SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८ ) छक्खंडागमे संतकम्मं वड्ढदि जाव आवलिया त्ति । तेण परं णिक्खेवो चेव वड्ढदि । जहण्णओ णिक्खेवो थोवो । जहणिया अधिच्छावणा दोहि समएहि ऊणिया दुगुणा । उक्कस्सिया अधिच्छावणा असंखे० गुणा । उक्कस्सयं टिट्ठदिखंडयं विसेसाहियं । उक्कस्सओ णिक्खवो विसेसाहिओ, जेण कम्मट्ठिदी दोहि आवलियाहि समउत्तराहि ऊणिया । उक्कडुणा णाम कथं होदि ? बुच्चदे । तं जहा - उदयावलियब्भंतरष्ट्ठिदी ण सक्का उक्कड्डेदुं । कुदो ? साभावियादो । समउत्तरउदयावलियादिट्ठिदी उक्कडिज्जदि । सा उक्कड्डुिज्जमाणिया: वि अबज्झमाणीसु ट्ठिदीसु ण णिविखवदि, बज्झमाणियाणं जहणट्ठिदिमादि काढूण उवरिमासु सव्वासु ट्ठिदीसु णिक्खिवदि । एस * विही हेट्ठिमाणं ट्ठिदीणं उक्कडिज्जमाणियाणं । संपहि उवरिमाणं द्विदीणं उक्कड्डणविहाणं वुच्चदे । तं जहा- द्विदिसंतकम्मादो तक बढती है । इसके पश्चात् निक्षेप ही बढता है । जघन्य निक्षेप स्तोक है । जघन्य अतिस्थापना दो समयोंसे कम दुगुणी है । उत्कृष्ट अतिस्थापना असंख्यातगुणी है । उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक विशेष अधिक है । उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है, कारण कि वह एक समय अधिक दो आवलियोंसे हीन कर्मस्थितिके बराबर है । उत्कर्षण कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हैं। यथा- उदयावलीके भीतरकी स्थिति उत्कर्षणको प्राप्त नहीं करायी जा सकती है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । एक समय अधिक उदयावली आदि रूप स्थितिका उत्कर्षण किया जा सकता है। उस उत्कर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली स्थितिका भी निक्षेप अबध्यमान स्थितियोंमें नहीं किया जाता है, किन्तु बध्यमान स्थितियों में जघन्य स्थितिको आदि करके आगेकी सब स्थितियोंमें किया जाता है। यह विधान उत्कर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली अधस्तन स्थितियोंके लिये है । अब उपरिम स्थितियों के उत्कर्षणका विधान कहते हैं। यथा- स्थितिसत्कर्म से समयाधिक तिस्से उदयादि जाव आवलियतिभागो तावणिक्खेवो, आवलियाए बेत्तिभागा अइच्छावणा । उदए बहुअं पदेसग्गं दिज्जद्द, तेण परं विसेसहीणं जाव आवलियतिभागोति । तदो जा बिदिया द्विदी तिस्से कि तत्तिगो चैव कखेवो, अइच्छावणा समयुत्तरा । एवमच्छात्रणा समयुत्तरा, णिक्खेवो तत्तिगो चेव उदयावलियबाहिरादो आवलियति भागतिमद्विदि त्ति । तेण परं क्खेिवो वड्डर, अइच्छावणा आवलिया चेव । क. पा. सु. पृ. ३११, ५-९, उव्वतो य ठिई उदयावलिबाहिरा ठिइविसेसा । निक्खिवइ तइयभागे समयहिए सेसमइवईय || वड्ढद्द तत्तो अतित्थावणा उ जावलिगा हवइ पुन्ना । ता निक्खेवो समयाहिगालिग दुगूणकम्म ट्टिई || क. प्र. ३, ४-५. D तदो सम्वत्थोवो जहण्णओ लिक्खेवो । जहणिया अच्छावणा दुसमपूणा दुगणा णिव्वाघादेण उक्कस्सिया अइच्छावणा विसेसाहिया । वाघादेण उक्कस्सिया अइच्छावणा असंखेज्जगुणा । उक्कस्यं द्विदिखंडय विसेसाहियं । उक्कस्सओ णिक्खेवो विसेसाहिओ । उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । क. पा. सु पृ. ३१५, १८-२३. अ-काप्रत्योः '-वलियादि उक्रुड्डिज्जदि', ताप्रतौ ' वलियादि ( यद्विदि ) उक्कडिज्जदि ' इति पाठः । * अन्ताप्रत्यो: 'ओकडुिज्जमाणिया ' इति पाठः । उव्वट्टणा ठिईए उदयावलियाए बाहिरठिईणं । होइ अबाहा ' * ताप्रती 'एसा ' इति पाठ: । अइत्थावणाउ जा वलिया हस्ता ।। क. प्र. ३, १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy