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भधारणीयाणुयोगद्दारे भवधारयपरूवणा
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संबंधस्स विरोहाभावादो । कदमेण धारिज्जदि ? कम्मेण धारिज्जदि । कुदो ? अण्णस्सा संभवादो । तत्थ णाणावरण- दंसणावरण-वेयणीय- मोहणीय णामा- गोदअंतराइएहि णो धारिज्जदि, तेसिमण्णत्थ वावारुवलंभादो । केण पुण धारिज्जदि ? आउएक्केण चैव धारिज्जदि, अण्णहा आउअकम्मस्स वज्जियकज्जस्स अभावप्प - संगादो । कघमण्णत्तो* उप्पण्णकज्जस्स अण्णं धारयं ? ण एस दोसो, वट्टीदो* समुप्पण्णपवस्स तेल्लेण धारिज्जमाणस्स उवलंभादो । इहभविएण आउएण धरेदि भवं, ण परभविएणे त्ति भावत्थो । जेण पदेसग्गेण भवं धारेदि तस्स पदेस - गस्स पदमीमांसा सामित्तमप्पाबहुगं च जहा वेयणाए परूविदं तहा परूवेयत्वं । एवं भवधारणीए त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
शंका- किसके द्वारा वह धारण किया जाता है ?
समाधान- कर्मके द्वारा धारण किया जाता है, क्योंकि, अन्यकी सम्भावना नहीं है । उसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तरायके द्वारा तो वह धारण नहीं किया जाता है; क्योंकि इनका व्यापार अन्य कार्यों में पाया जाता है ।
शंका- तो फिर वह किसके द्वारा धारण किया जाता है ?
समाधान- वह केवल एक आयु कर्मके द्वारा धारण किया जाता है । इसके विना आयु कर्मका अन्य कार्य न रहनेसे उसके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है । शंका- अन्यके निमित्तसे उत्पन्न कार्यका अन्य धारक कैसे हो सकता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वत्ती से उत्पन्न प्रदीप तेलके द्वारा धारण किया जानेवाला देखा जाता है ।
कारण कि
भावार्थ यह है कि इस भव सम्बन्धी आयु कर्मके द्वारा भव धारण किया जाता है, परभव सम्बन्धी आयु कर्मके द्वारा नहीं धारण किया जाता । जिस प्रदेशाग्र के द्वारा भवको धारण करता है उस प्रदेशाग्र सम्बन्धी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा जैसे वेदना अनुयोगद्वार में की गयी है वैसे करना चाहिये । इस प्रकार भवधारणीय यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
अ-काप्रत्योः ' कदमेण वारिज्जदि', ताप्रहो ' कदमेण वा (धा) रिज्जदि ' इति पाठ: । अ-काप्रत्योः 'वारिज्जदि ताप्रती वा (धा) रिज्जदि इति पाठ: । 'कथमण्णतो', तातो 'कथमण्णंतो (मण्णदो ) ' इति पाठः ।
अ- काप्रत्यो: 'तुल्लेग, तारती 'तु (ते) ल्लेग ' इति पाठ: ।
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अ-काप्रत्योः ताप्रती ' वड्ढी (ट्टी) दो' इति पाठः ।
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