SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८२) छक्खंडागमे संतकम्म होदि ? विसंजोएदूण जहग्णपरिणामेण पढमसमयसंजुत्तो। णिरयगइणामाए जहण्णाणुभागसंकामओ को होदि ? पढमदाए संजोएमाणओ। जहा णिरयगइणामाए तहा सव्वासिमुवेल्लमाणणामपयडोणं । उच्चागोदस्त जहण्णाणुभागसंकामगो को होदि? संजोजेमाणओ। एवं सामित्तं समत्तं । एयजीवेण कालो। तं जहा- पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-असादावेदणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसायाणं उक्कस्साणुभागसंकामगो जह० अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण वि अंतोमुहुत्तं । अणुक्कस्ताणुभागसंकामओ केवचिरं० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्साणभागसंकामओ जह० अंतोमु०, उक्क० बेछावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । अणुक्कस्साणुभागसंकामओ जहण्णुक्क० अंतोमु०*। जघन्य परिणामसे संयुक्त होने के प्रथम समय वर्तमान है वह उनके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है। नरकगति नामकर्मके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन होता है ? सर्वप्रथम संयोजन करनेवाला जीव उसके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । जैसे नरकगतिके जघन्य अनुभागसंक्रामकका कथन किया है वैसे ही उद्वेल्यमान सभी नामप्रकृतियोंके जवन्य अनुभागसंक्रामकोंका कथन करना चारिये । उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागका सक्रामक कौन होता है ? सर्वप्रथम संयोजन करनेवाला जीव उसका संक्रामक होता है। इस प्रकार स्वामित्वको प्ररूपणा समाप्त हुई। एक जीवकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है। यथा- पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषाय' ; इनके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रामकका काल कितना है ? वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गल परिवर्तन मात्र है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके सक्रामकका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे साधिक दो छयासठ सागरोपम मात्र है। उनके अनुत्कृष्ट अनुभागके संक्रामकका काल जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ४ आऊण जहण्णलिई बंधिय जावत्थि सकमो ताव। उव्वलण-नित्थ-संजोयणा य पढमावलियं गतं ।। क. प्र. २-५८. तथा नरकद्विक-मनजद्विक वैक्रियिसप्तकाहारसप्तकोच्च!त्रलक्षणामेकविंशत्युद्वलनप्रकृतीनां तीर्थकरस्यानन्तानबन्धिनां च जघन्यमनुभागं बद्ध्वा प्रथमावलिका बन्धावलिका क्षणां गत्वातिक्रम्य, बन्धावलिकाया: परतः इत्यर्थः । जघन्यमनुभागं संक्रमयति । कः संक्रमयतीति चेदुच्यते- क्रियिकसप्तकदेवद्विकनरकद्विकानामसंज्ञिपंचेन्द्रियः, मनुष्य द्विकोच्चर्गोत्रयोः सूक्ष्मनिगोदः आहारसप्तकस्याप्रमत्तः, तीथकरस्याविरतसम्यग्दष्टिः, अनन्तानबन्धिनां पश्चात्कृतसम्यक्त्वो मिथ्यादष्टि: संक्रपयतीति । मलय. *मिच्छत्तस्स उक्कस्साण भागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण ककस्सेण अंतोमुहुत्तं । अणककस्साणुभागसंकामओ केवचिर कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहत्तं । उक्कस्सेण अणंतकालमसखेज्जा पोग्गल परियट्टा । एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । सम्मत-सम्मामिच्छताणमुक्कस्साणभागसंकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण अंतोमुहत्तं । उक्कस्सेण वे छावट्ठिमागरोवमाणि सादिरेयाणि । अणुक्कस्साण भागगकामओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंगोमुहुतं । क. पा. सु. पृ. ३५४, ६९-७९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy