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________________ संकमाणुयोगद्दारे पदेससंकमो ( ४७५ जह० हाणी कस्स ? जो जहण्णएण कम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेऊण तदो संजोएदूण बे-छावट्ठियो सम्मत्तमणुपालिय अणंताणुबंधीणं विसंजोयणाए उवट्टिदो तस्स अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए जहणिया हाणी । एरिसो चेव बे-छावट्ठीयो अणुपालेदूण मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छाइटिस्स जह० वड्ढी । अवट्ठाणं णत्थि । एसो बिदियो उवदेसो । बारसण्णं कसायाणं जेण उवएसेण अवट्ठाणमत्थि तेण उवदेसेण उच्चदेजहणियाणि संतकम्माणि काऊण एइंदियं गदस्स जम्हि जहण्णयस्स संतकम्मस्स अवट्ठाणं होदि तम्हि जहणिया वड्ढी हाणी अवढाणं वा होज्ज । एवं भय-दुगुंछापुरिसवेदाणं । हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं जहण्णवड्ढि-हाणीयो जहा सादासादाणं कदाओ तहा कायव्वाओ। इत्थिवेदस्स जहणिया हाणी कस्स? जो जहण्णएण कम्मेण चदुक्खुत्तो कसाए उवसामेयूण बे-छावट्ठीयो सम्मत्तमणुपालेदूण से काले मिच्छत्तं गाहदि ति तस्स जहणिया हाणी । तस्स चेब से काले पढमसमयमिच्छाइट्ठिस्स जहणिया वड्ढी । अवट्ठाणं चेव अत्थि । णQसयवेदस्स इत्थिवेदभंगो । णवरि पुव्वमेव तिण्णि पलिदोवमाणि तिपलिदोवमेसु अच्छिय तदो पच्छा बे-छावट्ठीओ सम्मत्तमणुपालेदव्वो। अनुसार अनन्तानुबन्धी कषायोंकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो जघन्य सत्कर्मके साथ चार वार कषायोंको उपशमाकर फिर संयोजन कर दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन करके अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजनामें उद्यत होता है उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें उनकी जघन्य हानि होती है। ऐसा ही जो जीव दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उस प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उनकी जघन्य वृद्धि होती है । अवस्थान उनका नहीं है । यह दुसरा उपदेश है। जिस उपदेश के अनुसार अवस्थान है उस उपदेशके अनुसार बारह कषायोंकी प्ररूपणा करते हैं- जघन्य सत्कर्मोको करके एकेन्द्रिय भवको प्राप्त हुए जीवके जहांपर जघन्य सत्कर्मका अवस्थान होता है वहां उनकी जघन्य वृध्दि, हानि और अवस्थान होता है। इसी प्रकार भय, जुगुप्सा और पुरुषवेदकी प्ररूपणा करना चाहिये । हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य वृद्धि और हानि जैसे साता व असाता वेदनीयकी की गई है वैसे करनी चाहिये । स्त्रीवेदकी जघन्य हानि किसके होती है? जो जघन्य सत्कर्म के साथ चार वार कषायोंको उपशमा कर व दो छयासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्वका पालन कर अनन्तर कालमें मिथ्यात्वको प्राप्त होने वाला है उसके उसकी जघन्य हानि होती है। अनन्तर कालमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुए उसी प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके उसकी जघन्य वृद्धि होती है । अवस्थान नहीं है। नपुंसकवेदको प्ररूपणा स्त्रीवेद के समान है। विशेष इतना है कि पहिले हो तीन पल्योरमकाल तक तीन पल्योपम प्रमाण आयुवाले जीवोंमें रहकर पीछे दो छयासठ सागरोपम तक सम्यक्त्वका पालन कराना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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