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________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे अणुभागसंतकम्म पदेसग्गं जहण्णे ग सव्वधादिकद्दायाणमादिवग्गणाए जुत्तं, उक्कस्सेण अप्पप्पणो उक्कस्साणुभागफद्दएण संजुत्तं । सम्मत्तस्स आदिफद्दयं देसघादीणमादिफद्दएण समाणं, उपकस्सफद्दयं देसघादी । सम्मामिच्छत्तस्स आदिफद्दयं सव्वधादिफद्दयाणमादिफद्दएण समाणं, तस्सेव उक्कस्सफद्दयं दारुसमाणअणंतिमभागे जम्हि सम्मामिच्छत्तं समत्तं । तदो अणंतर उवरिमफद्दयं मिच्छत्तस्स आदिफद्दयं होदि, उक्कस्समप्पणो चरिमफद्दयं । सेसाणं कम्माणमादिफद्दयं देसघादीणमादिफद्दएण समाणं, उक्कस्समप्पणो चरिमफद्दयं। एत्तो उवरि घादिसण्णा द्वाणसण्णा च कायव्वा-- उक्कस्साणुभागसंतकम्मस्स घादिसण्णा ट्ठाणसण्णा च सुगमा, पुव्वं परूविदत्तादो । संपहि जहण्णागुभागसंतकम्मस्स घादि-ट्ठाणसण्णाओ वत्तइस्सामो । तं जहा--मदि-सुदावरण-चक्खु-अचक्खुदंसणावरणसम्मत्त-चदुसंजलण-तिण्णिवेद-पंचंतराइयाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मं देसघादिएयढाणियं । ओहिणाणावरण-ओहिदसणावरणाणं+ पि जहण्णाणुभागसंतकम्मं देसघादिएयटाणियं । मणपज्जवणाणावरणस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं देसघादि-दुढाणियं * । बारह कषाय ; इनका प्रदेशाग्र जघन्यत. सर्वघाति स्पर्धंकोंकी आदि वर्गणासे युक्त तथा उत्कर्षत अपने अपने उत्कृष्ट अनुभागस्पर्धकसे संयुक्त होता है। सम्यक्त्व प्रकृतिका आदि स्पर्धक देशघातियोंके आदि स्पर्धकके सदृश तथा उत्कृष्ट स्पर्धक देशघाती होता है। सम्यग्मिथ्यात्वका आदि स्पर्धक सर्वघाति स्पर्धकोंके आदि स्पर्धकके समान होता है तथा उसीका उत्कृष्ट स्पर्धक दारु समान अनन्तवें भागमें अवस्थित है जहां सम्यग्मिथ्यात्व समाप्त होता है । उससे आगेका अनन्तर स्पर्धक मिथ्यात्वका आदि स्पर्धक होता है और उत्कृष्ट अपना अन्तिम स्पर्धक होता है। शेष कर्मोंका आदि स्पर्धक देशघातियोंके आदि स्पर्धकके समान तथा उत्कृष्ट अपना अन्तिम स्पर्धक होता है । __ आगे यहां घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा की जाती है- उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मकी घाति संज्ञा और स्थानसज्ञा सुगम है, क्योंकि, उनकी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है। अब यहां जघन्य अनुभागसत्कर्मकी घाति और स्थान संज्ञाओंका कथन करते हैं। यथा- मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, सम्यक्त्व, चार संज्वलन, तीन वेद और पांच अन्तरायका जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाति व एकस्थानिक है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणका भी जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाति व एकस्थानिक है। मनःपर्ययज्ञानावरणका जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाति व द्विस्थानिक है। शेष सब कर्मों का जघन्य अनुभागसत्कर्म ( ? ) 48 अ-काप्रत्यो: 'सम्मतं', ताप्रतो 'सम्म (म) तं' इति पाठः। अ-का प्रत्योः 'दंसणावरणं' इति पाठः। *संकमसममणभागे णवरि जहण तु देसघाईनं । छण्णोकसायवनाण' (वज्ज) एगट्टाणमिदेसहरं ।। मणनाणे ददाणं देसहरं सामिगो य सम्मते । आवरण-विग्यसोलस-किट्टिवेएसु य सगते ।। क. प्र. ७, २१-२२. xxx नवरमयं विशेषो यदुत देशघातिनीनां हास्यादिषट्कवजितानां मति-श्रुतावधिज्ञानावरण-चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरण-संज्वलनचतुष्ट य-वेदत्रिकान्तरायपंचकरूपागामष्टादशप्रकृतीनां जघन्यानभागसत्कर्मस्थानपधिकृत्य एक स्थानीयम्, घातिसंज्ञामधिकृत्य देशहरं देशघाति वेदितव्यम् । मनःपर्ययज्ञानावरणे पुनर्जन्यमनुभागसत्कर्मJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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