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________________ संकमाणुयोगद्दारे अणुभागसंव मो ( ३७७ एदेण अटुपदेण पमाणाणुगमो वुच्चदे । तं जहा- घादिसण्णा ठाणसण्णा * च एत्थ वि परूवेयव्वा । सम्मत्तस्स उक्कस्सओ संकमो देसघादी दुट्ठाणियो। एवं मणुस-तिरिक्खाउआणं । सम्मामिच्छत्तस्स आदावणामाए च सव्वघादी दुट्ठाणियो अणुभागसंकमो* । इत्थि-णवंसयवेदाणमुक्कस्सओ सव्वघादी चदुट्ठाणियो अणुभागसंकमो। सम्मत्त-चदुसंजलण--पुरिसवेदाणं जहण्णसंकमो देसघादी एयढाणियो। सेसाणं कम्माणं जहण्णओ संकमो सव्वघादी दुढाणियां । णवरि मणुव-तिरियाउआणं देसघादी। सामित्तं- मदिआवरणस्स उक्कस्साणुभागसंकमो कस्स होदि ? जो उक्कस्साणुभाग बंधियण आवलियादिक्कतो सो एइंदियो वा अणेइंदियो वा बादरो वा सुमो वा पज्जत्तओ वा अपज्जत्तओ वा णियमा मिच्छाइट्ठी, असंखेज्जवस्साउअमणुस्से तिरिक्खे मणुस्सोववादियदेवे च मोत्तूण जो अण्णो, तस्स उक्कस्साणुभागसंकमो। एवं चदुणाणावरण-णवदंसणावरण--मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-असादावेदणीय इस अर्थपदके अनुसार प्रमाणानुगमकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- घाति संज्ञा और स्थान सज्ञाकी यहां भी प्ररूपणा करना चाहिये। सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संक्रम देशघाती होता हआ विस्थानिक है। इसी प्रकार मनष्याय और तिर्यगायके सम्बन्धमें कहना चाहिये। सम्यग्मिथ्यात्व और आतप नामकर्मका अनुभागसंक्रम सर्वंघाती होकर द्विस्थानिक है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सर्वघाती चतुःस्थानिक है। सम्यक्त्त, चार संज्वलन और पुरुषवेदका जघन्य संक्रम देशघाती एकस्थानिक है। शेष कर्मों का जघन्य संक्रम सर्वघाती विस्थानिक है। विशेष इतना है कि वह मनुष्याय और तिर्यगायुका देशघाती है। __ स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है-- मतिज्ञानावरणका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम किसके होता है ? जो उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर एक आवलीको बिता चुका है। वह एकेन्द्रिय हो चाहे अनेकेन्द्रिय हो, बादर हो अथवा सूक्ष्म हो, पर्याप्त हो अथवा अपर्याप्त हो, नियमसे मिथ्यादृष्टि हो ; तथा असंख्यातवर्षायुष्क मनुष्यों, तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले देवों ( आनतादिक ) को छोडकर जो अन्य हो, उसके मतिज्ञानावर गका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम होता है । इसी प्रकार शेष चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषायः * प्रतिष ‘घादिसंठाणसण्णा' इति पाठः। 0 अप्रतौ 'उक्स्स ओ वि संकमो' इति पाठः । * दुविहग्माणे जेट्ठो सम्पत्तदेसघाइ दुटुाणा । णर-तिरियाऊ-आयव-मिस्से वि य सव्वघाइम्मि ।। क. प्र. २, ४७. तत्थ पुव्वं गमणिज्जा घादिसणगाच दाणमण्णा च । सम्मत-चदुसंजलग-पुरिसवेदाणं मोत्तण सेसाणं कम्माणमणुभागसंकमो णियमा सव्वघादी, वेट्टाणिओ वा तिढाणि ओ वा च उट्टाणिओ वा। णवरि सम्मामिच्छत्तस्स वेढाणिओ चेव । अक्ववग-अगुवसामगस्स चदुसंजलग-पुरिसवेदाणमणु भागसंकमा मिच्छतभंगो । खवगवसामगागमणभागसंकमो सन्वधादी वा देसघादी वा, वेट्टाणिओ वा एयटाणिओ वा। सम्मत्तस्स अणुभागसंकमो णियमा देसघादी । एयट्ठाणिओ वेट्ठाणिओ वा। क. पा. सु. पृ. ३४९, ३३-३९. सेसासु चउदाणे मदो सम्मत्त-पुरिस-संजलणे । एगट्टाणे सेसासु सव्वघाइम्मि दुट्टाणे । क. प्र. ३, ४८. STS अ-काप्रत्योः 'सोइंदियो वा अणे इंदियो', ताप्रती 'सो इंदियो वा अणिदियो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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