SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्बुद्धिको सुदृढ़ और व्यवस्थित करके दानकी रजिस्ट्री करा दी । सम्पादन कार्यके प्रारम्भमें अमरावती निवासी श्रीमान् स्वर्गीय सेठ पन्नालालजीका साहाय्य व प्रोत्साहन कभी भूला नहीं जा सकता । उन्होंने मानो इसी कार्यके लिये अपने मन्दिर जीके शास्त्र भंडारमें इस आगमकी पूर्ण प्रतिलिपि कराकर मँगा रखी थी। उसे तुरन्त उन्होंने मेरे सुपूर्द कर दिया। उनका यह कार्य उस समय कम साहसका नहीं था, क्योंकि भ्रान्तिवश हमारी विद्वत्समाजका एक दल इन ग्रन्थोंके प्रकाशन ही नही किन्तु किसी गृहस्थके द्वारा इनके अध्ययनका भी कट्टर विरोधी था और उस विरोधने क्रियात्मक रूप धारण कर लिया था। सेठ पन्नालालजी व अमरावती जैन पंचायतके अनुसार कारंजा जैन आश्रम तथा सिद्धान्त भवन, आरा, के अधिकारियोंने भी हमे उनकी प्रतियोंका उपयोग करनेकी सुविधा प्रदान की। प्रकाशन सम्बन्धी कागज, छपाई आदि विषयक कठिनाइयोंके हल करने में पं० नाथराम जी प्रेमीका वरद हस्त सदैव हमारे ऊपर रहा। यही नहीं, बीच में आर्थिक कठिनाईको दूर करने मुद्रण कार्य बम्बईमें कराने व अपने घर पर इसका दफ्तर रखने में भी वे नहीं हिचकिचाये। मेरे सम्पादक सहयोगियों में से डा० ए० एन० उपाध्ये प्रारम्भसे अभी तक मेरे साथ हैं । पं० फूलचन्द जी शास्त्रीका सहयोग भी आदिसे, बीच में कुछ वर्षोंके विच्छेदके पश्चात्, अभी भी मुझे मिल रहा है । पं० बालचन्द्र जी शास्त्रीका भी जबसे सहयोग प्राप्त हुआ तबसे अन्त तक निरन्तर निभता गया । स्वर्गीय पं० देवकीनन्दन जी शास्त्रीका भी आदिसे उनके देहावसान होने तक मुझे पूर्ण सहयोग मिलता रहा । पं० हीरालाल जी शास्त्रीका सहयोग इस कार्यके प्रारम्भमें बहुमूल्य रहा । किन्तु खेद है वह सहयोग अन्त तक न निभ सका । मैंने इन सब व्यक्तियों और घटनाओंका केवल संकेत मात्र किया है । तत्तत् सम्बन्धी आज सैकडों प्रियअप्रिय एवं साधक बाधक घटनाएँ मेरे स्मृति-पटल पर नाच रही हैं। किन्तु जिसका 'अन्त भला, वह सर्वांग भला' की उक्तिके अनुसार उस समस्त इतिहासमें मुझे माधुर्य ही माधुर्यका अनुभव हो रहा है। जिन पुरुषोंका मैं ऊपर उल्लेख कर आया हूँ उन्हें किन शब्दोंमें धन्यवाद दूँ ? बस यही एक भावना और प्रार्थना है कि जिन-वाणीको सेवामें उन्होंने अपना जैसा तन, मन, धन लगाया है, वैसा ही वे आजन्म लगाते रहे जिससे उनके ज्ञानावरणीय कर्मोका क्षय हो और वे निर्मल ज्ञान प्राप्त कर पूर्ण आत्मकल्याण करने में सफल हों। १-५-१९५८ हीरालाल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy