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________________ भधारणीयाणुयोगद्दारे भवधारयपरूवणा ( ५१३ संबंधस्स विरोहाभावादो । कदमेण धारिज्जदि ? कम्मेण धारिज्जदि । कुदो ? अण्णस्सा संभवादो । तत्थ णाणावरण- दंसणावरण-वेयणीय- मोहणीय णामा- गोदअंतराइएहि णो धारिज्जदि, तेसिमण्णत्थ वावारुवलंभादो । केण पुण धारिज्जदि ? आउएक्केण चैव धारिज्जदि, अण्णहा आउअकम्मस्स वज्जियकज्जस्स अभावप्प - संगादो । कघमण्णत्तो* उप्पण्णकज्जस्स अण्णं धारयं ? ण एस दोसो, वट्टीदो* समुप्पण्णपवस्स तेल्लेण धारिज्जमाणस्स उवलंभादो । इहभविएण आउएण धरेदि भवं, ण परभविएणे त्ति भावत्थो । जेण पदेसग्गेण भवं धारेदि तस्स पदेस - गस्स पदमीमांसा सामित्तमप्पाबहुगं च जहा वेयणाए परूविदं तहा परूवेयत्वं । एवं भवधारणीए त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । शंका- किसके द्वारा वह धारण किया जाता है ? समाधान- कर्मके द्वारा धारण किया जाता है, क्योंकि, अन्यकी सम्भावना नहीं है । उसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तरायके द्वारा तो वह धारण नहीं किया जाता है; क्योंकि इनका व्यापार अन्य कार्यों में पाया जाता है । शंका- तो फिर वह किसके द्वारा धारण किया जाता है ? समाधान- वह केवल एक आयु कर्मके द्वारा धारण किया जाता है । इसके विना आयु कर्मका अन्य कार्य न रहनेसे उसके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है । शंका- अन्यके निमित्तसे उत्पन्न कार्यका अन्य धारक कैसे हो सकता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वत्ती से उत्पन्न प्रदीप तेलके द्वारा धारण किया जानेवाला देखा जाता है । कारण कि भावार्थ यह है कि इस भव सम्बन्धी आयु कर्मके द्वारा भव धारण किया जाता है, परभव सम्बन्धी आयु कर्मके द्वारा नहीं धारण किया जाता । जिस प्रदेशाग्र के द्वारा भवको धारण करता है उस प्रदेशाग्र सम्बन्धी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा जैसे वेदना अनुयोगद्वार में की गयी है वैसे करना चाहिये । इस प्रकार भवधारणीय यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । अ-काप्रत्योः ' कदमेण वारिज्जदि', ताप्रहो ' कदमेण वा (धा) रिज्जदि ' इति पाठ: । अ-काप्रत्योः 'वारिज्जदि ताप्रती वा (धा) रिज्जदि इति पाठ: । 'कथमण्णतो', तातो 'कथमण्णंतो (मण्णदो ) ' इति पाठः । अ- काप्रत्यो: 'तुल्लेग, तारती 'तु (ते) ल्लेग ' इति पाठ: । Jain Education International अ-काप्रत्योः ताप्रती ' वड्ढी (ट्टी) दो' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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