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________________ संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो ( ३५५ एगसमओ, उक्क० अंतमहुतं । पंचणाणावरण-णवदंसणावरण-मिच्छत्त- सोलसकसायअसादावेदणीयाणं अणुक्कस्सट्ठिदिसंकमो जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अधवा, मदि-सुदआवरणाणमणुक्कस्सट्ठिदिसंकमकालो एगसमयमादि कावण जाव असंखे ० पोग्गलपरियट्टमेत्तो । कुदो ? मदि-सुदआवरणाणं संखेज्जपयडीसु अण्णदरपयडीए उक्कस्सट्टिदि बंधिदृण बिदियसमए सव्वासिमणुक्कस्सट्ठिदि बंधिय तदियसमए अवरा पयडीए उक्कस्सट्ठिदि बंधिय आवलियादीदं संकममाणस्स अणुक्कसद्विदीए एगादिसमयकालुवलंभादो । अरदि-सोग-भय-दुगंछा - णवुंसयवेदाणं अणुक्कसिंकमकालो जह० एयसमओ, उक्क ० अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । इत्थि - पुरिसवेद-साद-हस्स रदीणं उक्कस्सट्ठि दिसंकमकालो जह० एमओ, उक्क० आवलिया । अणुक्कस्सट्ठिदिसंकमकालो जह० एयसमओ, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । णवरि सादस्स जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखे ० पोग्गलपरियट्टा । देव- णिरयाउआणं उक्कस्सट्ठिदिसंकमो णिसेयट्ठिदिगो णियमा अंतोमुहुत्तो । अक्सट्ठि दिसंकमो देव- णिरयाउआणं # जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संक्रमका काल कितना है? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अंतर्मुहूर्त मात्र है। पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय और असातावेदनीयके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र है । अथवा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणके अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका काल एक समयको आदि करके असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र तक है । इसका कारण यह है कि मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकी संख्यात प्रकृतियों में अन्य प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर, द्वितीय समय में सब प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधकर, तृतीय समय में अन्य प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर आवलिकातीत उसका संक्रमण करनेवालेके अनुत्कृष्ट स्थितिका एक आदि समय रूप काल पाया जाता है । अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन रूप अनन्त काल मात्र है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, असातावेदनीय, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थिति के संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवली मात्र है । इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल है । विशेष इतना है कि सातावेदनीयका उक्त काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गल - परिवर्तन मात्र है । देवायु और नारका की उत्कृष्ट स्थिति के संक्रमकाल निषेकस्थितिस्वरूप है जो नियम से अन्तर्मुहूर्त मात्र है। देवायु और नारकायुकी अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रमका काल जघन्यसे अंतर्मुहूर्त अप्रतौ ' आवलियाए' इति पाठ: । 'णिसेयठ्ठिदिजो (गो)' इति पाठः । Jain Education International अ-काप्रत्योः 'णिसेयठ्ठिदि जो ताप्रतौ अती 'णिरया आणं' इति पाठः । For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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