृतियां परविक नामप्रकृतियोंके बन्धाध्यवसानके अन्तिम समयमें बंधती हैं उनका बन्धाध्यवसानव्युच्छित्तिसे आवलिकातिक्रान्त समयको आदि लेकर अन्तिम समयवर्ती सयोगी तक उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है । मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, औदारिकबन्धन, औदारिक संघात और वज्रर्षभसंहननका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम किसके होता है ? वह सर्वविशुद्ध देवके द्वारा बांधे गये अनुभागका बन्धावलोके पश्चात् संक्रम करनेवाले जीवके होता है। वह कहांपर होता है ? वह देवों में, नारकियोंमें, तिर्यंचोंमें, मनुष्योंमें, एकेन्द्रियोंमें, द्वीन्द्रियोंमें, त्रीन्द्रियों में, चतुरिन्द्रियोंमें, पंचेन्द्रियोंमें, 8 सामित्तं । मिच्छत्तस्स उक्कस्साणभागसंकमो कस्स? उस्साण पागं बंधिदूगावलियपडिभग्गस्स अण्णदरस्स । एवं सब्वकम्माणं । णवरि सम्मत्त-मम्मामिच्छताणमुक्कस्साण मागसंकमो कस्स ? सणमोहणीयक्खवयं मोत्तण जस्स संतकम्ममथि त्ति तस्स उक्कस्साणुभागसंकमो। क. पा. सु. पृ. ३५१, ४०-४५. उक्कोसगं पबंधिय आवलियमइच्छिऊण उक्कोसं । जाव ण घागा तगं सकमह य आ महतती ।। असुभाणं अण्णयरो सुहमअपज्जतगाइ मिच्छो य । वज्जिय असंखवासाउए य मणुओववाए य ।। क. प्र. २, ५२-५३. प्रतिष 'संजोगादो' इति गठः । 0 ताप्रतौ 'चउरिदिएसु सुहमेसु' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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