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________________ ३७४ ) छक्खंडागमे संतकम्मं हाणीए संखे० गुणा । एवं णवदंसणावरणीय सादासादाणं । एवं सेसाणं पि कम्माणं । णवरि सम्मत्त सम्मा मिच्छत्त चत्तारिआउआणं च चत्तारिवड्ढि - चत्तारिहाणीयो वत्तवाओ । एवं ट्ठिदिसंकमो समत्तो । अनुभागसंकमे पुव्वं गमणिज्जो कम्माणमादिफद्दयणिद्देसो- चत्तारिणाणावरणीय - - तिष्णिदंसणावरणीय - - चदुसंजलण -- णवणोकसाय -- पंचंतराइयाणि देसघादोणि* । सादासाद--आउच उक्क-सयलणामपयडि- उच्च -- णीचागोदाणि अघादिकम्माणि । एदेसिमघादिकम्माणं पुव्विल्लदेसघादिकम्माणं च आदिफद्द - याणि सरिसाणि । केवलणाणावरणीय-छदंसणावरणीय - बारसकसाय० सव्वघा - सव्वघादीणि इकम्माणि । एदेसि आदिफद्दयाणि परोप्परं सरिसाणि । दारुसमाणाणि देसघादीणमादिफद्दए हितो अनंतगुणाणि । सम्मत्तस्स आदिफद्दयं देघादीणमादिफद्दएण सरिसं । तदो पहुडि सम्मत्तफद्दयाणि देसघादि असंख्यात भागहानिके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकारसे नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय और असातावेदनीयके सम्बन्ध में कथन करना चाहिये। इसी प्रकार शेष कर्मों के भी सम्बन्ध में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और चार आयु कर्मोंकी प्ररूपणामें चार वृद्धियों और चार हानियोंको कहना चाहिये । इस प्रकार स्थितिसंक्रम समाप्त हुआ । अनुभाग संक्रमकी प्ररूपणा में पहिले कर्मोंके आदि स्पर्धकोंका निर्देश ज्ञात कराने योग्य है- चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, चार संज्वलन, नौ नोकषाय और पांच अन्तराय; ये देशघाती कर्म हैं । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, समस्त नामप्रकृतियां, उच्चगोत्र और नीचगोत्र; ये कर्मप्रकृतियां अघाती हैं । इन अघातिया कर्मोंके तथा पूर्वोक्त देशघाती कर्मों आदि स्पर्धक सदृश होते हैं । केवलज्ञानावरण, छह दर्शनावरण और बारह कषाय सर्वघाती कर्म हैं । इनके आदि स्पर्धक परस्परमें सदृश हैं । सर्वघाती कर्मोंके दारु समान स्पर्धक देशघाति कर्मोके आदि स्पर्धकों की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं । सम्यक्त्व प्रकृतिका आदि स्पर्धक देशघातियोंके आदि स्पर्धक के सदृश है । उससे लेकर सम्यक्त्वके स्पर्धक देशघाति और काप्रतौ ' गमणिज्जे ' ' ताप्रतौ ' गमणिज्ज' इति पाठ: । मति श्रुतावधि मन:पर्ययज्ञानावरण-चक्षुरचक्षुरवधिदशनावरण-संज्वलनचतुष्टय-नव नोकषायान्तराय पंचकलक्षणानां पंचविशति संख्यानां देशघाति प्रकृतीनां देशघातीनि रसस्पर्धकानि भवन्ति । स्वस्थ ज्ञानदेर्गुणस्य देशमेकदेशं मतिज्ञानादिलक्षण घातयन्तीत्येवंशीलानि देशघातीनि । क. प्र. ( मलय ) २- १. • वेदनीयायुर्नाम - गोत्राणां सम्बन्धिन एकादशोत्तरप्रकृतिशतस्याघातिनो रसस्पर्धकान्यघातीनि वेदितव्यानि । केवलं वेद्यमान सर्वघा 'तरसस्पर्धकसम्बन्धातान्यपि सर्वघातीनि भवन्ति । यथेह लोके स्वयमचौराणामपि चौरसम्बन्धाच्चौरता । उस च - जाण न विसओ घाइत्तणम्मि ताणं पि सव्वधाइरसो । जायइ घाइसगासेण चोरया वेहऽचोराणं ॥ क. प्र. ( मलय. ) २-४४. ३ केवलज्ञानावरण- केवलदर्शनावरणाद्यद्वादशकषाय-निद्रापंचक-मिथ्यात्वलक्षणानां विशनिप्रकृतीनां रसवर्धकानि सर्वघातीनि सर्वं स्वघात्यं केवलज्ञानादिलक्षणं गुणं घातयन्तीति सर्वघातीनि । तानि च ताम्रभाजनवत् निश्छिद्राणि, घृतवत् स्निग्धानि, द्राक्षाबत्तनु प्रदेशोपचितानि, स्फटिकाभ्रहारवच्चातीव निर्मलानि । उक्तं च- जो घायइ सविसयं सयलं सो होइ सव्वधाइरसो । सो निच्छिड्डो णिद्धो तणुओ फलिहहर विमलो ॥ क. प्र. ( मलय ) २-४४. * प्रतिषु ' घादि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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