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________________ संकमाणुयोगद्दारे टिदिसंकमो ( ३४७ भुजगार-पदणिक्खेव-वड्ढिसंकमा च णेदव्वा। मोहणीयस्स जहा कसायपाहुडे वित्थरेण ढाणसमुक्कित्तणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । वेयणीय-गोदंतराइयागं एक्केक्कं चेव ढाणं । णामस्स पुध पुध पिंडणामट्ठाणसमुक्कित्तणा कायव्वा । तं जहा- गदिणामाए एक्किस्से दोण्णं तिण्णं चदुण्णं संकमो। उज्वेल्लणं पडुच्च जासु जासु पिंडपयडीसु संकमट्ठाणाणि अस्थि तेहि सव्वअणुयोगद्दाराणि यव्वाणि । एवं पयडिसंकमो समत्तो। ठिकिसंकमो दुविहो मुलपयडिदिदिसंकमो उत्तरपयडिदिदिसंकमो चेदि। एत्थ अट्ठपदं । तं जहा- ओकड्डिदा वि द्विदी डिदिसंकमो, उक्कड्डिदा वि द्विदी द्विदिसंकमो, अण्णपडि णीदा वि द्विदी टिदिसंकमो होदि । एत्थ ओकड्डणाए ताव किंचि सरूवपरूवणं कस्सामो। तं जहा- उदयावलियब्भंतरद्विदीयो ण सक्का ओकड्डे, * उदयावलियादो जा समउत्तरटिदी सा सक्का ओकड्डेदुं* । सा ओकड्डिज्जमाणिया आवलियाए समऊणाए बेत्तिभागे अधिच्छाविदूण रूवाहियतिभागे णिक्खिवदि। तदो समउत्तरियाए ट्ठिदीए तत्तियो चेव णिक्खेवो, अधिच्छावणा वड्ढदि । एवं ताव अधिच्छावणा संक्रम। इन दो स्थानोंके द्वारा चौबीस अनुयोगद्वारों, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धिसंक्रमको भी ले जाना चाहिये। मोहनीयकी स्थानसमुत्कीर्तना जैसे कसायपाहुडमें विस्तारसे की गयी है वैसे यहां भी उसे करना चाहिये । वेदनीय, गोत्र और अन्तरायका एक एक ही स्थान है । नामकर्म की पृथक् पृथक् पिण्ड नामप्रकृतियोंकी स्थानसमुत्कीर्तना करना चाहिये। वह इस प्रकारसे-- गति नामकर्म सम्बन्धी एक, दो, तीन और चारका संक्रम होता है। उद्वेलनाके आश्रयसे जिन पिण्ड प्रकृतियोंमें संक्रमस्थान हैं उनके द्वारा सब अनुयोगद्वारोंको ले जाना चाहिये । इस प्रकार प्रकृतिसंक्रम समाप्त हुआ। स्थितिसंक्रम दो प्रकार है- मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृति स्थितिसंक्रम । यहां अर्थपद इस प्रकार है- अपकर्षणप्राप्त स्थितिको स्थितिसंक्रम कहा जाता है, तथा उत्कर्षणप्राप्त और अन्य प्रकृतिको प्राप्त करायी गयी भी स्थितिको स्थितिसंक्रम कहा जाता है। यहां पहिले अपकर्षण के स्वरूपकी कुछ प्ररूपणा की जाती है। यथा- उदयावलीके भीतरकी स्थितियां अपकर्षणकी प्राप्त नहीं करायी जा सकतीं, किन्तु उदयावलीसे जो एक समय अधिक स्थिति है वह अपकर्षणको प्राप्त करायी जा सकती है। अपकर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली उस स्थितिका निक्षेप एक समय कम ऐसी आवलीके दो त्रिभागोंको अतिस्थापना करके एक समय अधिक आवलीके त्रिभागमें किया जाता है। आगे उत्तरोत्तर एक एक समय अधिक स्थितिका निक्षेप तो उतना मात्र ही होता है, किन्तु अतिस्थापना बढती जाती है। इस प्रकार अतिस्थापना आवली प्राप्त होने " क. पा. सु पृ. २६०-३०९. .ताप्रती 'टा (णा) णं' इति पाठः। Oताप्रती ' एक्केकिस्से' इति पाठः । * टिदिसंकमो दुविहो मूलपयडिटिदिसंकमो च। तत्थ अट्ठपदं-जा दिदी ओकडिज्जदि वा उक्कडिज्जदि वा अण्णपडि संकामिज्जइ वा सो द्विदिसंकमो, सेसो दिदिअसंकमो। क. पा..." सु. प. ३१०, १-२. ठिइसंकमो त्ति वच्चइ मलत्तरपगईउ जा हि ठिई । उव्वट्रियाउ ओवट्रिया व पगई निया वाऽण्णं । क. प्र. २, २८. * अप्रतौ 'संकामओकट्टेदं ', काप्रती 'संका ओकड़ेदं ' इति पाठः । * अ-का-ताप्रत्योः 'संकामओकडेदं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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