SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३४९ समउत्तरटिदि बंधमाणस्स जा पुव्वबद्धस्स चरिमट्टिदी सा ण उक्कड्डिज्जदि, दुचरिमट्टिदी वि ण उक्कड्डिज्जदि । एवं जाव एगा आवलिया अण्णो आवलियाए असंखे० भागो च ओदिण्णोति णेदव्वं । तदो जा हेट्ठिमा अणंतरट्टिदी सा उक्कड्डिज्जदि। तिस्से उक्कडिज्जमाणियाए आवलिया अधिच्छावणा, आवलियाए असंखे० भागो णिक्खेवो। उक्कड्डिज्जमाणीणं द्विदीणं जहण्णओ णिक्खेवो थोवो । जहणिया अधिच्छावणा एगावलिया, सा असंखे० गुणा। उक्क० अधिच्छावणा संखेज्जगुणा । उक्कस्सओ णिक्खेवो असंखे० गुणो, जेण कम्मट्टिदी उक्कस्सियाए आबाहाए समतराए आवलियाए च उणिया*। एसा अट्ठपदपरूवणा । एत्तो पमाणाणुगमो वुच्चदे- उत्तरपयडिसंकमे पयदं । सो चउव्विहो उक्कस्सओ अणुक्कस्सओ जहण्णओ अजहण्णओ चेदि। मदिआवरणस्स उक्कस्सओ द्विदिसंकमो तीसं स्थितिको बांधनेवालेके जो पूर्वबद्ध कर्मकी चरम स्थिति है उसका उत्कर्षण नहीं किया जाता है, द्विचरम स्थितिका भी उत्कर्षण नहीं किया जाता है, इस प्रकार एक आवली और अन्य आवलीके असंख्यातवें भाग नीचे आने तक ले जाना चाहिये। उसे नोचेकी जो अधस्तन अनन्तर स्थिति है उसका उत्कर्षण किया जाता है। उत्कर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली उक्त स्थितिकी अतिस्थापना आवली प्रमाण और निक्षेप आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । उत्कर्षणको प्राप्त करायी जानेवाली स्थितियोंका जघन्य निक्षेप स्तोक है। जघन्य अतिस्थापना एक आवली मात्र होकर उससे असंख्यातगुणी है। उत्कृष्ट अतिस्थापना संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट निक्षेप असंख्यातगुणा है, क्योंकि, वह उत्कृष्ट अबाधा और एक समय अधिक आवलीसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण है । यह अर्थपदकी प्ररूपणा हुई। ___ यहां प्रमाणानुगमका कथन करते हैं- उत्तरप्रकृतिसंक्रमका अधिकार है। वह चार प्रकारका है- उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य। मतिज्ञानावरणका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम ० प्रतिषु ' उदिण्णो' इति पाठः । * वाघादेण कधं ? जह संनकम्मादो बधो समयुत्तरो तिस्से दिदीए णत्थि उक्कडणा । जइ सतकम्मादो बंधो दुसमयुत्तरो तिस्से वि संतकम्मअग्गदिदीए णस्थि उक्कडणा। एत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागो जहणिया अइच्छावणा । जदि जत्तिया जहणिया अइच्छावणा तत्तिएण अब्भहिओ संतकम्मादो बंधो तिस्से वि संतकम्मअग्गट्रिदीए णत्थि उक्कडणा। अण्णो आवलियाए असंखेज्ज हो जहण्णओ मिक्खेवो। जइ जहणियाए अइच्छापणाए जहण्णएण च णिक्खेवेण एत्तियमेत्तेण सतकम्मादो अदिरित्तो बंधो सा संतकम्मअग्गट्ठिदी उक्कड्डिज्जदि । तदो समयुत्तरे बंधे णिक्वेवो तत्तिओ चेव, अच्छावणा वढदि । एवं ताव अइच्छावणा वड्डइ जाव अच्छावणा आवलिया जादा ति । तेण परं णिक्खेवो वड्डइ जाव उक्कस्सओ णिक्खेवो त्ति । क. पा. सु.पृ. ३१६, २८-३७. णिव्बाघाएणेवं वाघाए संतकम्महिगबंधो । आवलि असंख भागादि होइ आत्थावणा नवरं ।। क. प्र. ३, ३. xxx संप्रत्यल्पबहुत्वमुच्यते- या जघन्याऽतीस्थापना यश्च जघन्यो निक्षेप एतौ द्वावपि सर्वस्तोकौ परस्परं च तुल्यो। यतो द्वावप्येतो आवलिकासत्कासंख्येयतमभागमात्रौ, ताभ्यामसंख्येयगुणोत्कृष्टाऽतीस्थापना, तस्या उत्कृष्टाबाधारूपत्वात् । ततोऽप्यत्कृष्टो निक्षेपोऽसंखयगुणाः, यतोऽसौ समयाधिकावलिकपाऽबाधया च हीना सर्वा कर्म स्थितिः । ततोऽपि सर्वा कमस्थितिविशेषाधिका । मलय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy