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________________ ४७० ) छक्खंडाममे संतकम्म ___ ओरालियसरीरणामाए उक्क० हाणी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदो * सण्णिमिच्छाइट्ठीसु उववण्णो, सव्वलहुं सम्मत्ते लद्धे विज्झादसंकमो जादो, तस्स पढमसमयसम्माइट्ठिस्स उक्कस्सिया हाणी। सो चेव जहणियाए सम्मत्तद्धाए अंतो देवलोगं गच्छेज्ज, देवलोगं गदस्स ओरालियसरीरस्स अधापवत्तसंकमो जादो, तस्स सव्वरहस्सेण कालेण देवलोगं गदस्स पढमसमयवेदस्स उक्क० वड्ढी। अवट्ठाणं जहा मणुसगदीए कदं तहा कायन्वं । वेउब्वियसरीरस्स देवगइभंगो। आहारसरीरणामाए उक्क० वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो आहारसरीरं सम्वचिरं पूरेदूण* चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण खवेमाणस्स परभवियबंधोवोच्छेदेण आवलियं गंतूण उक्कस्सिया वड्ढी। तस्स चेव से काले उक्क० हाणी। अवट्टाणं व अस्थि । एवसद्देण उवदेसा वि पडिसिद्धा । तेजा-कम्मइयाणं उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियो चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेदूण खवेमाणओ, तस्स परभवियणामाणं बंधवोच्छेदादो आवलियं गदस्स उक्क० वड्ढी । तस्सेव से काले उक्क० हाणी । अवट्ठाणं उवदेसेण जहा मणुसगइणामाए कदंतहा कायव्वं । पढमसंठाण-पढमसंघडणाणं उक्क० वड्ढी कस्स? जो गुणिदकम्मंसियो बे-छा औदारिकशरीर नामकर्मकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक सातवीं पृथिवीसे निकलकर संज्ञी मिथ्यादृष्टियोंमें उत्पन्न हुआ है तथा जिसके सर्वलघु कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेने पर विध्यातसंक्रम हुआ उस प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। वही जघन्य सम्यक्त्वकालके भीतर देवलोकको प्राप्त होता है, देवलोकको प्राप्त होनेपर उसके औदारिकशरीरका अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है, सर्वलघु कालमें देवलोकको प्राप्त हुए उस प्रथम समयवर्ती देवके उसकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है । अवस्थानका कथन जैसे मनुष्यगतिके सम्बन्धमें किया है वैसे यहां भी करना चाहिए। वैक्रियिकशरीरकी प्ररूपणा देवगतिके समान है। आहारकशरीर नामकर्मको उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? जो गुणितकर्माशिक सबसे दीर्घ कालमें आहारकशरीरको पूर्ण कर चार वार कषायोंको उपशमा कर क्षपणामें उद्यत है उसके परभविक नामप्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्तिसे आवली मात्र काल जाकर आहारकशरीरकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके अनन्तर कालमें उसकी उत्कृष्ट हानि होती है। अवस्थान नहीं है । 'एव' शब्दसे यहां उपदेशोंका भी प्रतिषेध किया गया है। तैजस और कार्मण शरीरोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक चार वार कषायोंको उपशमा कर क्षपणामें उद्यत है उसके परभविक नामप्रकृतियोंको बन्धव्युच्छित्तिके पश्चात् आवली मात्र कालके वीतनेपर उनकी उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके अनन्तर काल में उनकी उत्कृष्ट हानि होती है। अवस्थानकी प्ररूपणा उपदेशके आश्रयसे मनुष्यगति नामकर्मके समान करना चाहिये। प्रथम संस्थान और प्रथम संहननकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो गुणितकर्माशिक * अ-काप्रत्यो: ' उवट्टिदो', ताप्रती ' अवटिदो' इति पाठः। * अप्रतौ ' पूणेदुण ' इति पाठः । SR ताप्रती 'खवेमाणस्स (खवेमाणओ तस्स)' इति पाठः। ४ अ-काप्रत्योः 'बंधवोच्छेदो', ताप्रतौ 'बंधवोच्छे (दा-) दो' इति पाठः।*ताप्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम्। ताप्रतौ 'कथं (दं)' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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