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मित्तीमे सवभास
आचार्य श्री प सागर सूरी म.सा.
श्री अरूणोदय फाउन्डेशज का
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गच्छाधिपति प्रशांतमूर्ति प. पू. आचार्यदेव श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. को कोटी कोटी वंदना
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मित्ती मे सव्वभूएसु
VHA
आचार्य श्री पद्मसागरसूरि
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मित्ती मे सव्वभूएस
[ मैत्री - मार्ग में पन्द्रह कदम ]
: प्रवचनकार :
जैनाचार्य प्रवर श्रीमत्कल्याणसागर सूरीश्वरचरणाम्बुजचञ्चरीक
आचार्य श्री पद्मसागरसूरि
★ अनुरोधकर्ता:
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मुनिराज श्री अरुणोदयसागरजी म. सा. "स्नेहपद्म " के शिष्य - रत्न
मुनि श्री देवेन्द्रसागरजी महाराज
★
: सम्पादक :
शान्त प्रकाश सत्य दास
एम्. ए. (संस्कृत + राजनीति विज्ञान )
★
: प्रकाशक :
श्री अरुणोदय फाउन्डेशन
"सदा आनन्द"
विजय विहार को-ऑप. सोसायटी, नवरंगपुरा, अहमदाबाद - ३८०००९. Phone : 440383
-
मूल्य ग्यारह रुपये मात्र
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प्राणरपि हिता वृत्तिरद्रोहो व्याजवर्जनम् ।
आत्मनीय प्रियाधान मे तन्मंत्रीमहाव्रतम् ।। [प्राणों की पर्वाह न करके (प्राणों की बाजी लगा कर) भी दूसरों का भला करने की इच्छा, निर्वरता, निष्कपटता और सब के साथ आत्मवत् प्रिय व्यवहार - यही मैत्री महाव्रत का लक्षण है।
सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन
* द्वितीय संस्करण - सन् १९८६ ई.
एक हजार प्रतियाँ मात्र * विधा :- धार्मिक प्रवचन - संकलन ।
पुस्तक प्राप्तिस्थल : १) श्री अरुणोदय फाउन्डेशन
"सदा-आनन्द" विजय विहार को-ऑप. सोसायटी, नवरंगपुरा,
अहमदाबाद -३८० ००९. Phone : 4403 83 २) श्री अरुणोदय फाउन्डशन
४०/५ उपेन्द्र, फर्स्ट फ्लोर, बिहाइंड अरोरा सिनेमा
किंग्स सर्कल, माटुंगा, बम्बई-४०००१९.T.No.:474795 ३) श्री अरुणोदय फाउन्डेशन
C/o. के. एफ. वखारिया, वखारिया सिल्क मिल्स
४/१६४४ बेगमपुरा, फालसावाड़ी, सूरतT.No. : 31889 ४) श्री अरुणोदय फाउन्डेशन
C/o. भसाली केमिकल्स, २६-नयनीअप्पा नायक स्ट्रीट,
मद्रास - ६००००३. T.No. : 32147 ५) श्री अरुणोदय फाउन्डेशन
C/0. देवीचन्द मिश्रीमल, चीकपेट, बेंगलोर-५६००५३. मुद्रक : हेमांग प्रिन्टर्स, हिरापन्ना इन्डस्ट्रीयल इस्टेट, गोरेगांव (पू.), बम्बई-४०००६३
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समर्पण
यह कृति सस्नेह समर्पित हैउस मानव समाज को, जो प्राणिमात्र से मैत्री (मित्रता) स्थापित करने के मार्गपर चलने को तत्पर है !
p
- पद्मसागर
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प्रकाशकीय
प्रमु के वचन ही प्रवचन हैं। प्रभु महावीर की वाणी को भलीभांति पढ़ - सुन - समझकर विविध सुभाषितों और रोचक दृष्टान्तों के द्वारा प्रभावक शैली में जो प्रस्तुत कर देता है, वही है- प्रवचनकार।
ऐसे ही सुप्रसिद्ध प्रवचनकार जैनाचार्य प्रवर प्रातः स्मरणीय सद्गुरुवर्य परमपूज्य श्रीमत्पमसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब के पन्द्रह प्रवचनों का यह संकलन "मित्ती मे सव्वभूएसु" शीर्षक से ग्रन्थरूप में प्रकाशित करते हुए आज हमें विशेष आनन्द का अनुभव हो रहा है।
इस अवसर पर काव्यतीर्थ राष्ट्रभाषापण्डित श्री शान्तप्रकाशजी सत्यदास एम्. ए. ( संस्कृत+राजनीतिविज्ञान ) का सहसा स्मरण हो आता है, जिन्होंने आचार्य श्री के समस्त प्रवचनों को हृदयंगम करके विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत अपनी सरल प्रांजल भाषा में उनका सुव्यवस्थित सम्पादन एवं पुनर्लेखन किया।
उन दानवीरों के भी हम अत्यन्त आभारी हैं, जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन-खर्च में मुक्तहस्त से आर्थिक सहायता दी।
अन्त में हम आश्वासन देते हैं कि समाजहितकारी ऐसे ही कुछ और ग्रन्थ भी प्रकाशित करने का प्रयास किया जायेगा।
- अध्यक्ष एवं ट्रस्टीगण श्री अरुणोदय फाउन्डेशन
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सम्पादकीय मंत्री में सबको समान माना जाता है - न छोटा, न बड़ा । किसीको छोटा मानने में घमण्ड की और बड़ा मानने में दीनता की भावना आ सकती है- सुपीरियरिटी अथवा इन्फोरियरिटी काम्प्लेक्स की उत्पत्ति हो सकती है। दोन उन्नति में बाधक हैं। मित्रता में उनकी कोई सम्भावना नहीं रहती।
"मोक्षमार्ग में बोस कदम" के बाद सम्पादित प्रवचनों के इस संकलन का नाम "मैत्री मार्ग में पन्द्रह करम" रखने का विचार था; परन्तु उसी समय :
"मित्ती में सव्वभूएसु ॥" [मेरी समस्त प्राणियों के साथ मित्रता है।]
इस महात्मा महावीर के मुखारविन्द से प्रस्रुत सूक्तिमकरन्द-बिन्दु का सहसा स्मरण हो आने से यही नाम रख दिया गया।
__"पद्मपरिमल" पुस्तक में मुद्रित तथा कुछ टेपांकित प्रवचनों से प्राप्त, आचार्य श्री पयसागरसूरिजी की विचारसामग्री को विषयानुसार विभिन्न पन्द्रह शीर्षकों के अन्तर्गत विभाजित करके उनका पुनर्लेखन यद्यपि पूरी सावधानी से किया गया है, फिर भी प्रमादवश कहीं असंयत सावध भाषा का प्रयोग हो गया हो तो उसे केवल मेरा दोष माना जाय, प्रवचनकार का नहीं।
अन्त में निवेदन है कि इस प्रवचन-शंखला की अगली कड़ी किस शीर्षक से प्रकाशित होकर आपके कर-कमल-युगल में कब तक पहुँच पाती है -सो इस बात पर निर्भर रहेगा कि आप कितनी अधिक उत्सुकता से उसकी निरन्तर प्रतीक्षा करते हैं!
-शान्तप्रकाश सत्यदास बिरलाग्राम-नागदा जं०
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यत्किचित् भूत के शोक और भविष्य की चिन्ता से मुक्त होकर जो वर्तमान सुख का अनुभव करना जानते हैं, वे चिन्ताकर्षक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए आत्मा को पापपंक से कलंकित नहीं किया करते; क्योंकि उन समस्त वस्तुओं में "अनित्यता" का निवास होता है।
धर्मग्रन्थों की आज्ञा के अनुसार अनित्य वस्तुओं के संकलन को परोपकार में लगाकर वे "अपरिग्रह और "अनुशासन" का एक साथ पालन करते हैं। वे "आत्मा" के स्वरुप को जानने के लिए शास्त्रों के स्वाध्याय का पवित्र "उटाम" करते हैं और अनुद्विग्न चित्त से पूर्वोपार्जित शुभाशुभ 'कमफल भोगते हैं।
उनमें उदारता होती है, "कृपणता" नहीं कृपण न खाता है और न खिलाता है। उसकी सम्पत्ति अजागलस्तनवत् निरर्थक होती है। उड़ाऊ व्यक्ति अनावश्यक खर्च करता रहता है. किन्तु कृपण आवश्यक खर्च भी नहीं करता दोनों अविवेकी हैं विवेकी वे हैं, जो एक रुपया भी अनावश्यक खर्च नहीं करते और आवश्यक होने पर हजारों रुपये भी खर्च कर डालते हैं।
कृपणता जैसे दोषों को छोड़कर मितव्ययिता जैसे गुणों को अपनाना "गुणग्रहकता" है। यही वह गुण है, जो व्यक्ति को गुणवान् बना सकता है । धन की अपेक्षा गुणों का संग्रह अधिक महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि गुणों से धन तो मिल सकता है; परन्तु धन से गुण नहीं मिल सकते । गुण ग्राहकता के लिए गुणों में रुचि आवश्यक है। जिसमें रुचि नहीं होती, वह गुण
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(२) वान् के सान्निध्य में रहकर भी कोई लाभ नहीं उठा सकता। कहा भी है :
गुणिनि गुणज्ञो रमते,
नागुण शीलस्य गुणिनि परितोषः । अलिरेति वनात्कमलम्,
न दर्दुरस्तनिवासोऽपि ।। [ गुणों को जानने वाला ही गुणी को देखकर प्रसन्न होता है। निर्गुण (गुणहीन) को गुणी से सन्तोष नहीं होता। भौंरा जंगल से कमल तक आता है; परन्तु मेढक कमल के समीप रहकर भी कमल की सुगन्ध से आकर्षित नहीं होता! ] जिनमें गुणों का निवास होता है, उन्हीं का “गौरव" सुरक्षित रहता है-उन्हीं में "चतुराई" होती है। गुणी जन सदा दूसरों की ही 'चिन्ता" करते हैं, अपनी नहीं। उनमें 'दया" होती है; इसीलिए उनकी "भावना" में "मानवता" भरी रहती है। यही मानवता उनमें "मित्रता" की पात्रता पैदा करती है।
दुनिया में अधिक से अधिक मित्र पाने के लिए मित्रता की पात्रता एक अनिवार्य शर्त है ! जैसा कि एक शायर का कथन है :
दोस्त इस दुनिया में सच्चा उसको होता है नसीब । यानी जिसमें दोस्त बनने को लियाकत खुद भी हो॥
मित्रता को मन में अंकुरित करने के लिए जिन चौदह गुणों की आवश्यकता है, उन पर एक-एक प्रवचन में विस्तृत विचार-विमर्श करने के बाद अन्त में (पन्द्रहवें प्रवचन में) मित्रता का विवेचन किया गया है। मैत्रीमार्ग में चलने के लिए ये पन्द्रह कदम हैं-ऐसा माना जा सकता है।
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श्रोता तीन प्रकार के होते हैं। कुछ होते हैं-गर्म तवे के समान, जिन पर प्रवचन के बिन्दु पड़ते ही भाप बनकर उड़ जाते हैं। कुछ होते हैं-कमल पत्र के समान, जिनपर प्रवचन के बिन्दु टिकते तो हैं; परन्तु मिथ्यात्वरूपी हवा का झोंका पाते ही नीचे गिर जाते हैं। तीसरे प्रकार के श्रोता सीपी के समान होते हैं, जिनमें प्रवचन बिन्दु मोती बनकर सीपी का जीवन बहुमूल्य बना देते हैं-धन्य बना देते हैं। मुझे सीपी के समान श्रोताओं की तलाश है।
प्रत्यहं धर्म श्रवणम् ॥ [प्रतिदिन धर्मप्रवचन सुनना चाहिए ]
यह सलाह उत्तम श्रोताओं के ही लिए दी गई है। एक ठाकुर साहब पहली बार किसी महात्मा का प्रवचन सुनने गये। महात्मा ने उन्हें देखकर कहा :-"आये हैं? आइये, बैठिये।"
थोड़ी देर बाद ठाकुर को चिलम पीने की याद आई। वे उठने की तैयारी कर रहे थे कि महात्मा बोले :- "उठ रहे हैं? अच्छा, उठिये।"
फिर ठाकुर उठकर ज्यों ही जाने लगे, महात्माजी बोले :"जा रहे हैं ? जाइये। कल फिर आइयेगा।"
महात्माजी की यह कोमल मधुर वाणी ठाकुर साहब के हृदय में बस गई। रात को वे सपने में बड़बड़ा रहे थे :"आये हैं ? आइये, बैठिए।" सहसा चार चोरों ने, जो उस रात ठाकुर की हवेली में चोरी करने आये थे, यह सुना तो सहम कर वे बैठ गये। फिर सोचा कि ठाकुर बन्दुक से प्राण ले लेगा, इसलिए यहाँ से खिसक जाना ही उचित है । वे उठने लगे कि ठाकुर साहब बोले :- "उठ रहे हैं ? अच्छा, उठिये।"
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फिर जाने लगे तो बोले :- "जा रहे हैं ? जाइये। कल फिर आइयेगा।"
उधर अपनी पल्ली में पहुंचकर भी चोरों को चैन नहीं मिला। वे भयसे काँप रहे थे कि ठाकुर सब कुछ जान गये हैं; इसलिए वे हमें छोडेंगे नहीं, यह भी हो सकता है कि वे हमारी पल्ली में ही आग लगाकर हमारे परिवारों को भी मार डालें।
आखिर विचार-विमर्श के बाद उन्होंने यही निश्चय किया कि सुबह होते ही ठाकुर साहब के सामने जाकर आत्मसमर्पण कर दिया जाय और उनसे क्षमा मांग ली जाय।
वैसा ही किया गया। प्रातः काल हवेली पर जाकर ठाकुर साहब से क्षमायाचना करते हुए उन चारों चोरों ने भविष्य में चोरी न करने की प्रतिज्ञा कर ली।
ठाकुर साहब ने सोचा कि एक दिन प्रवचन सुनने गया तो मेरा धन भी बच गया और चोरों का भी उद्धार हो गया; तब प्रतिदिन प्रवचन सुनने पर कितना लाभ होगा? आप भी शायद ऐसा ही सोच रहे होंगे! ठीक है न ?
तो लीजिये, यह प्रवचन पुस्तक आप ही के लिए है।
-पासागर
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अनुक्रमांक
a ব
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
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कहाँ क्या है ?
विषय
अनित्यता
अपरिग्रह
आत्मा
अनुशासन
उद्यम
कर्मफल
कृपणता
गुणग्राहकता
गौरव
चतुराई
चिन्ता
दया
भावना
मानवता
मित्रता
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पृष्ठांक
१
२०
३८
५६
૭૪
९१
१०८
१२५
१४१
१५७
१७२
१८६
२०७
२२४
२४२
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१. अनित्यता हमारी साँसों की संख्या निश्चित है। यही कारण है कि किसी मनुष्य के देहावसान पर कहा जाता है - उसने अन्तिम साँस छोड़ दी !
अंजलि में जल भर कर यदि आप खड़े रहें तो आप देखेंगे कि कुछ ही समय बाद वह सारा जल समाप्त हो जाता है। जिस प्रकार अंजलि से बाहर एक -एक बूंद निकलती जाती है, वैसे ही हमारी आयुष्यका भी एक - एक क्षण बीतता जाता है।
___ काल के तीन विभाग किये गये हैं- भूत, वर्तमान और भविष्य । जो बीत चुका है, वह भूतकाल है। बहुत से लोग उसके शोक में ही डूबे रहते हैं। शोक, खेद या दुःख से बिगड़ा कार्य सुधर नहीं सकता। इसी प्रकार भविष्य की चिन्ता भी व्यर्थ है । वह हमारे सुख की मात्रा को अनावश्यक रूप से कम कर देती है। रह गया- वर्तमान काल । महत्त्व इसीका है। यदि वर्तमान में अच्छे कार्य किये जा रहे हैं तो भविष्य अच्छा होगा ही।
डार्विन ने कहा था कि मनुष्य बन्दर का विकास है; परन्तु बन्दर से पूछा जाय तो वह क्या कहेगा? वह कहेगा कि मनुष्य बन्दर का पतन है; क्योंकि वह भूत के शोक और भविष्य की चिन्ता में खोया रहता है; और इस प्रकार अपने वर्तमान के आनन्द से वंचित रहता है। उस से हमारा जीवन अच्छा है।
नदी में बहने वाले जल के समान जीवन निरन्तर प्रवाहित हो रहा है। एक क्षण के लिए भी बहता हुआ जल रुकना
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२
नहीं जानता । हमारा आयुष्य भी प्रतिपल इसी प्रकार बिना रुके व्यतीत होता जा रहा है ।
जीवन मृत्युपर प्रतिष्ठित है। संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं मिल सकता जहाँ किसी जीव की मृत्यु नहीं हुई हो - जहाँ कोई जलाया अथवा दफनाया न गया हो ।
जब तक हम नश्वर शरीर में प्राण हैं, तभी तक इसका सम्मान होता है । प्राणों के अलग होते ही इस शरीर का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है । लोग इसे बस्ती से बाहर ले जाकर जला देते हैं या गाड़ देते हैं । आपके प्रिय कुटुम्बी ही सबसे पहले आपके शरीर में आग लगाते हैं । यह सब हम स्वयं अपनी आँखों से अड़ोस - पड़ौस में देखते रहते हैं; फिर भी आश्चर्य है कि हम सावधान नहीं होते ।
जीवन एक संग्राम है । इसमें सावधान रहने वाले ही विजेता बनते हैं । जिन्होंने जीवनभर दूसरों को धोखा दिया हो - सताया हो - लँटा हो- पीटा हो- जान से मारा हो, वे ही मृत्यु से डरते हैं । इससे विपरीत जिनका जीवन परोपकार में बीता हो- दूसरों की सेवा-सहायता में लगा रहा हो, वे मृत्युका शान्ति से वरण करते हैं - स्वागत करते हैं; ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार अभी - अभी ( १५ नवम्बर १९९२ को ) सन्त विनोबा भावे ने किया है। उन्होंने जैन साधुओं के समान संथारा ले लिया था, सो सात दिन में सिद्ध हो गया !
आपने घड़ी की आवाज तो सुनी ही होगी। वह "कट - कट" करती हुई यह सन्देश निरन्तर दे रही है कि जीवन की घड़ी कट रही है, जागते रहो ।
टूटा पुल और फूटा बर्त्तन जुड़ सकता है; परन्तु टूटा
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आयुष्य कभी नहीं जुड़ सकता। मृत्यु की एक मर्यादा है - सीमा है। वह हमें धोखा नहीं देती।
कौन कहता है कि मौत कहकर नहीं आती? वह तो पूर्वसूचना देकर ही आती है। सब से पहले वह बाल सफेद कर देती है। यह उसका पहला नोटिस होता है; परन्तु हम उस पर खिजाब लगा लेते हैं, जिससे कहीं वह नोटिस पढने में न आ जाय। फिर दाँत तोड़ देती है; परन्तु नकली बत्तीसी लगवाकर हम उसके इस दूसरे नोटिस की भी उपेक्षा कर जाते हैं। जब दृष्टि क्षीण हो जाती है तो हम लैंस लगवा लेते हैं और सुनने की शक्ति क्षीण होने पर हम श्रवणयन्त्र लगा लेते हैं। शरीर पर झुरियाँ पड़ने पर प्लास्टिक सर्जरी का सहारा लेते हैं। इस प्रकार उसके हर एक नोटिस को हम बिना पढ़े ही निष्प्रभ करके अपने को सुरक्षित मान लेते हैं; परन्तु हमारी इन बालचेष्टाओं पर मौत ठहाका मारकर हंसती रहती है और ज्यों ही हमने अन्तिम सांस ली कि वह हमें धर दबोचती है। ____ करोड़ों स्वर्णमुद्राएँ आप देने को तैयार हो जायँ तो भी कोई हमारी आयुष्य में एक क्षण की वृद्धि नहीं कर सकता। शंकराचार्य कहते है :आयुः क्षणलवमात्रम्
न लभ्यते हेमकोटिभिः क्वापि । तच्चेद् गच्छति सर्वम्
मृषा ततः काधिका हानिः? [करोड़ों स्वर्णमुद्राओं के बदले भी कहीं से जो आयु क्षणभर भी प्राप्त नहीं होती, वह यदि सारी व्यर्थ चली जाय तो उससे बढ़कर अधिक हानि भला क्या होगी? ]
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__ परमात्मा नित्य हैं और आपके शूज अनित्य हैं; फिर भी यदि आप बाटा के एम्बेसेडर शूज, जो आजकल पौने दो सौ रु. में मिलते हैं, पहिन कर मन्दिर मे दर्शनार्थ चले जायं तो क्या होगा? शरीर आपका मूत्ति के निकट रहेगा; किन्तु नेत्र और मन तो मन्दिर के बाहर रखे शज में ही अटके रहेंगे, उस अवस्था में यदि आप मुंह से कहें :त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव ! [हे देवाधिदेव ! तुम ही मेरे माता-पिता, बन्धु, मित्र, विद्या धन और सब कुछ हो।]
तो इसका क्या अर्थ होगा? आप स्वयं समझ लेंगे कि यह स्तुति वास्तव में परमात्मा को हुई या जूतों की?
जूतों का तो केवल उदाहरण के लिए उल्लेख किया गया है; अन्यथा दुनिया की समस्त अनित्य वस्तुएँ हमें नित्य परमात्मा की अपेक्षा अधिक आकर्षित करती हैं; जब कि मृत्यु के समय ये सब यहीं छूट जानेवाली हैं :जब तेरी डोली निकाली जायगी।
बिन मुहरत के उठा ली जायगी। उन हकीमों से यूं कह दो बोलकर
करते थे दावा किताबें खोलकर "यह दवा हगिज न खाली जायगी!"
जब तेरी डोली निकाल जायगी।। जर सिकन्दर का यहीं पर रह गया
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मरते दम लुकमान भी यूँ कह गया
"यह घड़ी हर्गिज न खाली जायगी"
जब तेरी डोली निकाली जायगी ॥ होयगा परलोक में तेरा हिसाब
क्या करोगे तब वहाँपर तुम जनाब ? जब बही तेरी निकाली जायगी ।
जब तेरी डोली निकाली जायगी || ऐ मुसाफिर ! क्यूं पसरता है यहाँ ?
ये किराये पर मिला तुझ को मकाँ कोठड़ी खाली करा ली जायगी ।
जब तेरी डोली निकाली जायगी || क्यों गुलों पर हो रही बुलबुल निसार
है खड़ा पीछे वो माली खबरदार मारकर गोली गिरा लो जायगी
जब तेरी डोली निकाली जायगी ।। चेत "भैयालाल" अब जिनवर भजो
मोहरूपी नींद को जल्दी तजो आत्मा परमात्मा बन जायगी ।
जब तेरी डोली निकाली जायगी ॥ एक पुराने कवि "भैयालाल " का यह गीत आज भी हमारे वैराग्य को जगाने की पर्याप्त क्षमता रखता है । कुटुम्बी हों या मित्र - कोई भी परलोक में हमारे साथ नहीं आता :" मरघट तक के लोग बराती
"
हंस अकेला जाता !
प्रभु महावीर ने बार - बार गौतमस्वामी का ध्यान इस
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अनित्यता की ओर आकर्षित करते हुए कहा था :कुसग्गे जह ओस बिन्दुए
थोवं चिट्टइ लम्बमाणए। एवं मणआण जीवियं
समयं गोयम! मा पमायए ।। परिजूरइ ते सरीरयं
केसा पंडुरया हवन्ति ते। से सोयबले य हायई समय गोयम! मा पमायए।।
- उत्तराध्ययनसूत्र [कुश (तिनके ) के अग्रभाग पर लटकने वाली ओस की बूंद जिस प्रकार वहाँ थोड़ी देर के ही लिए टिकती है, उसी प्रकार हे गौतम! मनुष्यों का जीवन भी (न टिकने वाला) होता है; इसलिए तू क्षणभर भी प्रमाद मत कर। तेरा शरीर शिथिल हो रहा है (उस पर जगह - जगह झुर्रियाँ पड़ गई हैं) तेरे केश सफेद हो गये हैं और तेरे श्रोत्रबल (कानों में सुनने की शक्ति) की भी हानि हो चुकी है; इसलिए हे गौतम! तू क्षण - भर भी प्रमाद मत कर। ____ कामसुख क्षणिक होता है और मोक्षसुख स्थायी । अधिकांश संसारी जीवों का जीवन कामसुख पाने में ही समाप्त हो जाता है। विवेकियों पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता। कहा है :“विवेकधाराशतधौतमन्तः
सतां न कामः कलुषीकरोति ॥" [संकड़ों विवेक की धाराओं से जिनका अन्तःकरण धुलकर निर्मल हो जाता है, उन सज्जनों के अन्तःकरण को कामना
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कलुषित नहीं कर सकती।
ऐसे विवेकियों का जीवन सफल होता है; इसलिए मौत उन्हें खिन्न नहीं कर सकती :न सन्तसन्ति मरणन्ते सीलवन्तो बहुस्सुया ॥
-उत्तराध्ययन ५/२९ [सुशील बहुश्रुत व्यक्ति मृत्यु से भयभीत नहीं होते ] महात्मा कबीर भी कहते थे :जा मरने से जग डरे
मो मन में आनन्द । कब मरिहीं कब पाइहौं
पूरन परमानन्द ॥ मृत्यु सबसे बड़ा सत्य है । मृत्यु से पूर्व द्रोणाचार्य ने कहा था कि मेरा दाहसंस्कार ऐसे स्थान पर करना, जहाँ पहले किसी का न हुआ हो। उनकी इच्छाके अनुसार ऐसा स्थान ढूँढने का भरपूर प्रयास किया गया; परन्तु नहीं मिल सका। द्रोणाचार्य का उद्देश्य इससे पूरा हो गया। वे सबको यह समझाना चाहते थे कि मृत्यु सर्वत्र होती रहती है - सबकी होती है - मेरी भी हुई है ; इसलिए मृत्यु पर शोक मत करना । शोक से कोई मृतक जीवित नहीं होता। मृत्यु एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । हम जहाँ भी अवस्थित हैं, वह किसी की मृत्युभूमि रह चुकी है। हम सब कब्ज पर बैठकर जोवन की चर्चा करते हैं।
एक रोगी, एक बूढ़ा और एक मुर्दा देखकर बुद्ध संसार से विरक्त हो गये थे; परन्तु ये सब हमे बार - बार
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दिखाई देते हैं; फिर भी विरक्ति का लेशमात्र भी हृदय को छू
नहीं पाता ।
पौधे पर एक कली निकलती है, विकसित होकर सुन्दर फूल बनती है और मुरझाकर जमीनपर गिर पड़ती है । सूर्य प्रातःकाल होते ही उगता है, सारे आकाश में घूमता है और शामको अस्त हो जाता है । किसी घरमें एक गर्भस्थ शिशु जन्म लेता है - क्रमशः बालक, किशोर और युवक बनता है और फिर वृद्ध होकर मर जाता है । क्या ये सारे दृश्य जगत् की नश्वरता - क्षणिकता - अनित्यता पर प्रकाश नहीं डालते ?
एक डाकू था । अपने चार-पाँच साथियों को लेकर वह ster डालने गया । लौटते समय रास्ते में साथियों की हत्या कर दी, जिससे धन का बँटवारा न करना पड़े। फिर सारा धन जमीन खोदकर गाड़ने के लिए श्मशान में गया । वहाँ किसी पेड़ की छाया में चट्टान पर एक संन्यासी बैठा था । डाकू ने पूछा :- "आप यहाँ क्यों बैठे हैं ?"
संन्यासी :- "मुझे एक व्यक्तिकी तलाश है ।" डाकू :- "तो उसे खोजने के लिए बाजार में जाइये - बस्ती में जाइये | यहाँ वह कैसे मिल सकेगा आपको ?"
संन्यासी :- "मिलेगा - अवश्य मिलेगा; क्योंकि यहाँ एक न एक दिन उसे आना ही पड़ेगा । लोग उसे बाँधकर लायँगे ! "
!
डाकू पर इस उत्तर का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा वह विचारमग्न हो गया । सोचने लगा कि जिस प्रकार मैंने अपने साथियों की हत्या की है, उसी प्रकार एक दिन कोई मेरी भी हत्या कर देगा | जैसे मैं धन गाड़ने आया हूं, वैसे ही एक दिन
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मेरा शरीर भी मेरे कुटुम्बियों द्वारा गाड़ दिया जायगा। उसे अपनी मौत स्पष्ट दिखाई देने लगी। वह अपने पापों का स्मरण करके पछताने लगा। उसका हृदय परिवर्तित हो गया उसने संन्यासी से कहा कि मेरा उद्धार कैसे होगा? कृपया कोई उपाय सुझाइये।
संन्यासीने उससे कहा कि अपने पास जितना भी धन इस समय मौजूद है, वह सब जिसका है, उसे लौटा दो; और यदि मालिक का पता न लगे तो गरीबों में बाँट दो। फिर ईमानदारी से मेहनत करके अपना और अपने परिवार का पालन करो। उद्धार का यही मार्ग है।
___ डाकूने वैसा ही किया और वह एक सज्जन बन गया। डाकू रत्नाकर को भी "वाल्मीकि ऋषि" बनाने वाला एक संन्यासी ही था। उससे जब जब कहा गया कि तुम जो धन लूटते हो, उसका उपयोग तो सारे कुटुम्बी करते हैं; परन्तु लटसे जिस पाप का उपार्जन करते हो, उसका फल तुम अकेले भोगोगे। कुटुम्बियों से पूछने पर पता चला कि सचमुच पापों का फल भोगने के लिए कोई तैयार नहीं है इससे उसकी आँखें खुल गईं और उसी दिन वह डाकू से संन्यासी बन गया । डाकू अंगुलिमाल, जो प्रतिदिन पथिकों की उँगलियाँ काटकर उनकी माला बनाकर अपने गले में धारण करता था, महात्मा बुद्ध के उपदेश से प्रभावित होकर एक बौद्ध भिक्ष बन गया था !
उपदेश का प्रभाव जीवित व्यक्तियों पर पड़ता है, मुर्दो पर नहीं। एक साधु के प्रवचन में आसोजी नामक श्रावक ऊंघ रहा था। बीच में ही प्रवचन रोक कर साधुने पूछा :"आसोजी! क्या सो रहे हो?"
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चौंककर वे बोले :- “नहीं- नहीं, कौन कहता है ? मैं तो ध्यान से सुन रहा हूँ।"
थोड़ी देर बाद आसोजी फिर ऊँघने लगे। मुनिराज के पूछने पर बोले :- “नहीं - नहीं, कौन कहता है ? मैं तो आँख बन्द करके आपके प्रवचन पर मनन करता हूँ।"
फिर कुछ समय बाद उनकी वही हालत हो गई। मुनिराजने इस बार प्रश्न थोड़ा बदलकर पूछा :- "आसोजी! क्या जी रहे हो?"
वे समझे कि वही प्रश्न होगा, बोले :- “नहीं- नहीं; कौन कहता है ? मैं तो..."
उत्तर सुनकर सभी श्रोता हंस पड़े; क्योंकि इस बार. उनका झूठ पकड़ लिया गया था। लोगों के हँसने का कारण जब उन्हें समझाया गया, तब वे लज्जित हुए।
महर्षि दयानन्द का एक रसोइया था- जगन्नाथ । विरोधियों ने रिश्वत देकर जगन्नाथ को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वह दही में जहर मिलाकर महर्षि को खिला दे। जहर से मिश्रित दहीं सामने आया। महर्षि ने अनजाने ही पूरे विश्वास के साथ उसे खा लिया। जब शरीर में उसका असर मालूम होने लगा, तब जगन्नाथ को बुलाकर दस हजार रुपयों को थैली उसे थमाते हुए कहा :- "मैं तो अब शरीर छोड़ने ही वाला हूँ ? परन्तु तुम यह थैली लेकर तत्काल यहाँ से भाग जाओ; अन्यथा मेरे अनुयायी तुम्हें जान से मार डालेंगे!"
मरणासन्न अवस्था में भी अपने हत्यारे पर यह अनुकम्पा - यह सहानुभूति, सचमुच किसी पहुँचे हुए महात्मा में ही पाई जा सकती है, जनसाधारण में नहीं।
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महात्मा ईसामसीह का एक शिष्य था - जूडास। उसने भी चाँदी के चंद सिक्कों के प्रलोभन में फंसकर महात्मा को पकड़वा दिया था। महात्माजी को इस बात का पता लग गया था; फिर भी लास्ट सपर के समय उन्होंने रोटी का एक टुकड़ा बड़े प्यार से जूडास के मुंह में रख दिया था। अन्तिम समय में प्रकट हुआ महात्मा ईसाका वह वाक्य तो अमर हो गया है, जिसके द्वारा अपने सताने वालों के लिए ईश्वर से क्षमा की प्रार्थना की थी। कहा था :- "हे प्रभो ! तू इन सबको माफ कर देना; क्योंकि ये जानते नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।"
__ महात्मा गांधी ने गोली मारने वाले गोडसे के विषय में मरने से पहले कहा था :- "इसे कोई दण्ड मत देना!"
बम्बई की बात है। उपाश्रय में एक श्रावक सामायिक कर रहा था। सामायिक पूरी होने पर जब वह बाहर आया तो पता चला कि उसके जूते कोई उठा ले गया है। नंगे पाँव ही वह अपने घर की ओर चल पड़ा। लोगोंके पूछने पर उत्तर में कहा :- "जिस भाई को जरूरत होगी, वही ले गया होगा!"
दूसरे दिन अचौर्यव्रत के विषय में गुरुदेव का प्रवचन सुनकर चुराने वाले भाईने सबके सामने खड़े होकर अपना अपराध स्वीकार किया और प्रायश्चित्त माँगा। उस सेठ ने भी खड़े होकर अपने समाज के गरीब लोगों की उपेक्षा करने के पाप का गरुदेव से प्रायश्चित्त माँगा।
गरीबी का समाधान श्रम है, चोरी नहीं। मरने पर सारा धन यहीं छूट जाने वाला है। इसलिए आवश्यकता के अनुसार ही धन एकत्र करना चाहिये और अतिरिक्त एकत्र धन को परोपकार में लगा देना चाहिये।
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१२
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जरा जाव न पीलेइ
जाविदिया न हायन्ति
वाही जाव न वड्ढइ |
ताव धम्मं समायरे ॥
[ जब तक बुढापा पीडित नहीं करता, जब तक रोग बढ़ नहीं जाता, और जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं हो जातीं, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिये । ]
इसीसे मिलती-जुलती बात एक श्लोक में है :यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजम् यावज्जरा दूरतो
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा
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यावत्क्षयो नायुषः ।
कार्यः प्रयत्नो महान्
सन्दीप्ते भवने तु कूपखननम्
प्रत्युद्यमः कीदृश: ?
[ जब तक यह शरीर स्वस्थ है - नीरोग है, जब तक बुढापा दूर है, जब तक इन्द्रियों में शक्ति कायम है और जब तक आयु क्षीण नहीं हुई है, तभी तक विद्वान् व्यक्ति को आत्मकल्याण के लिए प्रयास कर लेना चाहिये; अन्यथा घर में आग लग जानेपर कूप खोदने का प्रयत्न कैसा ? ]
एक उर्दू शायर ने यौवन की नश्वरता के विषय में कहा था :
जवानी ख्वाब की - सी बात है दुनिया ए फानी में ।
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१३ मगर यह बात किसको याद
रहती है जवानी में? महाराज सिंहरथ वनक्रीडार्थ जा रहे थे। मार्ग में उन्हें पत्र - पुष्प - फल से समृद्ध आम का एक पेड़ दिखाई दिया। वे घोड़े पर सवार थे। घोड़ा जब उस पेड़ के नीचे से गुजर रहा था, तभी उन्होंने हाथ उठाकर उस पेड़ से एक मंजरी तोड़ ली और आगे बढ़ गये। उनके पीछे अंगरक्षकों का एक दल आ रहा था। महाराज का अनुसरण करते हुए प्रत्येक अंगरक्षक ने एक - एक मंजरी तोड़ ली। अंगरक्षकों के पीछे सेना की एक टुकड़ी आ रही थी। प्रत्येक सैनिकने उस पेड़ से एक - एक फल और दो-तीन पत्ते तोड़ लिये। देखते ही देखते पूरा पेड़ एक ढूंठ में परिवत्तित हो गया। जब महाराज ने लौटते समय उस शोभाहीन ठूठ को देखा तो सौन्दर्य को अनित्यता का उन्हें बोध हो गया। वे सोचने लगे :सवें क्षयान्ता निचयाः
पतनान्ता: समुच्छ्याः । संयोगा: विप्रयोगान्ताः
मरणान्तं हि जीवितम् ॥ [सभी संग्रहों का अन्त में क्षय होता है। सभी उन्नतियों का पतन होता है। सभी संयोगों का एक दिन वियोग होता है और जीवन का अन्त मृत्यु से होता है ।]
एक उर्दू का शायर लिखता है :'आगाह अपनी मौत से, कोई बशर नहीं।
सामान सौ बरस का है, पलकी खबर नहीं ।। यही बात संस्कृत के एक कविने लिखी है :भविष्यवाणी
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हरिष्यमाणो बहुधा परस्वम् करिष्यमाणः सुतसम्पदादि । धरिष्यमाणोऽरिशिरस्सु पावम्
न स्वं मरिष्यन्तमवैति कोऽपि । [नाना प्रकार से पराये धन का अपहरण करता हुआ, पुत्र, सम्पत्ति आदि की वृद्धि करता हुआ और शत्रुओं के मस्तक पर पाँव रखता हुआ कोई भी व्यक्ति यह नहीं जानता कि में स्वयं ही एक दिन मर जाऊंगा]
एक राजा था। उसने लाखों रुपये की लागत से एक सुन्दर महल का निर्माण कराया। उसने महल का उद्घाटन किसी ज्ञानी पुरुषसे कराने का निश्चय किया। उद्घाटनसमारोह की जोरदार तैयारियाँ की गई। जो भी उस भव्य महल को देखता, वह उसकी विशालता और मनोहरता पर मुग्ध हो जाता था। राजा को अपने इस नये महल पर गर्व और हर्ष का अनुभव हो- यह स्वाभाविक था। शहर के गण्यमान्य सुप्रतिष्ठित लोगों को आमन्त्रित किया गया था।
एक ज्ञानी पुरुष के कर-कमलों से उदघाटनविधि सम्पन्न होने के बाद क्रमश: सभी आमन्त्रित सज्जनों ने महल को भीतर बाहर से भलीभाँति देखा । सबने मन-ही-मन उसकी हार्दिक प्रशंसा की।
फिर स्वल्पाहार का कार्यक्रम था। जब राजा साहब द्वारा आयोजित सुमधुर स्वादिष्ट स्वल्पाहार ग्रहण किया जा रहा था, उसी समय ज्ञानी पुरुष से उन्होंने पूछा :- "आपको इस महल में कोई त्रुटि दिखाई दी हो तो कृपया निस्संकोच बता दीजियेगा।"
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१५
ज्ञानी पुरुष ने कहा :- "वैसे तो यह महल अत्यन्त मनोरम है; फिर भी दो दोष मुझे इसमें दिखाई दे रहे हैं।"
__उत्सुकता और आश्चर्य से राजा साहब ने पूछा :"बताइये, शीघ्र बताइये ; जिससे आवश्यक सुधार करवाया जा सके।"
ज्ञानी पुरुष :- “वे दोनों दोष ऐसे हैं राजन् ? जिन्हें आपके कारीगर तो क्या स्वयं भगवान् भी मिटा नहीं सकते !"
यह सुनकर राजा साहब का गर्व गलने लगा। वे चुपचाप जिज्ञासु दृष्टि से ज्ञानी पुरुष का मुंह ताकने लगे।
अन्त में ज्ञानी पुरुष ने कहा :- राजन ! इस महल का एक दोष तो यही है कि एक दिन यह गिर जायगा - पहले खंडहर बनेगा और फिर मिट्टी में मिल जायगा। दूसरा दोष यह है कि इसका निर्माता किसी दिन मर जायगा - इस भव्य भवन को विवशतापूर्वक छोड़कर श्मशान में चला जायगा।"
__यह सुनकर राजा साहब का सारा धमंड नष्ट हो गया। अनित्यता के बोध ने उन्हें जगा दिया ।
नलिनीवलगतसलिलं तरलम् तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तम्
लोकं शोकहतञ्च समस्तम् [कमलिनी के पत्ते पर रही हुई जल की तरल बूंद के समान जीवन अत्यन्त चंचल है। सारा संसार व्याधि, अभिमान और शोक से ग्रस्त है - ऐसा जानो।]
एक कहावत है - __ “जर जोरू जमीन । झगड़े के घर तीन ।।"
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इसमें कलह के जो तीन कारण बताये गये हैं, वे (कंचन, कामिनी और भूमि) तीनों नश्वर हैं। यह बात कलह करते समय लोग भल जाते हैं।
महाराज भोज के बचपन की एक घटना है। मुंज भोज के चाचा थे। मरने से पहले भोज को उसके पिताने मुंज की गोद में बिठा दिया था। इसका आशय यह था कि मेरे बाद राजसिंहासन पर तुम बैठोगे और भोज का पालन - पोषण करोगे, पढ़ा - लिखा कर सुयोग्य बनाओगे और फिर बालिग होते ही इसे सिंहासन सौंप दोगे और स्वयं नीचे उतर जाओगे।
मुंज इस आशय को समझता था। बड़े भाई के मरने पर उसे सिंहासन मिल गया था; परन्तु सत्ता हाथ में आने के बाद कोई उसे आसानी से हस्तान्तरित करना नहीं चाहता। भोज को पालने का अर्थ था- ऐसे साँप को पालना, जो उसके सत्तासुख को डस लेने वाला है। वह चतुर राजनीतिज्ञ था, ऐसी भूल भला वह कैसे कर सकता था ?
उससे अपने मन्त्री से विचार विमर्श करके बालक भोज का वध कराने की योजना बनाई, जिससे उसके मार्ग का काँटा ही सदा के लिए खत्म हो जाय।
योजनानुसार जंगल में घुमाने के बहाने रथ में बिठाकर कुछ सैनिक बालक भोज को एक घोर जंगल में ले गये । वहाँ एक बड़ के झाड़ के नीचे रथ रोक कर उन्होंने बालक भोज से यहाँ पहुँचने का प्रयोजन बता दिया। बालक भोजने अपने मांसल अंग में काँटा चुभोकर थोड़ा-सा रक्त निकाला। फिर उस रक्त से एक बड़ के पत्ते पर एक श्लोक लिख कर उन्हें
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१७
दे दिया और कहा कि मेरी ओरसे यह पत्ता महाराज मुंज के चरणों में रख दीजियेगा । यही मेरी अन्तिम इच्छा या प्रार्थना है । अब आप अपना काम कर सकते हैं अर्थात् महाराज मुज के आदेशानुसार मेरा वध कर सकते हैं ।
श्लोक पढ़कर सैनिकों को भी दया आ गई और ऐसे निर्दोष समझदार बालक का वध करना उन्हें उचित नहीं लगा । प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने बालक के कपड़े उतरवा लिये और उसे पहाड़ की एक गुफा में बिठा दिया ।
सैनिकों ने राजमहल में जाकर महाराज मुज के सामने बालक भोज के कपड़े रख दिये और वह श्लोक भी बालक की इच्छा के अनुसार चरणों में रख दिया । महाराज मुंज ने ध्यानपूर्वक उस वटपत्र पर रक्तलिखित श्लोक को अनेक बार पढ़ा । फलस्वरूप वे अपने किये विश्वासघात पर पछताने लगे ! रोने लगे ! ! विलाप करने लगे ! ! !
सैनिकों ने महाराज मुरंज के हार्दिक दुःख को समझकर कहा : "राजन् ! बालक भोज अभी जीवित है । हम अभी लाकर उसे आपके सामने प्रस्तुत कर देते हैं ।"
यह सुनकर मुंज की शोकाकुलता मिट गई। कुछ घंटों के बाद प्रत्यक्ष भोजकुमार उनके सामने लाया गया । उसे हर्षपूर्वक छाती से लगाकर मुंज ने सिंहासन पर बिराजमान कर दिया और फिर प्रायश्चित स्वरूप स्वयं संन्यासी बनकर जंगल में तप करने चल दिये ।
आपको उत्सुकता होगी कि वह श्लोक आखिर क्या थाउसमें ऐसी कौन सी मार्मिक बात कही गई थी, जिससे सहसा ज का हृदय परिवर्तन हो गया । सुनिये वह श्लोक :
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१८
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मान्धाता स महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गत; सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वासौ दशास्यान्तक: ? अन्ये चापि युधिष्ठरप्रभृतयो याता दिवं भूपते ! नैकेनापि समं गता वसुमती मुंज ! त्वया यास्यति ? [ सत्ययुग की शोभा बढ़ाने वाले राजा मान्धाता चले गये । जिसने समुद्र पर पुल बनाया था, वह रावणवध कर्ता राम कहाँ है ? और भी युधिष्ठिर आदि राजा स्वर्गवासी हो गये । हे राजा मुंज ! इन सबमें से किसी एक के साथ भी भूमि नहीं गई । यह केवल आपके साथ जायगी ! ]
कितना मार्मिक व्यंग्य था वह ! पढ़ते ही राजा मुंज का हृदय हिल गया था । इससे एक कविने इस नश्वरता की उपमा कटाक्ष से दी है :
1
सत्यं मनोरमा रामाः सत्यं किन्तु मत्तानापा भङ्गिलोलं [ यद्यपि स्त्रियाँ मनोहर होती हैं - यह सत्य है और संपत्तियाँ रमणीय होती हैं - यह भी सत्य है; परन्तु हमारा जीवन मदमाती स्त्री के कटाक्ष के समान चंचल है - क्षणभंगुर है ! ( यह भी सत्य है ) ]
चौर नामक एक कवि था । उसके विषय में किसीने लिखा था :
रम्या विभूतयः । हि जीवितम् ॥
यस्याश्चौर श्चिकुर निकुरः ॥
[ कविता रूपी कामिनी के लिये जो केशकलाप के समान शोभावर्द्धक था ! ]
वह एक बार राजा भोज के महल में चोरी करने गया । धन खोजते खोजते उसे पूरी रात बीतने पर भी सफलता नहीं
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१६ मिली । अन्त में थककर राजा भोज की शय्या के नीचे बैठ गया। प्रात:काल राजा भोज उठे और अपनी समृद्धि का विचार करते हुए एक श्लोक के तीन चरणों की रचना कर दी; परन्तु चौथा चरण जम नहीं पा रहा था। चौर कवि से रहा नहीं गया। उसने चौथे चरण की रचना कर दी। राजाने प्रसन्न होकर उसे बहुत-सा धन पुरस्कार में दिया। पूर्ति सहित वह श्लोक इस प्रकार है : चेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूल :
सद्बान्धवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः । वल्गन्ति दन्ति निवहास्तरलास्तुरङ्गाः
__ "सम्मीलने नयनयोन हि किञ्चिदस्ति ॥" [मनोहर स्त्रियाँ, अनुकूल कुटुम्बी, अच्छे बन्धु (मित्रादि), प्रेमपूर्ण वाणी बोलने वाले नौकर-चाकर, हथियारों के झुण्ड
और चंचल घोड़े सुशोभित हो रहे हैं; परन्तु आँखें बन्द होने (मर जाने) पर कुछ भी नहीं है]
सन्त तुलसीदास ने एक पद में लिखा है : "सहसबाहु दसवदन आदिनप बचे न कालबली ते । 'हम-हम' करि धनधाम सँवारे अन्त चले उठि रीते ॥
सारांश यह है कि वस्तुओं की क्षणिकता, जीवन की अनित्यता और मृत्यु की अनिवार्यता का विचार करके हमें सबसे मित्रतापूर्ण व्यवहार करना चाहिये ।
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२. अपरिग्रह
आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ अपने स्वामित्व में रखना परिग्रह है। इस परिग्रह से अभाव की स्थिति पैदा होती है, महँगाई बढ़ती है और दूसरों को आवश्यक वस्तुएँ नहीं मिल पाती ; इसलिये भी उसे पाप माना गया है। उस पाप से दूर रहना अपरिग्रह है । दान और त्याग का उपदेश परिग्रही को अपरिग्रही बनाने के ही लिए होता है। __ खुदा का अर्थ है - परिग्रह को छोड़कर खुद में आ अर्थात् अपनी आत्मा में रमण कर ।
वायुयान से की जाने वाली किसी शहर तक की साधारण यात्रा में भी जब दस-पन्द्रह किलोग्राम से अधिक लगेज नही ले जाया जा सकता, तब मोक्ष तक की यात्रा में कितनी भारहीनता की-कितने अपरिग्रहता की अपेक्षा होगी? इस की कल्पना की जा सकती है। ___ परन्तु परिग्रह का त्याग करने में बहुत विवेक की पावश्यकता होती है। वस्तुपाल तेजपाल ने साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ खर्च करके जिनमन्दिर बनवाया, जगडूशाह ने अकाल के समय सारा धन दे दिया और भामाशाह ने संकट के समय देश के गौरव की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी संपत्ति चढ़ा दी ! इस प्रकार इन सबने स्थायी यश प्राप्त किया।
इससे विपरीत अभी कुछ वर्षों पहले अरबदेश के एक बादशाह ने चालीस करोड़ डालर खर्च कर के एक विवाहोत्सव आयोजित किया तो क्या हुआ ? क्षणिक प्रशंसा मिल
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गई और फिर प्रशंसक ही उन्हें भूल गये, दूसरे लोगों की तो बात ही दूसरी है।
सच्ची प्रशंसा त्यागी को मिलती है। मीटर की पट्टी बजाज की दुकान पर आपने देखी होगी। वह क्या करती है ? जिस-जिस को जरूरत होती है, उसे कपड़े फाड़-फाड़ कर बाँटने में बजाज की सहायता करती है; परन्तु स्वयं दिगम्बर रहती है-एक तार भी (एक पतला-सा धागा भी) अपने शरीर पर धारण नहीं करती।
दाता और अदाता का अन्तर देखना हो तो ऊपर बादलों को देखिये :
किसिणिज्जन्ति लयन्ता, उदहिजलं जलहरा पयत्तेणं । धवलीहुन्ति हु देन्ता, देन्तलयन्तन्तरं पेच्छ ।
-वज्जालग्गम् [बादल जब समुद्र से जल लेते हैं, तब काले हो जाते हैं
और जब देते हैं अर्थात् जल बरसाते हैं, तब सफेद होते जाते हैं। देखो, देने और लेने वालों में कितना अन्तर होता है ! ]
पड़ौसी के मकान के पास रहा हुआ गड्ढा यदि नहीं भरेंगे तो आपके मकान के गिरने का डर बना रहेगा-यह आप जानते हैं; इसलिये गाँठ के पैसे खर्च कर के भी वह काम करते हैं। यही बात समाज के लिए समझे। यदि स्वधर्मी बन्धु के पेट का गड्ढा न भरा गया तो आपका अस्तित्त्व भी खतरे में पड़ जायगा।
दान अनुकम्पा से होता है; परन्तु सार्मिक के प्रति वात्सल्य होता है :
"एगत्त सव्वधम्मा एगत्त साहम्मियवच्छलम् ॥"
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२२ [एक ओर सारे धर्म रहें, एक ओर सार्मिक वात्सल्य ! (दोनों बराबर महत्त्व के हैं)।
"सार्मिक वात्सल्य" के बदले "स्वामि वत्सल" शब्द चल पड़ा है, जो गलत है। "साहम्मिय" का संस्कृत रूपान्तर "सार्धामक" है, जिसका अर्थ है-समान धर्म या एक धर्म के अनुयायी। उन्हें वात्सल्य (प्यार) से जो कुछ दिया जाता है-आर्थिक सहायता की जाती है, वह सब धर्म का एक अंग है।
आचार्य हेमचन्द्रसूरि के शरीर पर मोटा वस्त्र देखकर कुमारपाल भूपाल ने कहा : “आप मेरे गुरुदेव हैं; फिर भी अपने शरीर पर ऐसा मोटा वस्त्र धारण करते हैं तो लोग मुझे क्या कहेंगे? यह सोचकर मुझे लज्जा आती है। आप कृपया अच्छे महीन वस्त्र पहिने ।'
__ इस पर आचार्यजी ने कहा : “मैं मोटे वस्त्र पहिनता हूँ तो लज्जा मुझे आनी चाहिए, आपको नहीं। फिर लज्जा का सम्बन्ध वस्त्र से जोड़ना भी गलत है। लज्जा आनी चाहिए-पाप से; सो यदि मुझसे कोई पाप होगा तो लज्जा आयेगी। तीसरी बात यह है कि मैं आम आदमी के जीवनस्तर का प्रतिक हूँ। यदि समाज सम्पन्न होगा तो प्रत्येक सदस्य आपके समान बहुमूल्य महीन वस्त्र ही पहिनेगा। उस अवस्था में मुझे भी दान में भक्तों के द्वारा महीन वस्त्र ही मिलेंगे; इसलिये यदि आप मुझे महीन वस्त्र पहिने हुए देखना चाहते हैं तो आम आदमी का जीवनस्तर सुधारने का प्रयास करें।"
दान इस तरह होना चाहिये, जिससे लेने वाला न दीन हो और न आलसी तथा देने वाला भी अहंकार का शिकार न हो । सन्त तुलसीदास कहते हैं :
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दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान ॥
दया अथवा दान के बाद दयालु अथवा दाता के मन में अभिमान का प्रवेश हो गया तो वह पाप का कारण बन जायगा। किसी इंग्लिश विचारक ने कहा था :
We are to be made happy, let us never forget it, by what we are, not by what we have. [हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि जो कुछ हम हैं (जैसे निरभिमान, सदाचारी, दयालु, दाता आदि), उसी से हम सुखी हैं; जो कुछ (धन-संपत्ति) हम रखते हैं, उससे नहीं]
धन को दौलत भी कहते हैं । दौलत दुलत्ती झाड़ती है। पहली लात से सीना फूल जाता है-शरीर में धमण्ड छा जाता है और दूसरी लात से कमर झूक जाती है-विषयासक्ति के कारण बुढापा छा जाता है।
देने में जो पानः आता है, वह लेने में कहाँ ? किसी ने इसीलिए कहा है :
"दो, भले ही स्वर्ग देना पड़े ! मत लो, भले ही स्वर्ग मिल रहा हो !"
अब तो केवल भोजन देना ही सार्मिक वात्सल्य का रूप रह गया है; किन्तु मूलरूप में वह किसी भी स्वधर्मी बन्धु को हर तरह की सहायता के लिए प्रेरित करने वाला था। मांडवगढ़ में किसी समय यह परम्परा थी कि यदि कोई स्वधर्मी बन्धु बाहर से आकर वहाँ बसता था तो प्रत्येक घर से उसे एक स्वर्णमुद्रा और एक इंट दी जाती थी। इस प्रकार आते ही वह लखपति बन जाता था और फिर व्यापार
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करके दसरों के समकक्ष बन जाता था। यह था-सार्मिक वात्सल्य का वास्तविक रूप !
जब से इस रूप का लोप हुआ, तभी से जैन धर्मावलम्बियों की संख्या घटती जा रही है। विक्रम संवत् १२२६ में भारत के जैनों की संख्या आठ करोड़ थी। श्री हीरविजयसूरि के समय तीन करोड़ रह गई थी। आज केवल एक करोड़ है और यदि आपने ध्यान नहीं दिया तो भविष्य में यह संख्या और भी घट जायगी। सामिक वात्सल्य को मूलरूप में अपना कर इस निरन्तर घटती संख्या को रोका जा सकता है।
जिस प्रकार खेत में जितने दाने बोए जाते हैं, उतने ही नहीं, बल्कि सैकड़ों गुने अधिक दाने उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार जो गुप्तरूप से दान किया जाता है, उसका फल अनन्त गुना मिलता है। महात्मा ईसाने गुप्तदान की विधि बताते हुए कहा था कि यदि तेरा दाहिना हाथ दान करे तो बाएँ हाथ को उस दान का पता न चले-इस तरह दान कर।
परिग्रह वही करता है, जिस में भोगों की लालसा होती है । परिग्रह से भोग और भोगों से भवभ्रमण का संबंध है :
"भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ॥" [भोगी संसार में भटकता है और अभोगी मुक्त हो जाता है]
विरक्ति की भावना ही भोगी जीव को अभोगी बनाती है; इसीलिए वह सब के लिए सुखदायिनी है : सर्वपरिग्रहभोगत्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः?
- शंकराचार्य
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२५ [सब परिग्रह और भोगों का जिस में त्याग होता है, वह वैराग्य भला किसे सुख नहीं देता ?]
धन यदि परोपकार में न लगाया जाय तो वह धनवान को कुमार्गगामी बना देता है :
प्रत्थो मूलमणत्थाण ॥ [अर्थ (धन) सब अनर्थों का मूल है
ऐसा शास्त्रकारों ने कहा है। आद्य शंकराचार्य ने यही बात “चर्पट मंजरी' नामक अपने ग्रन्थ में इस प्रकार कही है :
अर्थमनर्थ भावय नित्यम् नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम् पुत्रादपि धनभाजो भीतिः
सर्वौषा विहिता नीतिः [अर्थ को सदा अनर्थ समझो। मैं सच कहता हूँ कि उस (धन) में लेशमात्र भी सुख नहीं है। धनवानों को अपने पुत्रों से भी डर लगा रहता है । यही बात सर्वत्र समझे।
कुछ लोग कहते हैं कि हम अपने पुत्र के लिए धनका संग्रह करते हैं। उनके लिए एक कवि ने कहा है :
पूत सपूत तो का धनसंचय ?
पूत कपूत तो का धनसंचय ? यदि पुत्र सुपुत्र है तो उसके लिए धनसंग्रह की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि अपनी योग्यता के बल पर वह खुद धन कमा लेगा-कमाता रहेगा और यदि पुत्र कुपुत्र है तो भी उसके लिए धन का संग्रह बिल्कुल व्यर्थ है; क्योंकि वह आपके संचित धन को भी इधर-उधर (दुर्व्यसनों में) उड़ा देगा।
साधु-सन्त सलाह देते हैं कि परिग्रह का त्याग करके अपनी आत्मा को भारहीन बनाईये; परन्तु आपको यह
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सलाह रुचिकर नहीं लगती। क्यों नहीं लगती ? एक दृष्टांत द्वारा यह बात स्पष्ट होगी।
चार मित्र थे। वे जबलपुर से फिल्म देखने नागपुर गये। फिल्म देखने के बाद भांग की गोलियाँ खा कर वे नागपुर स्टेशन पर आये। जबलपुर के लिए चारों ने टिकिट खरीदे और भ्रम से बम्बई जाने वाली गाड़ी में बैठ गये।
थोड़ी देर बाद टिकिटचेकर उनके डिब्बे में आया। टिकिट माँगा। एक मित्रने निकालकर दे दिया। टिकिटचेकरने कहा कि आपके पास जबलपुर का टिकिट है; परन्तु यह गाड़ी तो वम्बई जायगी। उतर कर दूसरी गाड़ी में बैठ जाइये। फिर दूसरे, तीसरे और अन्त में चौथे मित्र का टिकिट देखा । सब को यही शुभ सलाह दी कि आप यहाँ से उतर कर जबलपूर जाने वाली दूसरी गाड़ी के डिब्बे में बैठ जाइये; अन्यथा आप अपने गन्तव्य पर नहीं पहुँच सकेंगे।
चौथे मित्रने कहा : "जनाब! हम सही गाड़ी के सही डिब्बे में बैठे हैं। आप ही स्वयं गलत डिब्बे में आ गये हैं। यह प्रजातन्त्र प्रणाली का युग है। इस में बहुमत की बात मानी जाती है। हम चारों की समझ में यही गाड़ी जबलपुर जाने वाली है तो यह जबलपुर ही जायगी। बम्बई कैसे चली जायगी? हम चार हैं; आप अकेले हैं। बहुमत हमारा है; इसलिए हमारी बात सही है और आपकी गलत । गलत जगह आकर आप हमें क्यों परेशान कर रहे हैं ?" ।
टिकिटचेकर व्हाइट ड्रेस पहिनता है। हम जैसे साधु भी व्हाइट वस्त्र पहिनते हैं। टिकिटचेकर के समान हम भी आपको सलाह देते हैं कि आप संसार की ओर जाने वाली परिग्रह की गाड़ी में बैठ गये हैं; जब कि आपको मोक्ष की
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२७
ओर जाने वाली वैराग्य की गाड़ी में सवार होना था; परन्तु पाप उन मित्रों के समान अपने बहमत का हवाला देकर कहते हैं-"महाराज ! आप ही गलत जगह पर आ गये हैं।"
आपको विषयासक्ति का नशा है; जैसे उन मित्रों को भाँग का नशा था। वह नशा ही उपदेश न मानने के लिए आपको विवश करता है । यह सूख का-स्थायी सूख पाने का मार्ग नहीं है।
___ एक रूपक है। कोई दुःखी आदमी पाथेय की पोटली साथ लेकर सुख की खोज में घर से निकल पड़ा। इधरउधर भटकते हुए एक बार उसकी नजर सुख पर पड़ गई। उसे पकड़ने के लिए वह उसकी ओर भागा। सूखने देखा कि कोई मेरा पीछा कर रहा है, सो बचने के लिए वह भी भागा । भागकर वह एक सिंहासन पर बिराजमान हो गया।
आदमी वहाँ भी जा पहुँचा। तब भागकर वह एक सुन्दर बगीचे में फूलों के पौधों के समीप हरी-हरी दूब पर जाकर बैठ गया । प्रादमी वहाँ भी जा पहँचा। सूख वहाँ से छलाँग मार कर जंगल में चला गया। आदमीने जंगल में भी उसका पीछा किया; परन्तु वह आँखों से ओझल हो गया। आदमी थक कर विश्राम के लिए एक छायादार वक्ष के नीचे बैठ गया। दोंड़-धूप से उसे भूख भी सताने लग गई थी। उसने पाथेय की पोटली खोली और ज्यों ही खाने की शुरूआत की, त्यों ही उधर से एक भूखा भिखारी वहाँ आया : उसने हाथ जोड़कर उस आदमी से प्रार्थना की : "महोदय ! मैं चार दिन से भूखा हूँ। कृपया थोड़ा-सा सुख युझे भी दीजिये।"
यह सुनते ही आदमी एकदम चौंक पड़ा। वह सोचने लगा कि मैं जिस सुख की खोज में भटक रहा था, वह तो
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२८
मेरे पास ही मोजूद है; अन्यथा यह भिग्वारी मुझ से क्यों माँगता ? मेरे पास सुख है और इतना अधिक है कि मैं उसे दूसरों को दे भी सकता हूँ । उसने पाथेय का आधा भाग भिखारी की झोली में डाल दिया । पास ही बैठकर वह इतनी प्रसन्नता से उसे खाने लगा मानो उसे आठों सिद्धियाँ और नवों निधियाँ प्राप्त हो गई हों । भिखारी की प्रसन्नता को देखकर वह आदमी भी वैसी ही प्रसन्नता का अनुभव करने लगा । उसे यह तत्त्वबोध हो गया था कि दूसरों की - जरूरतमन्दों की सहायता करने में ही सुख के दर्शन होते हैं । परोपकार ही सबसे बड़ा सुख है ।
जापान की एक लोमहर्षक यथार्थ घटना है । राष्ट्ररक्षा के लिये एक बार वहाँ पच्चीस युवकों की आवश्यकता महसूस की गई । विज्ञप्ति निकलते ही तीन-चार हज़ार नवयुवकों की कतार लग गई । राष्ट्ररक्षा के पवित्र कार्य में सब युवक अपने आपको समर्पित करने के लिए उत्कण्ठित थे । इतनी अधिक संख्या में एकत्र लोगों को देखकर शासनाधिकारी बड़े असमंसज में पड़ गये कि इनमें से पच्चीस युवकों का चयन किस प्रकार किया जाय ।
आखिर सबके नामों की चिट्ठियाँ बना कर लाट्री से पच्चीस नाम निकाले गये। उनमें एक ऐसे युवक का नाम भी निकल आया, जिसके पिता का देहान्त हो गया था । घरमें केवल माता थी । युवक कुँवारा था और अपनी माता का इकलौता पुत्र था। अधिकारियों ने इकलौतेपन के कारण नियमानुसार उसका नाम निरस्त कर दिया ।
इससे युवक को बहुत निराशा हुई- बहुत दु:ख हुआ; क्योंकि देश के काम आने का शुभ अवसर हाथमें आते-आते
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छूट रहा था ! वह आँसू बहाता घर गया। मॉने निरस्तीकरण का कारण जानकर आत्महत्या करली । अब उस युवक पर परिवार की सेवा का कोई भार नहीं रहा था; इसलिए पुन: भागता हुआ वह अधिकारियों के पास पहुँचा। उसने देशसेवा के लिए समर्पित होने का अवसर माँगा, जो उसे दे दिया गया।
यह घटना सन् १९४४ में घटित हुई थी और उस समय के सभी प्रमुख समाचारपत्रों में प्रकाशित हुई थी। जिस प्रकार उस युवकने देशरक्षा के लिए उत्साह के साथ प्राणों का त्याग किया, वैसे ही आप अपने परिग्रह का परोपकारार्थ त्याग करने के लिए तैयार हो जाएँ-प्रतिवर्ष संवत्सरी के दिन सभी धनवान श्रावक-श्राविकाओं की कतार लग जाय और वे चातुर्मासार्थं बिराजमान गुरुदेव के सामने हाथ जोड़कर निवेदन करें : “हम अपने धनको परोपकार में लगाना चाहते हैं। धन विष है ! उसे हम दान के द्वारा अमृत में परिवर्तित करना चाहते हैं। कैसे करें ? उपाय सुझाइये।"
दान में भावना का महत्त्व है, सिक्कों की संख्या का नहीं। प्रसन्नतापूर्वक दिया गया एक रुपया भी खिन्नता के साथ दिये गये एक लाख रुपियों से अधिक उत्तम होता है।
कविन्द्र रवीन्द्रने एक सपने का वर्णन किया है-“मैं एक दरिद्र भिखारी बन गया। हाथ में भिक्षा का एक कटोरा लिये भूखा-प्यासा भटकता रहा। थकावट के मारे शरीर अत्यन्त शिथिल हो गया। भिक्षा में कुछ न मिलने के कारण मैं रोने लगा। उसी समय किसीने दया करके मेरे पात्र में कुछ चाँवल डाल दिये। उन्हें लेकर मैं देवी के मन्दिर में गया। देवी की कृपासे मैं स्वर्ग में पहुँच गया। वहाँ एक
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देवताने मुझसे चाँवल माँगे । मैंने बड़ी मुश्किल से दो दाने निकाल कर उसे दिये। फिर नींद खल गई तो देखा कि मेरे हाथ में वे ही दो चाँवल के दाने थे, जो मैंने दिये थे। दोनों दाने सोने के थे ! मैं सोचने लगा कि यदि सारे दाने दान कर देता तो कितना अच्छा होता ?"
जो दान आप करते हैं, वह कई गुना होकर परलोक में मिलता है; परन्तु परलोक में कई गुना मिले-इस आशा से नहीं, केवल परोपकार की भावना से ही हमें दान करना चाहिये। दान से इस लोक में जो कीर्ति प्राप्त होती है, उसका भी कोई कम महत्त्व नहीं है।
यह सुना जाता है कि महारथी कर्ण को जन्मसे ही अभेद्य कवच और कुण्डल प्राप्त हुए थे। कर्ण के पिता सूर्य माने जाते हैं और अर्जुन के पिता इन्द्र । अपराजेय महारथी कर्ण को तभी पराजित किया जा सकता था, जब उसके शरीर से कवच-कुण्डल उतरवा लिये जाते !
कर्ण दानवीर के रूप में प्रसिद्धि पा चुका था। किसी याचक को वह कभी निराश नहीं करता था। उसके इस सद्गुण का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करने का निर्णय इन्द्रने किया । वह कवच-कुण्डल माँग कर ले लेना चाहता था।
सूर्य को इन्द्र की यह बात मालूम हो गई। उसने कर्ण को सावधान कर दिया : "बेटे ! यदि कोई तुमसे कवचकुण्डल दान में मांगने आये तो दे मत देना।''
कर्णने उत्तर में कहा : "पिताजी ! मैं आपकी समस्त आज्ञाओं को शिरोधार्य करने के लिए तैयार हूँ; किन्तु . अपने दान-धर्म से विमुख नहीं हो सकता; क्योंकि दानधर्म ही परिग्रह के पाप का एकमात्र इलाज है।"
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सूर्य मौन हो गये। उधर अपनी योजना के अनुसार एक ब्राह्मण का वेष धारण करके इन्द्रने कवच-कुज्डल माँग लिये । कर्ण ने खुशी-खुशी उतार कर दे भी दिये । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि वह युद्ध में परास्त ही नहीं हुआ, बल्कि मारा भी गया ! किन्तु दानवीर के रूप में उसकी कीति आज भी जीवित है। मराठी की एक सूक्ति है :
"मरावे परी कीतिरूपे उरावें ॥" [मरे, किन्तु कीर्ति के रूप में जीवित रहें]
एक मधुमक्खी बैठी-बैठी अपने हाथ घिस रही थी। राजा भोज की नज़र उस पर पड़ी। उसने अपने सभी दरबारियों से उस (मक्खी) की इस (अगली टाँगें घिसने की) चेष्टा का कारण पूछा। किसीने कुछ बताया और किसीने कुछ; परन्तु किसी का भी उत्तर राजा भोज को सन्तोषकारक नहीं लगा।
___ अन्त में आशाभरी नज़र से राजा भोजने कविकुलकुमुद कलाधर महाकवि कालिदास की और देखा। वे तो उत्तर देने के लिए तैयार ही बैठे थे। महाराज का संकेत पाते ही बोल उठे : देयं भो ह्यधने धनं सुकृतिभि-नों सञ्चितं सर्वदा । श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपते-रद्यापि कीर्तिः स्थिता ॥ प्राश्चर्य मधु दान-भोग-रहितम् नष्टं चिरात्सञ्चितम् । निर्वेदादिति पाणिपादयुगलम् धर्षन्त्यही मक्षिकाः।। [अरे ! सज्जनों को चाहिये कि वे निर्धनों में धन वितरित किया करें; क्योंकि संचित घन सदा टिकता नहीं है। दानवीर श्रीकर्ण, राजा बलि और विक्रमादित्य का सुयश आज भी टिका हुआ है । आश्चर्य की बात है कि दान और भोग
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से रहित होने के कारण चिरकाल से संचित मधु ( शहद ) नष्ट हो गया। इससे उदास होकर ही ये मधुमक्खियाँ अपने दोनों हाथ और दोनों पाँव घिस रही हैं !]
यह सुनकर सन्तुष्ट राजा भोज ने महाकवि को प्रचुर धन पुरस्कार के रूप में दिया।
दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ क्ते, तस्य वृतीया गतिर्भवति ॥ [दान, भोग और नाश-ये तीन गतियाँ धन की होती हैं। जो व्यक्ति न देता है और न भोगता है, उसके धनका नाश हो जाता है]
खाये-खिलाये बिना जिसका धन नष्ट हो जाता है, उसे मधुमक्खियों के समान हाथ मल-मल कर पछताना पड़ता है।
___ दान या त्याग का उपदेश भी तभी प्रभावशाली होता है, जब उपदेशक स्वयं अपरिग्रही हो।
एक संन्यासी था। वह भिक्षार्थ बस्ती में जाता था। भिक्षा में उसे जो भी खाद्यसामग्री प्राप्त होती, उसे वह ले
आता था। खाने-पीने के बाद बची हुई एसी सामग्री, जो दूसरे दिन तक रखने पर खराब नहीं होती हो, बाँध कर एक खूटो पर टाँग देता था ।
उसकी झोंपड़ी में चूहे बहुत थे। उनसे खाद्यसामग्री को बचाना ही टाँगने का उद्देश्य था। फिर भी कभी-कभी कोई चंचल चूहा उछल-उछल कर खूटी तक पहुँच ही जाता था।
एक दिन की बात है। दर्शनार्थ आये लोगों की सभा में उस दिन संन्यासी उपदेश दे रहा था-लोभ पापका बाप
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है। लोभ से धनका संग्रह करके मनुष्य परिग्रही बनता है। परिग्रह के कारण नाना प्रकार के कष्ट सहता है। दुनिया में पूज्य वही बनता है, जो हर प्रकार के परिग्रह का त्याग कर देता है...आदि ।
श्रोताओं ने देखा कि उपदेशक की नज़र बार-बार खूटी की ओर दौड़ जाती थी। श्रोताओं में से एकने उठकर खूटी पर टॅगी पोटली उतारकर खोली तो उस में पाँच लड्डू बँधे हुए निकले। पूछने पर संन्यासीने बताया कि ये कलके लिए रख छोड़े है।
इतना सुनते ही उस अपरिग्रह का उपदेश देने वाले परिग्रही संन्यासी को अकेला छोड़ कर सब अपने-अपने घर चले गये।
कहते सो करते नही, मुह के बड़े लबार । काला मुंह हो जायगा, सांई के दरबार ॥
एक फकीर की ऐसी ही एक घटना सुनने में आई है । शाह सूजाने अपनी पुत्री. में वैराग्य की प्रबल भावना देखकर उसका विवाह एक फकीर से कर दिया।
नवविवाहिता दुलहनने फकीर की झोंपड़ी में पहुँचकर साफ-सफाई शुरू कर दी। उसी सिलसिले में उसे छींके पर पड़ी हुई एक रोटी दिखाई दी।
आश्चर्य प्रकट करती हुई वह पूछ बैठी : “पतिदेव ! यह क्या है ?"
फकीर बोला : “प्रिये ! कल सुबह नाश्ते के लिए यह रोटी रख ली गई है।"
दुलहन यह सुनकर खूब हँसी।
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हँसने का कारण पूछने पर पत्नी ने कहा : "मेरे पिताजी ने तो आपको परम विरक्त समझकर आपसे मेरा विवाह किया था; परन्तु मैं देख रही हूँ कि आपको भी कल की फिक्र है । फिक्र का जो फाका करे, वही फकीर कहलाता है । जिस में फिक्र हो, वह फकीर ही क्या ? मच्छी को पानी में कौन भोजन देता है ? अजगर किसकी चाकरी करता है ? पक्षी किसका काम करता है घास कब कपड़ों की चिन्ता करती है ? जब ये जानवर और घास तक कल की चिन्ता से मुक्त हैं, तब केवल मनुष्य ही क्यों कल की चिन्ता में घुले ? जब ये संग्रह नहीं करते तो मनुष्य ही क्यों परिग्रही बने ?"
ऐसा कह कर दुलहनने वह रोटी उठा कर कुत्ते के मुँह में रख दी । फकीर को अपनी भूल का भान हुआ । इससे उसका वैराग्य और भी पक्का हो गया । भविष्य में कल की चिन्ता न करने का उसने संकल्प कर लिया और फिर उसे निभाया भी ।
ऐसे ही एक अन्य अपरिग्रही फकीर का किस्सा भी सुनने योग्य है ।
उसके पास एक चादर थी। वह किसीने चुरा ली । फकीर ने थाने में चोरी की रिपोर्ट दर्ज करवाई । पुलीस ने चोर को पकड़ भी लिया । थानेदार ने चोर के सामने ही फकीर से पूछा : “आपकी कौन-कौन सी वस्तुएँ चोरी में चली गई थीं ?”
फकीरने कहा: “हजुर ! मेरी चादर, रजाई श्रौर धोती चली गई। इतना ही क्यों ? मेरा तौलिया, तकिया, आसन और छाता भी चला गया ! मैं तो पूरी तरह लुट गया साहब ! "
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यह सुनते ही चादर फेंकते हुए चोर ने कहा : "मैंने तो केवल चादर चुराई थी ! दूसरी वस्तुओं का मुझे पता नहीं।"
फकीर अपनी चादर उठा कर चलने लगा। थानेदार ने उसे रोक कर पूछा : “जब आपकी चादर ही गई थी तो ढेर सारी दूसरी वस्तुएँ क्यों गिनाई ? फकीर होकर झूठ क्यों बोले ?"
फकीर ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया : “हुजूर ! मैं झूठ बिल्कुल नहीं बोला । यह जो चादर मेरे हाथ में आप देख रहे हैं, इसी में मेरी गिनाई हुई सारी वस्तुएँ मौजूद हैं।"
थानेदार : “मौजूद हैं तो निकाल कर बताइये । हम भी देख लें।"
"देखिये, शौक से देखिये।" कह कर फकीर ने ओढ़ कर बताया कि यही मेरी चादर और रजाई है; पहिन कर बताया कि यही मेरी धोती है; शरीर पोंछ कर बताया कि यही तौलिया है; तह करके बताया कि तकिया भी है और आसन भी ! अन्त में उसे सिर पर रख कर कहा कि यही मेरा छाता है।
यह सब प्रत्यक्ष देख सुनकर सभी सुनने वाले चकित हो गये। ___इस कथा में जो सन्देश है, वह विशेष ध्यान देने योग्य है। कहा गया है कि कमसे कम वस्तुओं का अधिक से अधिक उपयोग करना ही कुशलता है-बुद्धिमत्ता है-चतुराई है। साधु, मुनि, फकीर और संन्यासी का लक्षण है-अपरिग्रह अर्थात् न्यूनतम आवश्यक वस्तुओं की ही स्वीकृति । अनावश्यक
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वस्तुएँ कितनी भी मूल्यवान् क्यों न हों, उनका संग्रह हमें नहीं करना चाहिये।
एक राजा था। उसे बहुमूल्य रत्नों के संग्रह का बहुत शौक था। एक दिन किसी विवेकी व्यक्ति को आदरसहित अपने राजमहल में आमन्त्रित करके उसने अपने समस्त रत्नों का संग्रह दिखा दिया।
उसका हृदय प्रशंसा का भूखा था। उसने सोचा था कि इतने अधिक हीरे, पन्ने, माणिक्य, मोती आदि देख कर वह सज्जन मेरी प्रशंसा करेगा।
परन्तु आशा से विपरीत उस विवेकी सज्जन ने रत्नराशि की ओर संकेत करते हुए पूछा : “राजन् ! आपको इस रत्नराशि से आमदनी क्या होती है ?"
राजा : "प्रामदनी कैसी ? इस रत्न राशि की सुरक्षा के लिए वेतन देकर रक्षक नियुक्त किये गये हैं; इस लिए खर्च और बढ़ गया है। आमदनी का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता !"
इस पर विवेकी सज्जन ने कहा : "मेरे पड़ोस में एक बुढिया रहती है। उसने एक बार दो पत्थर की शिलाएँ खरीदीं । फिर उनसे घट्टी (चक्की) बनवा ली। उस घट्टी की आमदनी से वह अपना पेट भरती है और अपने बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी निकाल लेती है; परन्तु दूसरी. ओर आप हैं, जिन्हों ने करोड़ों रुपयों के कुछ चमकीले पत्थर खरीद लिये हैं-ऐसे पत्थर, जिन से कोई आमदनी बिल्कुल नहीं होती; उल्टे खर्च ही करना पड़ता है ! ऐसी अवस्था में आप स्वयं ही सोच कर बताइये कि उस बुढिया से क्या प्रापकी समझदारी कम नहीं है ?''
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संवेदनशील राजा के कोमल हृदय पर इस बात का अमिट अद्भुत प्रभाव हुआ। उसने भंडारी से खज़ाने के समस्त रत्नों की नीलामी लगवा दी। उस से जो कुछ धन प्राप्त हुआ, उसका उपयोग उसने अनेक जनहितकारी कार्यों में किया। इस से सारी प्रजा उसकी प्रशंसा करने लगी। इस प्रकार सारे रत्नों को बेचकर बदले में उसने सुयशरूपी स्थायी रत्न प्राप्त कर लिया।
"सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः ॥" [सब वस्तुओं से अपनी आसक्ति हटाना ही अपरिग्रह हैं]
प्राप्त परिग्रह (धन) का उपयोग निरन्तर परोपकार में करते रह कर विवेकी लोग सदा सर्वत्र अपने मित्रों की संख्या में अधिक से अधिक वृद्धि करते रहते हैं।
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३. आत्मा
__ काँटा निकालने के लिए जिस प्रकार सुई ज़रूरी होती है, उसी प्रकार मन में फंसे जगत् को निकालने के लिए शास्त्र ज़रूरी हैं-ग्रन्थ ज़रूरी हैं, बाद में नहीं; क्योंकि जगत् के बाहर निकलते ही मन निर्मल हो जाता है-निर्ग्रन्थ हो जाता है।
हम जगत् को जानने का प्रयत्न करते हैं। पूरे जगत् को तो जान नहीं पाते; परन्तु जितना कुछ जान पाते हैं, उसीसे अपने को बड़ा भारी ज्ञानी समझने लगते हैं। उस से मन में अभिमान पैदा होता है, जो आत्माके पतनका कारण है।
जीवन-भर भौतिक विज्ञान की साधना करने वाले बड़ेबड़े विश्वविख्यात वैज्ञानिक भी जीवन के अन्त में कह गये हैं कि यह जगत् इतना जटिल है-इतना विशाल है-इतना अज्ञात है कि अब तक हमने जो कुछ जाना है, वह समुद्र में एक बूंद के बराबर ही है !
यह तो हुई मुट्ठीभर वैज्ञानिकों की बात; परन्तु जो अन्य अध्ययनशील व्यक्ति करोड़ों की संख्या में हैं, वे तो उनके लिखे हुए ग्रन्थ भी पूरे नहीं पढ़ पाते और उनका पूरा जीवन समाप्त हो जाता है। व्यर्थ ही वे ज्ञानी होने का भ्रम पालते रहते हैं। एक शायर का यह भ्रम टूटा तो उसने यह शेर लिखकर अपने हार्दिक उद्गार यों प्रकट किये
हम जानते थे इल्म से कुछ जानेंगे । जाना तो यह जाना कि न जाना कुछ भी।
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३६ सच पूछा जाय तो कोरी किताबों से ज्ञान होता ही नहीं है। किताबों में केवल शब्द होते हैं, अर्थ नहीं। अर्थ तो दुनिया में होता है। शब्दकोश में "अश्व” शब्द मिल जायगा। आगे "घोड़ा' भी लिखा मिलेगा, जो उसका अर्थ नहीं, केवल पर्यायवाची शब्द हैं। यदि आपको उसका अर्थ देखना हो तो अश्वशाला या घुड़साल में जाकर उसे प्रत्यक्ष देखना पड़ेगा; अन्यथा पापका अश्व सम्बन्धी ज्ञान अधूरा रहेगा।
शास्त्रों-ग्रन्थों-पुस्तकों या हम जैसे साधुओं के प्रवचनों का उपयोग इतना ही है कि वे हमें अपने लक्ष्य का भान कराते हैं-उसका विस्तार से वर्णन करते हैं-उसके प्रति हमारी रुचि जागत करते हैं; परन्तु लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कराते । वह प्राप्ति तो हम सबको व्यक्तिगत प्रयत्न के बाद ही होती है।
अरिहन्तो असमत्थो तारिउंलोप्राण भवसमुद्दम्मि ।
मग्गे देसणकुसलो तरन्ति जे मगि लग्गन्ति ।। [संसाररूपी समुद्र से लोगों को तारने (पार ले जाने) में अरिहन्त असमर्थ हैं। वे मार्गदर्शन में कुशल हैं। तैरते वे ही हैं, जो उस मार्ग पर चलते हैं]
दूसरों को जानने के लिए हम सदा समुत्सुक रहते हैं; परन्तु अपने आपको जानने का प्रयास नहीं करते। यदि हम अपने आपको जानने का प्रयास करें तो वास्तविक ज्ञानी बन सकते हैं-सर्वज्ञ बन सकते हैं। जैसा कि आचारांगसूत्र में स्वयं सर्वज्ञ प्रभुने फरमाया है :
"जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥
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४० [जो एक को जानता है, वह सब को जानता है और जो सब को जानता है, वह एक को जानता है ! ]
बहुत गम्भीर बात कही गई है यहाँ। हम बगीचे में माली को देखते हैं। किसी पूरे वृक्ष का सिंचन करने के लिए वह केवल एक जड़ का सिंचन करता है। जो एक जड़ का सिंचन करता है, वह वास्तव में पूरे वृक्ष का ही सिंचन करता है। पूरे वृक्ष का सिंचन करने के लिए यदि कोई उसके प्रत्येक फूल को और पत्ते को जल पिलाने का प्रयास करे तो आप उसे मूर्ख कहेंगे; परन्तु यही मूर्खता हम सब उस समय कर रहे होते हैं, जब हम अपने आपको जानने के लिए जगत की प्रत्येक वस्तु को अलग-अलग जानने का प्रयास करते हैं।
प्रात्मज्ञान हमारा अन्तिम लक्ष्य है । चिन्तन-मनन और अनुभव ही उसका एक मात्र साधन है । प्रात्मज्ञान का अर्थ है-जानने वाले को जानना, देखने वाले को देखना, सुनने वाले को सुनना और अनुभव करने वाले का अनुभव करना । यही सर्वज्ञता है-यही मुक्ति है-यही आनन्द है।
जैन सिद्धान्त के अनुसार आत्मा पर कर्मों का प्रावरण है। यदि वह आवरण हटा दिया जाय तो आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर न रह जाय ।
अप्पा सो परमप्पा ॥ [आत्मा ही परमात्मा है] एक शायर ने लिखा है :
शक्ले इन्साँ में खुदा था मुझे मालूम न था । चाँद बादल में छिपा था मुझे मालम न था ।।
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४१ जब राम ने हनूमान से पूछा कि आप कौन हैं, तब हनूमानजी ने कहा था :
देहरष्टया तु दासोऽहम् जीवरष्ट्या त्वदंशकः ।
प्रात्मदृष्टया त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मति: ॥ [देह (शरीर) की दृष्टि से मैं प्रापका दास हूँ (आप मेरे मालिक हैं), जीव की दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ (जैसे सूर्य की एक किरण या समुद्र को एक लहर होती है); परन्तु आत्मा की दृष्टि से देखा जाय तो आपमें और मुझमें कोई अन्तर ही नहीं है]
जीव ही संसार में अच्छे-बुरे कार्य करता है और वही उनके सुफल और कुफल भोगता है।
जैनदर्शन इस बात से सहमत नहीं है कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। जो लोग ऐसा मानते हैं, वे जगत् की अव्यवस्था के लिए ईश्वर को अपराधी मानने का पाप करते हैं। जगत् में आज जो अन्याय है-अत्याचार है - भ्रष्टाचार है - दुराचार है - व्यभिचार है, उसके लिए क्या ईश्वर जिम्मेदार है ? नहीं, कभी नहीं। यदि कहीं कोई चोरी करता है और हत्या कर देता है तो क्या वह चोरी और हत्या परमेश्वरने कराई ? यदि 'नहीं' तो फिर ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता ! इस भ्रान्त धारणा का भार क्यों ढोया जाय ?
जिस प्रकार देश, प्रदेश, जिले, तहसीलें, नगर, गाँव, मुहल्ले, घर और परिवार के सदस्य अनेक हैं; परन्तु विश्व एक ही है; उसी प्रकार आत्मा भी एक है। एक आत्मा के स्वरूप का परिचय होने पर समस्त प्रात्माओं के स्वरूप का अनायास परिचय हो जाता है।
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४२
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ज्ञान- दर्शन - चारित्र का पुंज है श्रात्मा के भीतर । आँखों
1
से हम दुनिया को भले ही देख लें आत्मा को नहीं देख
1
सकते |
उसे देखने के लिए मन में निर्मलता हो- यह ज़रूरी है । जो शुद्ध होता है, वही सिद्ध बन सकता है - सिद्धि प्राप्त कर सकता है ।
अन्न का उत्पादन ही खेती का लक्ष्य होता है । घासफूस तो वहाँ स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है । घास-फूस के लिए कोई खेती नहीं करता । इसी प्रकार प्रत्येक धार्मिक कार्य का लक्ष्य आत्मशुद्धि होता है । समृद्धि, सुयश आदि तो उसके आनुषङ्गिक फल है ।
लैंस के द्वारा सूर्य की किरणें एकत्र करने पर उनमें दाहकशक्ति पैदा हो जाती है । ठीक उसी प्रकार मन की किरणें ध्यान रूपी लैसके द्वारा एकत्र करने पर दुर्वासनाएं जलने लगती हैं और आत्मा शुद्ध होने लगती है ।
प्रतिक्रमण का क्या अर्थ है ? प्रति (उलटी दिशा में) क्रमण ( चलना ) आत्मशुद्धि के लिए होता है । अब तक हम संसार की दिशा में दौड़ते रहे; किन्तु अब हमें दिशा बदलनी है | परमात्मा की, मोक्ष की या आत्मा की दिशा में चलना है ।
प्रतिक्रमण हर रोज क्यों किया जाता है ? यह पूछने वाले यदि नाक पर मक्खी बार-बार बैठ जाय तो क्या वे उसे बार-बार नहीं उडाते ? मन पर विषय - कषाय की मक्खियाँ आकर बैठ जाती हैं । सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धार्मिक क्रियाओं से उन्हें बार-बार उड़ाने का प्रयास किया जाता है ।
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४३ एक बात सदा याद रखनी चाहिये कि आत्मविकास ऋमिक होता है, प्राकस्मिक नहीं । जो आदमी म्युनिसिपैलिटी का भी मेम्बर न हो, वह कहे कि मुझे प्राइममिनिस्टर बनना है तो मैं उससे कहूँगा कि पहले आप मेन्टल होस्पिटल हो आइये, आत्मा को परमात्मा बनाना भी कोई आसान काम नहीं है। उसके लिए तन्मयतापूर्वक चिरकाल तक निरन्तर साधना करनी पड़ेगी।
चारों ओर अँधेरा छाया हो तो क्या वह धबराहट या चिल्लाहट से मिट जायगा ? क्या उसे लाठी के प्रहारों से या तलवार के तेज बारों से भगाया जा सकेगा ? क्या पिस्तौल या बन्दूक तानकर उसे डराया धमकाया जा सकेगा? नहीं-नहीं; कभी नहीं । अन्धकार नष्ट होगा दीपक से । आत्मा के चारों ओर जो अज्ञान का और मिथ्यात्व का अन्धकार छाया हुआ है, वह तभी नष्ट होगा, जब विचाररूपी दीपक प्रज्वलित किया जाय । विचार ही विकार को नष्ट कर सकता है प्रात्मा को उज्जवल बना सकता है ।
प्रवचन के माध्यम से प्रभुने अपने विचार प्रकाशित किये थे, प्रवचन का उद्देश्य क्या था ? कहा है : सव्वजगजीव-रक्खण-दयट्टयाए भगवया पावयणं सुकहियम् ॥ [संसार के समस्त जीवों की रक्षारूप दया के लिए भगवान ने भली भाँति प्रवचन किया है]
सोनेकी जो सिल्ली जल में डूब जाती है, उसीका, ठोकपीटकर बनाया गया, वरक तैरता है। प्रवचन के प्रहार से आत्मा को भी वरक की तरह बना दिया जाता है, जिस से वह संसाररूपी सरोवर में तैरती रह सके ।
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प्रभु का प्रवचन उनके अन्तस्तल से प्रकट होता है, शास्त्रों से नहीं । सर्वज्ञता की प्राप्ति के बाद ही उन्हों ने प्रवचन प्रारंभ किये थे । हमारे प्रवचन शास्त्रों के आधार से होते हैं; क्योंकि हम छद्मस्थ हैं और सर्वज्ञता अभी हम से कोसों दूर है।
सर्वज्ञता ही प्रवचन की वास्तविक योग्यता है । योग्यता न होने पर भी हम जो प्रवचन करते हैं, वह हमारी अनधिकार चेष्टा नहीं हैं; क्योंकि हम प्रभुकी वाणी आपके कानों तक पहुंचाने का काम करते हैं। एक पोस्टमैन की तरह प्रभु का सन्देश आपके हृदय तक पहुंचाते हैं।
प्रभु ने बताया था कि आत्मज्ञान का अभाव ही समस्त दुःखों का सर्जक है। एटमबम बनाने वाले ने नागासाकी और हिरोशिमा का ध्वंस टेलीविज़न पर देख कर कहा था : "मैं निश्चय ही नरक में जाऊंगा!" यदि उस आविष्कारक में आत्मज्ञान का प्रकाश होता तो वह ऐसे संहार के अस्त्र का निर्माण कभी न करता। __आप मन्दिर में जाकर तीन बार एक शब्द बोलते हैं, "निसिही" वह तीन बार क्यों बोली जाती है ? यदि वह समझकर बोली जाय तो हमें आत्मा के निकट पहुँचा सकती है। कैसे ? देखिये-- ___ पहली "निसिही" मन्दिर के द्वार पर बोली जाती है। उसका आशय है-संसार की चिन्ताओं का सर्वथा निषेध । फिर मन्दिर की सफाई आदि से निवृत्त होने के लिए दूसरी "निसिही" बोली जाती है। उसके बाद द्रव्यपूजा (चन्दन, पुष्प, अर्चना) से निवृत्त होने के लिए तीसरी बार "निसिही' बोलकर भावपूजा (ध्यान) में प्रवेश किया जाता है। उस
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समय आत्मा और परमात्मा की बीच कोई व्यवधान नहीं रह जाता।
मन्दिर में जाकर आप अपने ललाटपर जो तिलक लगाते हैं, वह दूसरों के सामने यह प्रकट करता है कि प्राप एक धार्मिक पुरुष हैं । वह तिलक आपको दुराचारसे, दुर्व्यसन से और बेईमानी से रोकता है । यही उसका लाभ है ।
द्रव्यपूजा में भी विवेक ज़रूरी है । प्रतिमा पर चढ़ाने के लिए फूल ही तोड़ा जाता है । उसकी पत्ती तोड़ने का निषेध है, जिस से फूल के जीव को अभयदान मिल सके । चाँवल के साथ सुपारी, कमलगट्ट, इलायची, बादाम जैसी सूखी वस्तुएँ ही चढाई जाती हैं; पीपरमेंट की गोली या चाकलेट नहीं; अन्य था भंडार में चींटियाँ एकत्र हो जायेंगी
और चाँवल आदि के भार से या प्रहार से मर जायँगी । ऐसी भूलें प्राय: बच्चे कर बैठते हैं। विवेकी श्रावक-श्राविकाओं को चाहिये कि वे बच्चों को समझा दें; क्योंकि ।
"विवेगे धम्ममाहिए।" [विवेक में ही धर्म होता है-ऐसा कहा गया है]
विवेकी व्यक्ति उन वस्तुओं की उपेक्षा करता है, जिन का सम्बन्ध आत्मा से न हो । स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने अन्तिम समय में अपने प्रियतम शिष्य विवेकानन्द से कहा था: “मेरे पास आठ सिद्धियाँ हैं । मैं तुम्हें देना चाहता हूँ उनको ।"
इस पर बहत ही विनय के साथ स्वामी विवेकानन्द बोले : "गुरुदेव ! यदि उन सिद्धियों का सम्बन्ध आत्मा से न हो तो कृपया मुझे न दें । मैं उन्हें पचा न सकूगा ।"
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इस उनर से परमहंस बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने शिष्य को शाबाशी दी।
परमात्मा बुद्धि से परे होता है । वह अनुभव में आ सकता है, समझमें नहीं !
तू दिल में तो प्राता है, समझ में नहीं पाता । मालूम हुआ बस, तेरी पहिचान यही है । एक सन्त ने कहा था : "मौको कहाँ ढूँढे बन्दे ! मैं तो तेरे पास में ॥" गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं :
ईश्वरः सर्वभूतानाम् हृद्देशेऽर्जुन ! तिष्ठति ॥ [हे अर्जुन ! ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में निवास करता है]
प्राणियों के हृदय में आत्मा रहती है। इसलिए सिद्ध होता है कि वही परमात्मा है। केवल विषयकषाय के कचरे से तथा कर्मों की कालिमा से उसे मुक्त करने की आवश्यकता है।
एक मुसाफिर किसी होटल में ठहरना चाहता था । वह मनेजर से मिला । उत्तर मैं मैनेजर ने कहा : "इस समय देने लायक कोई कमरा खाली नहीं है; फिर भी आप पुराने ग्राहक हैं । यदि आप सँभलकर रहने का वचन दें तो मैं एक कमरा दे सकता हूँ, जो किसी को नहीं दिया जाता; इसलिए सदा खाली पड़ा रहता है.'
मुसाफिर : "वह कमरा सदा खाली क्यों रखा जाता है ? उसमें कोई भूतप्रेत का चक्कर तो नहीं है ?"
मैनेजर : "बिल्कुल नहीं। हम लोग तो ऐसी कल्पनाओं में विश्वास भी नहीं करते ।"
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४७
मुसाफिर : "तो फिर क्या बात है ?"
मैनेजर : "बात यह है कि उस कमरे के ठीक नीचे वाले कमरे में बड़े मुल्ला वर्षों से टिके हुए हैं। वे शोरगुल या आवाज़ पसंद नहीं करते । यदि कोई ऐसी ध्वनि होती है तो वे ठहरने वालों से झगड़ने पहुँच जाते हैं । उनके इस विचित्र स्वभाव के ही कारण हमें वह कमरा सदा खाली रखना पड़ता है । यदि आप बिना आवाज़ किये उसमें रह सकें-चल फिर सकें तो हमें कमरा देने में कोई आपत्ति न होगी।" ___मुसाफिर ने मैनेजर की यह शर्त मंजूर कर ली। मैनेजर ने कमरे का नम्बर बताकर उसके ताले की चाबी मुसाफिर को सौंप दी । चाबी और सामान लेकर मुसाफिर उस कमरे में पहुँचा । सामान (सूटकेस आदि) एक ओर रखने के बाद अपनी थकावट मिटाने के लिए वह पलंगपर लेट गया । वह बूट खोलना भूल गया था; इसलिए लेटने में कुछ असुविधा होने लगी । उससे बचने के लिए पलंगपर लेटे ही लेटे उसने एक बूट खोला और उसे किंवाडकी ओर फेंक दिया । फटाक से जूते की आवाज हुई ही थी कि सहसा मैनेजर को दिये गये वचन की उसे याद आ गई । फलतः दूसरा बूट उसने धीरे से खोलकर पहले वाले बूट के पास रख दिया और तब दबे पाँव आकर फिर से पलंग पर लेट गया ।
नीचे बडे मुल्ला बैठे ही थे । उन्हों ने एक बूट के गिरने की आवाज़ तो सुनी थी; परन्तु दूसरे बूट की आवाज़ न आने से वे विचार में डूब गये: "मुसाफिर ने दूसरा जूता क्यों नहीं खोला ? और यदि खोला था तो उसकी आवाज़
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४८ क्यों नहीं आई ? कहीं मुसाफिर एक पाँव से लँगड़ा तो नहीं है ?"
मुल्लाजी का दिमाग चकराने लगा। वे शंका समाधान के लिए सीधे ऊपर गये । धीरे से उन्हों ने किंवाड़ खटखटाया। खलने पर मुसाफिर से मुल्लाने पूछा : "माफ कीजिये, मैं आपको तकलीफ देने आया हूं । आपने यहाँ आते ही अपना एक बूट तो निकाल कर फेंक दिया था; परन्तु दूसरा बूट अब तक मेरे दिमाग में घुसा हुआ है । वह निकल नहीं पा रहा है। क्या आप उसे निकाल देंगे?"
मुसाफिर ने पहले जूते के पास ही रखे हुए दूसरे जूते की ओर संकेत कर के कहा कि दोनों जते यहाँ मौजूद हैं। पहला जता मैंने फेंका था और दूसरा जता मैंने धीरे से उसके समीप जाकर रख दिया था; क्योंकि मैनेजर को मैंने कमरे में किसी प्रकार की ध्वनि न करने का वचन दिया था । पहला जता फेंकते समय मैं अपना वचन भूल गया था । दसरे जते को निकालते समय मैंने उस बचन का बराबर पालन किया था ।
यह सब सुनकर बड़े मुल्ला के दिमाग में घुसा जूता बाहर निकल गया।
हमारी अवस्था भी बड़े मुल्ला जैसी हो गई है। जगत् के जते हमने दिमाग में भर रखे हैं। जब तक वे बाहर नहीं निकलेंगे, तब तक हमें आत्मा के दर्शन नहीं हो सकेंगे।
यस्मिन्वस्तुनि ममता मम तापस्तत्र तत्रैव ।
यत्रवाऽहमुदासे तत्र मुदासे स्वभावसन्तुष्टः ॥ [जिस वस्तु में ममता होती है, उसीसे मुझे दुःख होता है ।
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४६
जहाँ मैं उदासीन होता हूँ, वही स्वभाव से सन्तुष्ट होकर
मैं प्रसन्नतापूर्वक रहता हूँ ]
बम्बई की चौपाटी पर एक बालक-बालूका घरौंदा बना रहा था कि उसी समय उसके पिताजी ने उसे पुकारा 1 तत्काल वह उठा और घरौंदा तोड़ कर चल दिया । उसे कोई दुःख नहीं हुआ । ममता का अभाव हो तो किसी मी वस्तु के त्याग से या वियोग से मन दुःखी नहीं होता ।
ममता होती है अज्ञान से । अधूरा ज्ञान भी अज्ञान ही है, जो मनुष्य को हँसी का पात्र बनाता है ।
हेनरी चतुर्थ के समय की यह घटना है । भारत के ताजमहल को देखकर हेनरी बहुत प्रभावित हुआ था । उसने वैसा ही ताजमहल अपने देश में बनवाने की इच्छा पगट की । किसी ने सुझाव दिया कि हिन्दी जानने वाले किसी आदमी को भारत भेजकर ताजमहल बनाने वाले कारीगर को उसके साथ यहाँ बुलवा लिया जाय तो आपकी इच्छा पूरी हो सकती है । इस सुझाव को स्वीकार करके राजा ने टूटी-फूटी हिन्दी जानने वाले एक आदमी के नेतृत्व में कुल पाँच आदमियों का एक प्रतिनिधि मण्डल भारत भेज दिया ।
भारत आकर वह सीधा आगरे पहुँचा । आगरे में ताजमहल देखकर वह प्रतिनिधि मण्डल भी अत्यन्त प्रसन्न हुआ । जानकारी पाने के लिए वहाँ फाटक के पास खड़े एक ग्रामीण से जब पूछा गया कि यह ताजमहल किस कारीगर ने बनाया तो उत्तर मिला : "मालूम नहीं साहब !
फिर प्रतिनिधि मण्डल क्रमश: जयपुर, उदयपुर, देलवाडा, चित्तौडगढ़, ग्वालियर आदि अनेक स्थानों पर गया ।
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सब ख्थानों पर बनी हुई भव्य इमारतों के निर्माता कारीगर का नाम पूछने पर एक ही उत्तर मिला – “मालूम नहीं साहब !"
इस से प्रतिनिधि मण्डल ने यही निष्कर्ष निकाला कि यहाँ के सब से बड़े वास्तुकार का नाम है - "मालूम नहीं साहब ।"
[The greatest engineer of India is Malum Nahin sahab !) __अन्त में प्रतिनिधि मण्डल बड़ौदा पहुँचा । वहाँ लक्ष्मीविलास महल से महाराजा की सवारी निकल रही थी। किसी आदमी से प्रतिनिधि मण्डल के नेता ने पूछा : “Who is This ?" उत्तर मिला - मालम नहीं साहब !"
मण्डल ने सोचा कि बस मिल गया इंजीनियर । यहाँ कारीगर का सचमुच बहत सम्मान होता है । जिस व्यक्ति की सवारी ठाठ-बाट से निकल रही है, उसीका नाम होना चाहिये “मालूम नहीं साहब !"
। प्रतिनिधि मण्डल महाराजा के निकट गया और उसने बातचीत करने के लिए कुछ समय माँगा । महाराजा ने कहा : "No Time at all ! मिलना हो तो कल आइये।"
इस से प्रतिनिधि मण्डल ने समझ लिया कि यह कारीगर व्यस्त रहता है। इसीलिए इसे टाइम नहीं मिलता । खैर, कोई बात नहीं । आज नहीं तो कल सही । कल इस कारीगर को मुंह माँगा धन देकर अपने देश चलने के लिए मना लेंगे । उसने इंग्लैंड टेलिग्राम कर दिया :
'I have found out the greatest engineer "Malum Nahin Sahab." He has given me time to see him tomorrow."
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५१
दूसरे दिन प्रातः काल उठकर प्रतिनिधि मण्डल लक्ष्मीविलास महल की श्रोर चल पड़ा। उसी समय उसने देखा कि किसी बड़े व्यक्ति के मर जाने से उसकी अर्थी श्मशान में ले जाई जा रही है । शबयात्रा में हजारों आदमी थे । एक आदमी से उसने अंग्रेजी में पूछा : “Who is dead ?" जवाब मिला - " मालूम नहीं साहब ! "
यह सुनकर निराश प्रतिनिधि मंडल वहीं ठहर गया । पूछताछ करके सब लोग टेलिग्राफ ऑफिस में गये । वहाँ से अपने देश को टेलिग्राम कर दिया :
"Unluckily the greatest engineer of India expired to day. We are returning."
हिन्दी भाषा का अधूरा ज्ञान होने से प्रतिनिधि मण्डल अपने अभियान में असफल रहा। पूरे ज्ञान से ही सफलता मिलती है और सफलता से सुख प्राप्त होता है । सुख भीतर है । वहीं उसे खोजना उचित है, बाहर नहीं ।
एक बुढिया रात को बिजली के खम्मे के आसपास अपनी सुई खोज रही थी, जो उसके घर में ही कहीं खो गई थी । किसी ने उससे पूछा : "माताजी ! जब आपकी सुई घर में खोई है तो आप उसे घर में क्यों नहीं खोजतीं ? घर में खोई चीज़ सड़क पर ढूँढने से कैसे मिलेगी ?"
बुढिया : "भैया ! घर में वस्तु खोई है जरूर, लेकिन वहाँ प्रकाश नहीं है; इस लिए यहाँ प्रकाश देखकर अपनी सुई खोजने के लिए मुझे सड़क पर भ्राना पड़ा । "
बुढिया का तर्क सुनकर आप हँस सकते हैं; परन्तु हम स्वयं वही कार्य कर रहे हैं । सुख हृदय में खोया है, परन्तु उसे बाहर की वस्तुओं में ढूंढ रहे हैं; क्योंकि हमारे हृदय
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५२ में प्रज्ञानान्धकार व्याप्त है । उसी अन्धकार के कारण हमें हृदय के भीतर छिपा ईश्वर भी नहीं दिखाई देता ।
एक बार ईश्वरने देवों से कहा कि मुझे विश्राम करना है-किसी एकान्त स्थल में ले चलो, जहाँ कोई मुझ से कुछ माँगे नहीं। यहाँ तक कि कोई मुझे वहाँ खोज भी न सके ।
देवोंने कहा कि हम आपको चन्द्रलोक में ले चलते हैं । ईश्वरने कहा : "अभी अभी २१ जुलाई १९६६ को नील ए० आर्मस्ट्राँग, एड्विन ई० आलड्रिन और माइकेल कोलिन्स ये तीनों चन्द्रयात्रा में सफल होकर लौटे हैं। अब तो मनुष्य वहाँ आता जाता ही रहेगा; इसलिए और कोई दूसरा स्थान बताओ।"
देवों ने सुझाया कि हम आपको पाताल में ले चलते हैं । ईश्वर ने कहा : “वहाँ भी ड्रिलिंग करके आदमी आ जायगा ।"
देव : "तो फिर एवरेस्ट पर ?'
ईश्वर : "अरे ! वहाँ तो शेरप्पा तेनजिग पहले ही अपना झंडा गाड़ आये हैं।" तब नारदजी बोले : “क्या आप मानव के अन्तस्तल में रहना पसन्द करेंगे ?''
ईश्वर : हाँ, यह जगह अच्छी है, बिल्कुल सुरक्षित है। मैं आजसे उसी स्थान पर चला जाता हूँ।''
कहते हैं, ईश्वर तभी से मनुष्य के हृदय में निवास कर रहा है और मनुष्य उसे बाहर ही खोजता रहता है । मिलेगा कैसे ? विशुद्ध आत्मा ही वह ईश्वर है, जो हृदय में रहता है। उसका आनन्द जिसे एक बार भी अनुभव में आ जाता है, वह कभी इधर-उधर नहीं भटकता ।
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एक राजा ने पूरे गाँव को भोज दिया। अनेक स्वादिष्ट पकवान बनवाये गये। एक आदिवासी ने राजा से गुड की लापसी माँगी क्यों कि पकवान उसने पहले कभी खाये नहीं थे। वह गुड़की लापसी को ही सबसे बड़ी मिठाई मानता था। राजा ने एक रसगुल्ला उठा कर उस आदिवासी के मुह में रख दिया। स्वाद आते ही वह सारी थाली साफ कर गया।
आत्मानन्द का स्वाद जो चख लेता है, उसे विषयभोगों का स्वाद फीका लगने लगता है।
एक बात सदा याद रखने योग्य है कि शब्दों से कभी आत्मदर्शन नहीं हो सकता : "No words suffice the secret soul to show." [छिपी हुई आत्मा को दिखाने के लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं]
स्वामी विवेकानन्द के प्रवचन में आत्मा शब्द का उल्लेख देख कर किसी अमेरिकन श्रोताने उनसे : "क्या आप मुझे प्रात्मा के दर्शन करा सकते हैं ?" ऐसा पूछा।
स्वामीजी ने एक मुक्का उसकी पीठ पर जमा दिया। अमेरिकन जिज्ञासु ने चिल्लाकर कहा : "बड़ा दर्द हो रहा है।" ____स्वामीजी : “कहाँ है दर्द ? क्या आप मुझे अपना दर्द दिखा सकते हैं ?"
वह निरुत्तर खड़ा रहा । फिर स्वामीजी ने समझाया : "जिस प्रकार वेदना का अनुभव होता है, किन्तु वह दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार प्रात्मा का अनुभव भी होता है, परन्तु वह दिखाई नहीं देती, इसलिए किसी को दिखाई भी नहीं जा सकती।"
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हंस ने एक दिन उल्लसे कहा : "अाज सूर्य की धूप बहुत तीव्र लग रही है !”
उल्लू : “कहाँ है तुम्हारा सूर्य ?"
हंस : “वह आकाश में रहता है, किन्तु उसका प्रकाश धरती पर पड़ता है।"
उल्लू : "मैंने न तो सूर्य देखा है और न प्रकाश । न सूर्य से प्रकाश प्रमाणित हो सकता है और न प्रकाश से सूर्य । इसलिए दोनों प्रसिद्ध है।"
फिर वह उल्लू हंसको उल्लुओं की एक विशाल सभा में ले गया। वहाँ उसने कहा : "इन से मिलिये। ये हंस बाबू हैं। हम लोगों के बीच ये सूर्य को सिद्ध करने आये हैं। यदि आप अपने अनुभव से सूर्य को जानते हों तो इनको बात का ज़रूर अनुमोदन करें।"
यह सुनकर उल्लूओं ने एक स्वर से चिल्लाकर कहा : "सूर्य एक कल्पित नाम है । उसका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है। हममें से कभी किसी को सूर्य का अनुभव नहीं हुआ। हम हंस बाबू की बात का अनुमोदन नहीं कर सकते !"
दृष्टान्त का आशय यह है कि सूर्य के समान आत्मा का अस्तित्व है, परन्तु चार्वाक दर्शन के अनुयायी उसका अस्तित्व स्वीकार नहीं करते तो भले ही न करें, उससे आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता।
उद्धरेदात्मनात्मानम नात्मानमवसादयेत ।
प्रात्मैव ह्यात्मनो बन्धु-रात्मैव रिपुरात्मनः॥ [आत्मा से ही आत्मा का उद्धार करना चाहिये । प्रात्मा का पतन नहीं होने देना चाहिये । आत्मा ही आत्मा का बन्धु है और आत्मा ही प्रात्मा का शत्रु है। ]
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५५
लँगड़े के समान ।
शरीर अन्धे के समान है और जीव घर में आग लगने पर लँगडा अन्धे के कन्धे पर सवार होकर भाग सकता है और इस प्रकार अन्धे को भी बचा सकता है और अपने आपको भी । आत्मा शरीर में बैठ कर ही सारे कार्य करती है । बिना शरीर की सहायता के वह कुछ नहीं कर सकती । शरीर भी बिना आत्मा के मुर्दा कहलाता है और जला दिया जाता है ।
आत्मा यदि अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित करे तो शरीर अच्छे ही कार्य करेगा। अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित वही आत्मा करती है, जो निर्मल हो - निर्विकार हो- दयालु हो । आत्मदर्शन का फल तीर्थयात्रा से भी अधिक होता है ।
मन मथुरा दिल द्वारका काया काशी जान । दसों द्वारका देहरा तामें ज्योति पिछान ॥
इस आत्मज्योति को जो पहिचान लेता है, वह अपना जीवन परोपकार में लगा देता है और इस प्रकार सर्वत्र मित्रों की सृष्टि करता है ।
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४. अनुशासन
शासन के ग्रनुकूल व्यवहार को अनुशासन कहते हैं । आप बच्चे को जब स्कूल भेजते हैं और वह नहीं जाना चाहता तो क्या करते हैं ? चाकलेट देते हैं । चाकलेट देने पर भी यदि वह जाने से इन्कार कर दे तो आप उसके गालों पर दो तमाचे लगा कर भेजते हैं ।
जब तक विद्या में उसकी रुचि जागृत नहीं हो जाती, तब तक प्रलोभन और भय से उसे अनुशासित रखते हैं । रुचि जागृत होने पर तो वह स्वयं ही स्कूल जाने लगता है । उसे श्रात्मानुशासन कहते हैं ।
भय और प्रलोभन द्वारा थोपे हुए अनुशासन के स्थान पर स्वयंप्रेरणा से स्वीकृत अनुशासन ही अधिक श्रेष्ठ होता है । परन्तु आज तो एक फैशन चल पड़ी है कि अनुशासन यह तो बन्धन है । हमें स्वतन्त्रता चाहिए । परन्तु वह क्यों भूल जाता है कि : सवा नौ महीने तक गर्भ के बन्धन में रहने के बाद पाँच वर्ष तक माता के, पच्चीस वर्ष तक पिता के, साठ वर्ष तक पत्नी के और फिर उसके बाद पुत्र के अनुशासन में व्यक्ति रहता है ।
धर्म का भी अनुशासन होता है । कहते हैं : "जैनं जयति शासनम् ॥" [ जैनशासन जय पा रहा है ]
जैनशासन के अनुसार जिसका व्यवहार होता है, वह जैनधर्म से अनुशासित ही "जैन" कहला सकता है । आप जैन किसे समझते हैं ? जिसके माँ-बाप जैन होते हैं, उसे;
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परन्तु यह समझ गलत है। विष्ण के उपासक वैष्णव, शिव के उपासक शैव, ब्रह्मा के उपासक ब्राह्मण, बुद्ध के उपासक बौद्ध कहलाते हैं, उसी प्रकार जिनदेव के उपासक जैन कहलाते हैं।
आप कार में बैठ कर जा रहे हैं। सामने चौराहे पर खड़ा पुलिस वाला हाथ का इशारा करता है और आप चलती कार रोक देते हैं; परन्तु परमात्मा के प्रवचन की उपेक्षा करते हैं ! पुलिस वाले के इशारे से अनुशासित रहने वाले आप अपने आराध्य देव प्रभु महावीर के सन्देशों, उपदेशों और आदेशों की भी उपेक्षा कैसे कर जाते हैं ? आश्चर्य है ! और उपेक्षा करके भी आप अपने को "जैन' किस मुह से कहते हैं ? यह सोचने की बात है।
बैंगलोर के चातुर्मास में दो हजार युवकों ने मुझे अविस्मरणीय गुरुदक्षिणा दी। जीवनभर के लिए उन्होंने सिनेमा, होटल और धूम्रपान का त्याग कर दिया ! उनका जीवन अनुशासित हो गया। वे घन्य हो गये। ऐसी गुरुदक्षिणा पाकर मैं भी धन्य हो गया। चातुर्मास का श्रम सार्थक हो गया।
भूल तो सब से होती है; परन्तु समझदार व्यक्ति वही है, जो एक भूल को दुबारा न होने दे। जो ऐसी समझदारी का परिचय देता है, उसका जीवन अनुशासित है।
विवेकानन्द जब किसी कॉलेज में पढ़ा करते थे, तब एक युवती के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गये। घर पाकर अपनी इस भूल के लिए रोने लगे। जो आँखें उस युवति की ओर
आकर्षित करने में सहायक बनीं, उन्हें दण्ड देने के लिए मिर्ची पीस कर उन पर लगादी और ऊपर से पट्टी बांध दी।
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सारी वेदना चुपचाप सहते रहे। फिर संकल्प किया कि यदि दुबारा किसी युवति के शरीर पर आसक्त हुई तो उन्हें सुई से फोड़ कर सदा के लिए सूरदास बन जाऊंगा। इस संकल्प के प्रभाव से जीवनभर वे सुशील बने रहे। इसे कहते हैंआत्मानुशासन ।
__ पहले जब किसी पुत्र से कोई भूल हो जाती थी तो वह हाथ जोड़ कर कहता था-"पिताजी ! मुझे माफ कर दीजिये । दुबारा ऐसा नहीं करूंगा।" इससे विपरीत आजकल स्वयं पिताजी कहते हैं--"बेटे ! मुझे माफ कर देना। दुबारा ऐसा नहीं कहूँगा।' ऐसे सपूतों को पता ही नहीं है कि यह अनुशासन कौन-सी चिड़िया का नाम है। कितना परिवर्तन हो गया है आज समाज के प्रत्येक सदस्य में !
पठान जिस प्रकार व्याजसहित धन वसूल करता है, उसी प्रकार पेट भी भोजन वसूल करता है । भोजन के बाद भी कहता है-चरन लाओ, सुपारी लाओ, सौंफ लामो, इलायची लाओ, लौग लाओ, पान लायो। यदि आप उसकी आज्ञा का पालन करते रहे तो वह आपको नचा मारेगा।
रे जिह्वे ! कुरु मर्यादाम् भोजने वचने तथा ।
वचने प्राणसन्देहो भोजने चाप्यजीर्णता ॥ [हे जीभ ! भोजन और वचन में तू मर्यादा रख। यदि अमर्यादित वचन बोलेगी तो प्राण संकट में पड़ जायेंगे और यदि अमर्यादित भोजन करेगी तो अजीर्ण हो जायगा।]
जीभ से हम दो काम करते हैं-खाते हैं और बोलते हैं। दोनों में संयम की ज़रूरत है; अन्यथा अनर्थ होते देर नहीं लगेगी।
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आप उपवास करते हैं तो दिनभर भोजन याद आता रहता है; किन्तु जब भोजन करते हैं, तब उपवास याद नहीं आता। वह पाना चाहिए। भोजन के समय यदि उपवास की याद आने लगे तो भोजन में संयम अपने आप आ जायगा।
इसी प्रकार वाणी का संयम रखने के लिए आपको विचारपूर्वक बोलने का अभ्यास करना है :
बोली बोल अमोल है, बोल सके तो बोल । पहले भीतर तौल कर फिर बाहर को खोल ॥
रहीम साहब ने बिना विचारे बोलने के अनर्थ का वर्णन इन शब्दों में किया है :
'रहिमन' जिह्वा बावरी, कहिगै सरग-पतार ।
आपु तो कही भीतर रहो, जूती खात कपार ॥ मूर्ख और विद्वान में यही अन्तर है कि विद्वान सोचकर बोलता है किन्तु मुर्ख पहले बोल लेता है और बाद में सोचता रहता है कि वह क्या कह गया !
प्रभु महावीर कहते हैं"बहुयं मा य पालवे ॥" [बहुत नहीं बोलना चाहिए। जो कुछ कहना हो, संक्षेप में कहना चाहिए; क्योंकि-- मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमन्थू ॥ -स्थानांगसूत्र [वाचालता सत्य वचन का विघात करने वाली है] एक शेर हैकहे एक जब सुन ले इन्सान दो। कि हक़ ने जुबाँ एक दी कान दो ॥
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ईश्वर ने जीभ एक दी है और कान दो दिये हैं, जिस से वह दो बातें सुनकर एक बोले । हजार शब्द बोलने की अपेक्षा वज़नदार चार शब्द अधिक प्रभावक होते हैं। "सोख्ता" नामक शायर ने अपना परिचय देते हुए कहा है--
आदत है हमें बोलने की तौल तौल कर । है एक एक लब्ज बराबर वजन के साथ ॥
तोतों और कोयलों की बोली मीठी लगती है-भले ही वे थोड़ा बोलें। मेढक बहुत अधिक बोलता है, पर उसे कौन रुचिपूर्वक सुनता है ? कोई नहीं। इस विषय में एक राजस्थानी सोरठा श्रोतव्य है :
शुक पिकलगे सवाद, भल थोड़ो ही माखणो । वृथा करे बकवाद, भेक लवै ज्यू 'भेरिया !
अधिक बोलने की अपेक्षा उपयोगी बोलना अच्छा होता है। उपयोगी कार्य करना उससे भी अधिक अच्छा होता है। मेंढक बैलों से अधिक बोलते है, न तो वे हल चला सकते हैं और न उनकी खाल के जूता ही बनाये जा सकते हैं।
हिन्दी में एक कहावत है--- थोथा चना । बाजे धना ।।
जिसके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता, वही अधिक बोलता है
बहुवचन मल्पसारम् यः कथयति विप्रलापी सः ॥
[जिसके भाषण में शब्द अधिक हों और सार कम वह बकवादी है] तोता, कोयल, रोचक, “अच्छा, मेंढक, बोलते हैं, 'कवि के एक शिष्य का नाम ।
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इंग्लिश में भी एक कहावत है"Empthy wessels ncise much." [खाली बर्तन अधिक आवाज़ करते हैं]
हिन्दी को कहावत भी इस बातका इन शब्दों में समर्थन करती है
"अधजल गगरी छलकत जाय !"
जो घड़ा जलसे पूरा भरा हो, वह छलकता नहीं। उस प्रकार जो गंभीर ज्ञानी होता है, वह बकवाद नहीं करता!
बड़े मुल्ला ट्रेन में सवार थे। आसपास बैठे यात्रियों में से एकने कहा : “ये भारत की ट्रेनें तो बहुत धीरे चलती है। कोई मज़ा ही नहीं आता। कुछ वर्ष पहले मैं रूस गया था। एक ट्रेन में बैठा। वहां उसकी चाल इतनी तेज थी कि वाहर एक खंभे के बाद दूसरा खंभा इस तरह सामने प्राता था, मानो सब एक ही कतार में पास-पास खड़े हों।
दूसरा यात्री बोला : “यार ! मैं कुछ महीनों पहले इंग्लैंड गया था। वहाँ ट्रेनें इतनी तेज़ चलती है कि एक खेत के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा इस प्रकार सामने आता था कि यह पता ही नहीं लग पाता था कि पहला खेत कहाँ समाप्त हुआ और दूसरा कहाँ। मानो पूरा एक ही खेत हो!
बड़े मुल्ला भी ऐसे समय मौन रहने वालों में से नहीं थे। उन्होने दोनों यात्रियों की बातों पर हँसते हुए कहा "अरे दोस्तो! अभी कुछ दिन पहले किसी विशेष काम से मुझे अमेरिका जाना पड़ा। वहाँ ट्रेन में सवार होते ही एक कुली से मेरा झगड़ा हो गया। मैंने आव देखा न ताव । गुस्से में उठा कर एक तमाचा उसके गाल पर दे मारा;
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किन्तु ट्रेन की तेज़ रफ्तार के कारण वह दूसरे स्टेशन पर खड़े एक कुली के गाल पर लगा !"
इस प्रकार कुछ भी बोलना वाणी का असंयम हैदुरुपयोग है।
एक योगी था । भक्तों में से एकने पूछा : "बाबाजी! आपकी अवस्था क्या है ? बताने की कृपा करें।"
योगी : "अवस्था तो मुझे याद नहीं रही; परन्तु सीताजी के विवाहोत्सव में जो भात खाया था, वह अब तक अच्छी तरह से याद है।"
यह सुनते ही दूसरे एक चालाक भक्त ने कहा : "वाह बाबाजी ! खूब गप्प लगाई। अरे वहाँ परोसने वाला तो मैं ही था ! आपको मैंने वहाँ कहीं नहीं देखा।"
एक ऐसे ही गप्पी बेटे को उसके बापने घर से निकालते हुए कहा कि गप्प छोड़कर ही घर में पाँव रखना।
बेटा दिन-भर इधर-उधर घूमता रहा। शाम को घर आने पर बापके पूछने पर कहा : "पिताजी! आपकी आज्ञा पाकर मैं गप्पको जबर्दस्ती पकड़ कर जंगल में छोड़ने के लिए गया; परन्तु हाथसे छूटते ही वह हथिनी बनकर मुझे पकड़ने के लिए अपनी सूड उठा कर मेरे पीछे दौड़ी। मैं भी उससे बचने के लिए तेजी से भाग कर एक बड़ के झाड़ पर चढ़ गया। वह भी मेरे पीछे-पीछे झाड़ पर चढ़ी। मैं छलाँग लगाकर नीचे कूदा। वह भी कूदी; परन्तु आपके भाग्य से उसकी पूँछ किसी शाखा में अटक गई और मैं भागता हुआ आपके पास चला आया।"
बापने सिर ठोक कर कहा : "अरे तू गप्प छोड़ने गया था या पकड़ने ?"
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कहने का आशय यह है कि हमें वाणी में संयम रखना चाहिये । ऊटपटाँग असम्बद्ध बोलने की आदत से अपना और दूसरों का बहुमूल्य समय बरबाद होता है ।
मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता ॥
[ भला करने वाली परिमित वाणी ही बोलने की कला है ]
सन्त तुलसीदास को पत्नी की एक बातने सन्त बना दिया था । शादी के बाद एक दिनके लिए भी उन्होंने पत्नी को उसके पीहर नहीं जाने दिया । एक दिन उनका साला वहाँ आकर उसे चुपचाप अपने घर ले गया । उस समय तुलसी बाजार में सौदा खरीदने गये थे । घर आने पर पड़ोसियों से पता लगा कि पत्नी अपने भाई के साथ पीहर गई है तो वे तत्काल सौदा घर में पटक कर ससुराल की ओर भागे ।
उधर पत्नी पहुँची और एक-दो घंटे के बाद ये भी वहाँ जा पहुँचे । ससुराल में उनका स्वागत-सत्कार हुआ । रातको जब एकान्त में पत्नी रत्नावली से मिलन का अवसर आया तब वह बोली :
लाज न लागत आपको, दौरे प्रायहु साथ । धिक् धिक् ऐसे प्रेमको, कहा कहौं में नाथ ! अस्थि- चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति । तैसी जो रघुनाथ महँ, होति न तो भवभीति ॥
रत्नावली की इस बात को " तुलसीदास " शीर्षक महाकाव्य में महाकवि श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला" ने बहुत प्रभावक ढंग से यों प्रकट किया है :
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धिक् धाये तुम यों अनाहूत धो दिया श्रेष्ठ कुलधर्म धूत राम के नहीं काम के सूत कहलाये ! हो बिके जहाँ तुम बिना दाम वह नहीं और कुछ हाडचाम !
कैसी शिक्षा ? कैसे विराम पर प्राये ? इससे तुलसीदास की आँखें खुल गई। उनकी कामासक्ति रामासक्ति में परिवतित हो गई। संसार से विरक्त होकर वे संन्यासी बन गये। उन्होंने खूब अध्ययन किया और फिर अनेक काव्य ग्रन्थों की रचना की । उनका जीवन पवित्र और अनुशासित हो गया। ___चाणक्य ने अनेक सूत्रों में यह प्रतिपादित किया है कि इन्द्रियों को जीतना ही सुखका मूल कारण है।
सुखस्य मूलं धर्मः ॥ धर्मस्य मूलमर्थः ॥ अर्थस्य मूलं राज्यम् ॥
राज्यस्य मूलमिन्द्रियजयः ॥ धर्म से अर्थात परोपकार से ही सुख प्राप्त होता है। हम दूसरों की सहायता करते हैं तो दूसरे हमारी सहायता करते हैं । परस्पर सहायता पाकर सब सुखी हो जाते हैं ।
सहायता अर्थ (धन) से की जाती है; इसलिए धर्म का मूल अर्थ माना गया है। निर्धन व्यक्ति दूसरों का उपकार नहीं कर सकता।
घन बडे परिश्रम से प्राप्त होता है। प्रत्येक व्यक्ति उसे सुरक्षित रखना चाहता है, चोरों और डाकुओं की पहुँचसे उसे बचाना चाहता है। यह कार्य राज्य करता है। वह पूरी
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प्रजा की सम्पत्ति को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी उठाता है; इसलिए राज्य को अर्थ का मूल माना गया है।
जो राजा प्रसंयमी होता है-दुर्व्यसनों का शिकार होता है-इन्द्रियों का गुलाम होता है, वह पराजित होकर अपना राज्य खो बैठता है। शत्रु राजा उसे विषयों के प्रलोभन में फंसाकर आसानीसे परास्त कर देता है। ___ चाणक्य चन्द्रगुप्त का मन्त्री था। उसके सुनने में आया कि विपक्षी राजा नन्द ने चन्द्रगुप्त को मारने के लिए एक विषकन्या तैयार की है। विषकन्या बहुत परिश्रम से तैयार की जाती है। किसी अत्यन्त सुन्दर कन्या को बचपन में ही मुहमाँगा धन देकर उसके माँ-बाप से खरीद लिया जाता है। फिर नाना प्रकार के प्रयोगों से उसके शरीर को विषेला बनाया जाता है। वह इतना विषैला बन जाता है कि उसके अधरों का चम्बन करने वाला तत्काल बेहोश होकर परमधाम पहुँच जाता है । विषकन्या को नाचने और गाने की मनोमोहक कला सिखाई जाती है, और फिर उसे शत्रु राजा के पास भेज दिया जाता है। उस पर आसक्त होकर शत्रु राजा मौत का मेहमान बन जाता है।
अपने गुप्तचरों से महामन्त्री चाणक्य ने जब विषकन्या की बात सुनी तो राजा नन्द की इस चाल को काटने का उपाय वह सोचने लगा। उसे उपाय सूझ भी गया।
उसके अनुसार उसने दूर-दूर के राज्यों तक यह सन्देश पहुँचा दिया कि राजा चन्द्रगुप्त का जन्मदिन मनाने के लिए हमारे राज्य में बड़े उत्साह से तैयारियाँ हो रही हैं। उस दिन मंच पर "अभिज्ञान-शाकुन्तलम्" नाटक प्रदर्शित किया जायगा । उसमें "शकुन्तला" की भूमिका के लिए एक सुन्दर
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अभिनेत्री का चुनाव अमुक तिथि को किया जायगा । इस चुनाव में जिन युवतीयों को सम्मिलित होना हो, वे पूरी तैयारी के साथ यथासमय उपस्थित हो सकती हैं ।
राजा नन्द के पास भी यह सन्देश पहुँचा । " अन्धा क्या चाहे ? दो आँखें !" वह तो ऐसे मौके की तलाश में ही था । उसने विषकन्या को साक्षात्कार के लिए भेज दिया । अन्य युवतियों के साथ वह भी निश्चित तिथि को चाणक्य के सामने आकर खड़ी हो गई । चतुर चाणक्य ने सैंकड़ों युवतियों में सुन्दरतम देखकर विषकन्या को ही चुना । उसीका फँसाने के लिए यह सारा जाल रचा गया था । चावक्य को अपनी युक्ति की सफलता पर प्रसन्नता हुई, किन्तु यह रहस्य उसने अपने आप तक ही सीमित रखा था । चन्द्रगुप्त तक को कुछ नहीं मालूम था ।
अपनी योजना के अगले चरण के रूप में चाणक्य ने विषकन्या से कहा कि नाटक में भाग लेने से पहले आपको अपनी योग्यता की परीक्षा भी देनी होगी । मैंने तो केवल रूपलावण्य के आधार पर ही आपका चयन किया था । आपकी नृत्य और गीत कला का परीक्षण महाराज चन्द्रगुप्त करेंगे । उनके सामने आपको अपनी कलाएँ प्रदर्शित करनी होगी ।
विषकन्या तो यह चाहती ही थी कि किसी तरह यदि महाराज चन्द्रगुप्त से मिलाप हो जाय तो अपने जीवन का प्रयोजन ही पूरा हो जाय । नाटक में अभिनय करने की कोई उत्सुकता उसके भीतर नहीं थी, इसलिए उसने चाणक्य के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
चन्द्रगुप्त के सामने एकान्त कक्ष में विषकन्या के नृत्य का आयोजन किया गया । अपने नृत्य और सुमधुर गीत से वह चन्द्रगुप्त का मन आकर्षित करने लगी । गीत की समाप्ति
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के साथ ही मुग्ध होकर महाराज उठे और आलिंगन-चुम्बन के लिए उसकी और लपके। ठीक उसी समय चाणक्य के इशारे पर दीपक बुझाकर एक सैनिक ने तलवार का सधा हुआ वार किया और विषकन्या का सिर धड़ से अलग होकर धड़ामसे गिर पड़ा! साथ ही चाणक्य की आवाज़ भी सुनाई दी:
"वृषल ! राज्यस्य मूलमिलिन्द्रियजयः ॥ [हे चन्द्रगुप्त ! राज्य का मूल है-इन्द्रियो पर विजय पाना]
फिर उसे (चन्द्रगुप्त को) विषकन्या का परिचय दिया और उसे फंसा कर मारने की कई दिनों से चल रही योजना समझाई । वह सारी बातें सुनकर चाणक्य की बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करने लगा।
इस घटना से इन्द्रियों के अनुशासन की शिक्षा मिलती है। जो लोग अपने से अधिक बुद्धिमान हैं, विद्वान् हैं, अनुभवी हैं, उनकी आज्ञा का पालन हमें करना चाहिये।
आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया ॥ [गुरुओं की आज्ञा का पालन बिना विचार किया जाना चाहिये]
सतामलङध्या गुर्वाज्ञा [गुरुषों की आज्ञा का सज्जन कभी उल्लंघन नहीं करते
इसीसे मिलती-जुलती बात मैथिलीशरणजी गुप्त ने कही है :
बड़ों की बात है अविचारणीया । मुकुटमणि तुल्य शिरसा धारणीया ॥ एक जाट की पत्नी आज्ञा का पालन नहीं करती थी। पतिदेव जो कुछ कहते, उससे ठीक उलटा कार्य करती थी।
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उसकी इस आदत से जाट को दूसरों के सामने हमेशा शमिन्दा होना पड़ता था। किसी मेहमान के आने पर जब जाट कहता कि एकाध अच्छी-सी मिठाई बना देना तो वह साधारण भोजन ही बनाती-कहा जाता कि रोटियाँ ज़रा ठीक चुपड़ना तो वह रूखी रोटियाँ ही परोस देती और यदि कह दिया जाता कि आज तबीयत कुछ नरम है, इसलिए हल्का भोजन बनाना तो वह मालताल एवं पकौड़े या दहीबड़े बना डालती !
वह पढ़ी-लिखी तो थी नहीं। बार-बार समझाने का भी उस पर कोई असर नहीं होता था। अन्त में रोज़-रोज़ की खटपट से तंग आकर हमेशा के लिए अपने रास्ते का काँटा साफ करने की उसने एक योजना बनाई। उसके अनुसार डाकिये को एक चिट्ठी स्वयं लिखकर लिफाफे में बन्द करके दे दी और कहा कि इसे घर पर दे जाना। बरसात के दिन थे। पति-पत्नी दोनों चूल्हे के पास बैठकर भट्ट सेक-सेक कर खा रहे थे कि इतने में डाकियेने आवाज़ लगाकर लिफाफा दिया।
जाटने लिफाफा खोलकर पढ़ा और कहा : "चिठ्ठी तुम्हारे पीहर से आई है, तुम्हारी माँ बीमार है। मिलने को बुलाया है; किन्तु मौसम खराब है-रास्ते में कीचड़ है-बीच में नदीनाले पड़ते हैं; इसलिए तुम अभी जानेका बिचार मत करना।"
पत्नी : “वाह ! माँ बिमार है और मैं न जाऊं? तुम्हारी माँ बीमार होती तो क्या तुम नहीं जाते ? पता नहीं, उसकी हालत कैसी हो रही होगी! मैं तो अवश्य जाऊंगी।" ___ जाट : “तुम जाना चाहती हो तो जाओ; लेकिन सादी पोशाक में मत जाना । नये कपड़े और सोने-चांदी के बनवाये
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हुए गहने ज़रूर पहनकर जाना; अन्यथा घर की पोजीशन डूब जायगी।"
जाटनी : "मैं कोई किसी की शादी में तो जा नहीं रही हूँ कि नये कपड़े पहिनू और गहने भी पहिनू । बीमारी में माँकी सेवा करने जाना है मुझे और म्हें अपनी पोजीशन की चिन्ता लगी है। मैं तो केवल सादे कपड़े पहिनकर जाऊँगी और गहना तो एक भी नहीं ले जाऊँगी।"
___जाट : जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो; परन्तु जल्दी मत करो।"
जाटनी : "मेरी माँ बीमार है और फिर भी मैं जल्दी न करू ऐसा कैसे हो सकता है ? मैं तो जैसे कपड़े पहिन रखे हैं, उन्हीं में और इसी समय जा रही हूँ ।” . ऐसा कहकर जाटनी जैसी खड़ी थी, वैसी ही घर से बाहर निकल गई । जाट भी उसे पहँचाने के लिए उसके पीछे-पीछे गया । रास्ते में एक नदी पड़ी। उसमें बाढ़ आ रही थी । जाटने कहा : "तुम्हें तैरना नहीं आता; इसलिए जब तक नदी की बाढ़ उतर न जाय तब तक यहीं ठहरो।"
जाटनी : “मैं तो एक पलभर भी यहाँ नहीं ठहर सकती। ठहरना ही होता तो मैं घर पर न ठहर जाती ? तुम कहते हो कि मुझे तैरना नहीं आता; किन्तु बैल को तो तैरना प्राता है । मैं बैलको बाढ में उतारकर उसकी पूछ पकड़ लगी और बैलके साथ ही साथ उस पार चली जाऊँगी ?'
जाट : "हाँ, समझ गया । मैं तुम्हारे लिए कहीं से एक बैल पकड़कर ले आता हूँ; परन्तु मैं भी तुम्हारे साथ
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चलूँगा । रास्ते में कहीं कुछ हो गया तो मैं सँभाल लूँगा
तुम्हें ।”
जाटनी : "नहीं, मैं अकेली जाऊँगी । मुझे रास्ते में कुछ नहीं होगा । मेरे लिए ढूँढकर जल्दी से एक बैल ला दो ।"
जाट बैल ले आया । जाटनी ने उसे पानी में उतार कर उसकी पूँछ पकड़ ली। बैलके साथ जब वह बीच धार में पहुँची, तभी इधर से जाटने चिल्लाकर कहा "बाढ़ बहुत तेज़ है । बैलकी पूँछ कसकर पकड़ना । ऐसा न हो कि हाथ छूट जाय और तुम बह जाओ ।"
जाटनी ने यह सुनते ही चिल्लाकर कहा : "आज तक कभी तुम्हारा कहना माना है, जो अब मानूँगी ?"
फिर पूँछ छोड़कर बाढ़ में बह गई और बहती हुई समुद्र में पहुँचकर डूब गई । बड़ों के अनुशासन में न रहने वालोंकी ऐसी ही दुर्दशा होती है ।
कभी-कभी श्रालस्य के कारण भी आज्ञा का पालन नहीं किया जाता और "चोरी की चोरी और मुँहजोरी !" इस कहावत को चरितार्थ करते हुए अपने पक्ष में तर्क भी प्रस्तुत किया जाता है, जैसा एक शिष्य ने किया था ।
घटना इस तरह हुई कि एक गुरु की पीठमें दर्द हो रहा था । उसने शिष्य से कहा कि मैं उल्टा लेट जाता हूँ और ส मेरी पीठ को पाँव से दबा दे ।
शिष्य आलसी था; परन्तु उसने तर्फ प्रस्तुत किया : "गुरुदेव ! मैं आपकी पीठको पाँव कैसे लगा सकता हूँ ? आप वन्दनीय हैं । पाँवसे पीठको छूने में आप की आशातना होगी और मुझे पाप लगेगा ।"
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७१ गुरु ने कहा : “पीठ को पाँवसे छूने में तुझे पाप लगता है और जीभपर पाँव रखने में क्या कुछ नहीं लगता ?"
शिष्य ने पूछा : “जीभपर पाँव रखनेका क्या अर्थ है ?"
गुरु ने कहा : “जीभपर पाँव रखने का अर्थ है आज्ञा का उल्लंघन करना । वही तुम कर रहे हो ।”
यह सुनते ही लज्जित होकर शिष्य उठा और उसने गुरुकी पीठ पर पाँव रख दिया ।
गुरुका आदेश उल्टा-सुल्टा हो तो भी अन्त में उससे अपना लाभ ही होता है यह बात एक दृष्टान्त से स्पष्ट करना चाहूँगा।
फकीर अहमद बल्खी से उनके एक भक्तने कहा : “मैं बहुत निर्धन हूँ। कृपया धन पाने का कोई उपाय बताइये।"
बल्खी : "धन पाने के जितने भी उपाय तुम जानते हो, उन्हें अलग-अलग कागज के टुकड़ोंपर लिखकर उन सारे टुकड़ोंको एक लोटे में डाल दो और फिर मेरे पास वह लोटा ले आओ।"
वैसा ही किया गया, बल्खीने उस लोटे में हाथ डाल कर एक टुकड़ा निकाला। टुकड़े पर लिखा था "लूट मार" बस, फकीर ने उसे आदेश दे दिया की यही करो ।
भक्तको इस विचित्र आदेश से आश्चर्य तो हुआ; परन्तु आज्ञापालन कर्तव्य है ऐसा मानकर वह एक डाकूदल में शामिल हो गया । दलके नियमानुसार यहाँ भी उसे दल के सरदारकी आज्ञाका पालन करने की प्रतिज्ञा लेनी पड़ी। धन्धा शुरू हो गया। उसी सिलसिले में एक दिन कुछ व्यापारियोंको पकड़ा गया । बन्दूक के डरसे सबने अपना धन
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सरदारके चरणों में रख दिया; किन्तु जो सबसे अधिक धनवान था, उसने कुछ नहीं दिया ।
इससे क्रुद्ध होकर डाकुदल के सरदारने उस नये रंगरूट को उसकी गर्दन काटनेका आदेश दिया। नये डाकूने धनवान के बदले सरदारका ही सिर काट डाला । उसने सोचा कि निरपराध सेठकी गर्दन उड़ाने की अपेक्षा महान् हत्यारे की हत्या करना अधिक अच्छा । जब आज्ञाका पालन ही करना है तो इस सरदारकी अपेक्षा ईश्वरकी या अपनी आत्माकी आज्ञाका पालन ही क्यों न किया जाय ?
उधर सरदारके धराशायी होते ही अन्य डाकू वहाँ से तत्काल नौ-दो-ग्यारह हो गये । धनवान् सेठने अपने प्राणोंके
और धनके रक्षक इस नये डाकूको बहुत-सा धन भेंट किया। धन लेकर वह महात्मा बल्खी के पास गया । बीती घटना का विवरण सुनाया । फिर अपने घर लौट कर भेंट में प्राप्त धन से व्यापार करने लगा। प्राज्ञापालनसे वह धनवान् बन गया।
जैन साध्वियोंका एक समुदाय ग्रामानुग्राम विहार करते हुए किसी गाँवके एक धर्मस्थान में ठहरा या । रातको जब ठंडी हवाके झोंके आने लगे तब गुरुजीने अपनी नई शिष्या साध्वी को फाटक खला न रखनेका आदेश दिया । शिष्या ने फाटक बन्द किया; किन्तु तेज हवाके झोंके से दुबारा खल गया। कारण यह था कि फाटक के भीतर साँकल तो थी, किन्तु उसे अटकाने का नकुचा नहीं था; फिर भी गुरुजी की आज्ञाका पालन तो उसे करना ही था। इसके लिए वह विनीता साध्वी फाटक बन्द करके साँकल के पास स्वयं ही रात-भर खड़ी रही । गुरुजी को तथा अन्य सब
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७३ शिष्याओंको पाराम से नींद आ गई; परन्तु वह साध्वी खड़ी-खड़ी शुक्ल ध्यानमें आरूढ हो गई। फलस्वरूप सूर्योदय होने तक उसकी आत्मा निर्मल हो गई। उसे अन्तिम ज्ञान प्राप्त हो गया। केवलज्ञान पा लेनेके कारण उसके लिए मोक्षका रिजर्वेशन हो गया । विनय, अनुशासन, सेवा और चिन्तन के बल पर; वह शिष्या नई थी, फिर भी सबसे आगे बढ़ गई । अपनी गुरुणीजी के लिए भी वन्दनीय बन गई । कहा है :
जं मे बुद्धाणुसासन्ति सीएण करसेण वा ।
मम लाभुत्ति पेहाए पयओ तं पडिस्सुणे ॥ [ठंडी या कठोर वाणी में ज्ञानी (गुरु) जो अनुशासन करते हैं, उससे मेरा लाभ है ऐसा सोचकर सावधानीपूर्वक उसका प्पालन करना चाहिये
मित्र उसीके बनते हैं, जो विनीत हो-अनुशासित हो ।
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५. उद्यम
प्रयत्न, पुरुषार्थ, परिश्रम आदिसे उसी का बोध होता है, जिसे उद्यम कहते हैं । जिसे भाग्य कहते हैं, वह भी प्रयत्न का ही फल है :
यत्न करो भरपूर तुम भाग्य मिलेगा पाप । भाग्य यत्न से ही वना यत्न भाग्य का बाप ॥
-सत्येश्वर गीता विद्या भी अपने आप किसीको प्राप्त नहीं होती उसके लिए अभ्यास करना पड़ता है । कहा है :
विद्या धन उद्यम बिना कहौ जू पावै कौन ? बिना डुलाये ना मिले ज्यों पंखा की पौन ॥
पंखे की हवा भी तभी प्राप्त होती है, जब उसे हिलाया जाय अर्थात् उद्यम किया जाय । ज़मीन में जल है; परन्तु कुआ खोदे बिना वह प्राप्त नहीं हो सकता । किसीको प्यास लगी हो । वह कुए के पास पहुँच जाय । कुए में भरपूर जल भी हो; परन्तु प्यास मिटाने के लिए जरूरी होगा कि
ए में रस्सीके सहारे बाल्टी डाल कर जल खींचा जाय और लोटेमें भरकर उसे पिया जाय ।
"दैव दैव आलसी पुकारा ॥" भाग्य के भरोसे रहनेवाले आलसी होते हैं । न देवमिति संचिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः ।
अनुद्यमेन कस्तैलम् तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥ [भाग्य के भरोसे रहकर कभी अपना उद्योग नहीं छोड़ना चाहिये । बिना उद्यमके तिलोंसे तेल कौन प्राप्त कर सकता है ?]
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७५
मार्क्सने इस बातका प्रतिपादन किया था कि श्रम से ही वस्तु मूल्यवान् बनती है । जंगलमें सूखे पेड़का कोई मूल्य नहीं है । कोई पुरुष कुल्हाड़ी लेकर वहाँ जाता है । उसके छोटे-छोटे टुकड़े करके उनका गट्ठर बनाता है और फिर सिर पर उसका भार उठा कर बस्ती में उसे बेचने आता है । जिसे ईंधनकी जरूरत होती है । वह उचित मूल्य देकर उसे खरीद लेता है । यदि वही लकड़ी किसी सुतारके हाथ लग जाती है तो अपने औजारों की सहायतासे वह उससे फर्नीचर बनाता है और उस अवस्था में उस सूखी लकड़ीका मूल्य और भी बढ़ जाता है, जिसका जंगल में कोई मूल्य था ही नहीं । स्पष्ट है कि श्रमने ही उसमें मूल्य उत्पन्न किया । जितना उस पर अधिक श्रम किया जाता है, उतना उसमें अधिक मूल्य पैदा होता जाता है । इस दुनिया के विकासका इतिहास श्रम का ही इतिहास है । श्रम ही वह जादू की छड़ी है, जो जंगल को सुन्दर बगीचे में, ईंट - चूना - पत्थर - सीमेंट को सुन्दर इमारतमें, कपास को सुन्दर वस्त्रोंमें और जंगल की सूखी लकड़ी को फर्नीचर में रूपान्तरित कर देती है ।
कोई भी कार्य इच्छा और श्रम का ही परिणाम होता है । श्रम न हो तो केवल इच्छा से कुछ नहीं हो सकता :
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः । नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥
[ उद्यम से ही कार्य सिद्ध होते हैं, केवल इच्छाओं से नहीं । सोते हुए सिंहके मुँह में पशु नहीं घुसते ! |
खुदा का अर्थ है खुद श्रा ( स्वयं प्रयत्न कर) तभी मैं मिलूँगा । संसार के लिए जितना प्रयास आवश्यक होता है, उतना ही मोक्ष के लिए भी । पर्युषण में की गई आठ दिन
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७६ की आराधना तीन सौ साठ दिन की आराधना बन जानी चाहिये।
प्रभु महावीरने श्रमकी महत्ता प्रतिपादित करने के लिए अपने शिष्यों को "श्रमण'' और शिष्याओंको श्रमणी" शब्द से अभिहित किया था। वे अपना कार्य स्वयं अपने हाथ से करते हैं । उसके अतिरिक्त अध्ययनाध्यापन, विहार, गोचरी तथा सद्गुणों की साधना का श्रम तो करते ही हैं ।
उद्यम प्रत्यक्ष है और भाग्य अनुमान । अनुमान की अपेक्षा प्रत्यक्ष का महत्त्व अधिक माना जाता है; इसलिए उद्यम भाग्य से अधिक महत्त्वपूर्ण है । ____ कहते हैं-एक हाथसे ताली नहीं बजती और एक पहिये से गाडी नहीं चल सकती। उसी प्रकार भाग्य के साथ उद्यम भी ज़रूरी है । बिना उद्यम के भाग्य होते हुए भी प्रकट नहीं होता । राखके भीतर अंगारा छिपा हो तो फूकसे ही वह प्रकट होता है । फूक उद्यम है। प्रयत्नसे ही भाग्य की परीक्षा होती है । फक से यदि अंगारा प्रकट न हो केवल राख उड़े तो समझा जायगा कि भाग्य नहीं था; परन्तु फूक (उद्यम) ज़रूरी है ।
पुरुष की ७२ ग्रौर स्त्री की ६४ कलाएँ होती हैं, जिन्हें कोई जन्म लेने से पहले नहीं सीख सकता । सारी कलाएँ उद्यम से ही सीखी जाती हैं । मिट्टी से सोना, सीप से मोती और पत्थरों से रत्न उद्यम से ही निकाले जाते हैं । किसी विचारक की सूक्ति है :
"हो सकता है, तुम्हारा मोती एक और गोते का इन्तज़ार कर रहा हो !"
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इसमें निरन्तर प्रयत्न करते रहने की बात कही गई है। "ग्लोब का वायर दो इंच छोटा होना चाहिये !" इस सिद्धान्तका पता लगाने के लिए एडीसन को ३७ हजार प्रयोग करने पड़े थे-ऐसा सुना है । दुनिया में जितने भी अन्वेषण और आविष्कार अब तक हुए हैं अथवा भविष्य में होंगे, उन सबका श्रेय केवल साधना को है-उद्यम को है, पालस्यको नहीं ।
पालस्यं हि मनुष्याणाम् शरीरस्थो महारिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ॥ [आलस्य मनुष्योंके शरीरमें रहनेवाला बड़ा भारी दुश्मन है । उद्यम के समान उसका कोई बन्धू नहीं है, जिसे करने वाला कभी दुखी नहीं होता ।।
इंग्लिश की एक सूक्ति है :
Something is better than nothing. [कुछ न होने से कुछ होना अच्छा है]
जो लोग यह कहते हैं कि ठीक कार्य न करने की अपेक्षा कुछ न करना अच्छा है, उनको उत्तर देते हुए एक आचार्य ने कहा है : ___अविहिकया वरमकयम् असयवयणं भणन्ति गीयत्था ।
पायच्छित्तं जम्हा, अकए गुरुयं कए लहुयम् ॥ [अविधिपूर्वक करने से न करना अच्छा है - यह असूत्र (शास्त्रविरुद्ध) वचन है; क्योंकि जो गीतार्थ (शास्त्रज्ञ) हैं, उन्होंने न करने पर बड़ा और करने पर छोटा प्रायश्चित्त निर्धारित किया है]
बात ठीक भी है; क्योंकि जो आज अविधिपूर्वक करते हैं, वे ही कल विधिपूर्वक भी कर सकेंगे; परन्तु जो कुछ भी नहीं करते, उनसे कोई आशा नहीं की जा सकती ।
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७८
कुछ लोग वाणी के शूर होते हैं, वे आजके राजनेताओंकी तरह आश्वासन देते हैं-बहुत कुछ बोलते हैं; परन्तु करते कुछ नहीं । उनके मन में कुछ, वचनमें कुछ और कार्य में कुछ और ही नज़र आता है। महात्माओं और दुरात्माओंका यही भेद है :
मनस्येकं वचस्येकम् कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यद्वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यदुरात्मनाम् ॥ [महात्मा वे हैं; जिनके मन, वचन और कार्य एक-से होते हैं ओर दुरात्मा होते हैं वे, जिनके मन-वचन-कार्यों में भिन्नता होती है]]
कबीर साहब ने ऐसे दुष्टों को फटकारा है; जो बोलते हैं, वैसा करते नहीं :
कहते सो करते नहीं, मुह के बड़े लबार ।
काला मुंह हो जायगा, साई के दरबार ॥ प्रभु महावीर ने भी उन लोगों की प्रकृति का उल्लेख इन शब्दों में किया है :
भणन्ता अकरिता य बन्धमोवखप्परिण णो ।
वायाविरियमेत्रणम् समासासन्ति अप्पयम् ॥ [बन्ध और मोक्ष की विस्तार से चर्चा करने वाले कहते हैं, किन्तु वैसा करते नहीं है। वाणी के बल से ही अपने आपको आश्वस्त करते हैं-समझा लेते हैं] । दूसरों को उपदेश देकर समझते हैं कि वे ज्ञानी हो गये हैं; परन्तु वे भ्रम में हैं। जो आचरण करते हैं, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं। आचरण में उपदेश को जो नहीं उतार पाते, वे तो व्यापारी हैं :
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७६ अवएसा दिज्जन्ति हत्थे नच्चाविऊण अन्नेसिस ।
जं अप्परगा न कीरइ किमेस विक्काणुप्रो धम्मो ? [हाथ नचा-नचाकर दूसरों को उपदेश किये जाते हैं; किन्तु स्वयं उन उपदेशों का पालन नहीं किया जाता ! क्या यह धर्मोपदेश केवल बेचने की वस्तु है ? |
क्रय-विक्रय का आधार केवल धन ही नहीं होता, प्रतिष्ठा भी होती है अर्थात् आपने लोगों को उपदेश दिया और लोगों ने आपको प्रतिष्ठा दी-आपकी प्रशंसा कर दी-आप प्रसन्न हो गये। यह उपदेश का व्यापार है । किसी इंग्लिश कविता की ये दो पंक्तियाँ देखिये :
A man of words and not of deeds
Is like a garden full of weeds ! [जो अपने कथन के अनुसार कार्य नहीं करता, वह मनुष्य घासफूस से भरे हुए बगीचे के समान है]
कार्य के आधार पर मनुष्य को तीन थेणियों में विभाजित किया गया है : प्रारभ्यतेते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विनविहिता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ।।
- मुद्राराक्षसम् [विघ्नों के डरसे जो कार्य प्रारंभ नहीं करते, वे नीच हैं। प्रारंभ करने के बाद विघ्नों से घबराकर जो कार्य अधूरा छोड़ देते हैं, वे मध्यम श्रेणिके पुरुष है; किन्तु उत्तम जन वे हैं, जो बार-बार विघ्नों से आहत होकर भी प्रारंभ किये गये कार्य को पूरा करके ही छोड़ते हैं, बीच में नहीं
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कुछ लोग संकल्प करते हैं, किन्तु कल्पना से विघ्नों की संभावनाओं का विचार करके कार्य से दूर रहते हैं :
सुसंकल्पान् करोमि विचारयामि परित्यजामि पुनः । भवन्नैतादृशं किञ्चित्क्वचिन्न च तादृशं किञ्चित् ॥
एक स्थान पर किसी महात्मा का प्रवचन चल रहा था । उसमें इस बात की प्रेरणा दी जा रही थी कि सबको श्रम की रोटी खानी चाहिये ।
प्रवचन समाप्त होने के बाद वहाँ के राजा ने महात्मा से पूछा कि श्रम की रोटी कैसी होती है - मैं उसे देखना चाहता हूँ ।
महात्माजी ने कहा कि आपके इसी नगर के अमुक मुहल्ले में चरखा कातने वाली एक बुढिया रहती है । उससे आप श्रम की रोटी माँगिये । वह आपको दिखा देगी ।
राजा बुढिया के पास पहुँचा । उससे कहा : "माताजी ! मैं श्रम की रोटी देखना चाहता हूँ । आपके पास हो तो एक रोटी मुझे दिखाइये ।"
बुढिया : "बेटा ! मेरे पास आज कुल है; किन्तु उसमें भी आधी ही श्रम की है,
राजा : "सो कैसे ? ज़रा विस्तार से समझाने का कष्ट करें ।"
एक ही रोटी आघी नहीं ।"
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यह संस्कृत पद्यानुवाद जिस उर्दू शेर का है, वह इस प्रकार है : इरादे बाँधता हूँ, सोचता हूँ, तोड़ देता हूँ । कहीं ऐसा न हो जाये, कहीं वैसा न हो जाये ॥
प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादकने ही यह पद्यानुवाद किया है ।
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बुढिया : "एक दिन मैं चरखा कात रही थी कि सूरज डूब गया। अंधेरा हो गया। थोड़ी ही देर बाद एक जुलस मेरे घरके सामने से होकर निकला। उसमें अनेक मशालें जल रही थीं। जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। मैं उसके प्रकाश में चरखा कातती रही। मुझे उतनी देर तक दीपक नहीं जलाना पड़ा। तेलकी बचत हुई। उस अवधि में काते गये सूत को बेचने पर प्राप्त धन से यह रोटी बनी है; इसलिए प्राधी मेरे श्रम की है और आधी जुलूस की!"
श्रम का महत्त्व इसी प्रकार एक साधुने भक्त धीराजी को समझाया था। धीराजी धन पाना चाहते थे। वे जुलाहे का काम करते थे; परन्तु किसी तरह वे जल्दी धनवान् बन जाना चाहते थे।
कई लोगों से उन्हों ने कहा । किसीने उनके लिए मन्त्रसाधना की, किसीने जप किया, किसीने यज्ञ किया और किसीने तावीज़ बनाकर गले में और भुजा में बाँध दिये। सबने अपनी अपनी फीस धीराजी से वसूल कर ली; किन्तु धीराजी को धनप्राप्ति नहीं हो सकी। साथ ही इन अनुष्ठान करने वाले ठगों के चक्कर में उन्हें अपने धंधे के लिए पूरा समय नहीं मिलने के कारण कमाई भी कम हुई।
साधुने उसके द्वारा किये गये पिछले सारे उपायों का विवरण उसके मुह से सुनकर जान लिया कि किस प्रकार धूर्तों ने विविध व्यर्थ उपाय बताकर उनसे अपना उल्लू सीधा किया है।
फिर साधु ने बताया : "धीराजी ! तुम्हारा जो औजार है, वह वस्त्र बुनते समय जितनी बार आये और जाये, उतनी बार तुम अपने इष्टदेव का मन-ही-मन नाम लेना। ऐसा
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करते हुए जब वह औजार घिस जायगा, उसी दिन तुम्हें धन की कमी नहीं है-ऐसा अनुभव होगा; लेकिन शर्त यह है कि इस बीच तुम और किसी से कोई अनुष्ठान मत कराना।"
धीराजी ने वैसा ही किया और सचमुच वे धनवान् बन गये।
इस घटना से पता लग जाता है कि किसी मन्त्रने नहीं, किन्तु निरन्तर श्रम ने ही धीराजी को धन की प्राप्ति कराई। इष्टदेव का नामस्मरण भी उन्हें श्रम में लगाये रखने के उद्देश्य से ही कराया गया था।
एक जगह किसी बहू का ससुर बहुत अधिक भाग्यवादी था। वह समझता था कि सारा खेल भाग्य का है। अपने किये से कुछ नहीं हो सकता। बहू उनसे विपरीत पुरुषार्थवाद में ही विश्वास करती थी। उसने एक दिन ससुरवीं से कहा :
__ "आप खाली हाथ घर न लौटने का नियम बना लें। किसी दिन कुछ न मिले तो एक मुठ्ठी धूल या रेत ही उठा लायें ।"
___ ससूरने नियम ले लिया । दिनभर कोई कमाई नहीं हुई । लौटते समय धूल उठाने के लिए वे सड़क पर झुके ही थे कि एक मरे साँप पर उनकी नज़र पड गई। बहू को चिढाने के लिए वे उसीको उठाकर घर ले आये । बहने उसे छतपर डाल दिया ।
थोड़ी देर बाद पत्थरकी तरह छत पर कुछ गिरने की आवाज आई; क्योंकि छत लोहेके चद्दर की बनी हुई थी। बहूने ऊपर चढ़कर देखा तो उसे रत्नोंका एक सुन्दर हार दिखाई दिया । एक चील हारके लाल रत्नोंको मांसके टुकडे
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८३ समझकर उसे उठा लाई थी। छत पर मरा साँप उसे दिख गया तो हार पटक कर वह साँपको उठा ले गई थी।
हार लाकर उसे ससुरजी के चरणों में रखती हुई बहू बोली।
"लीजिये, यह आपके नियमका फल । यदि खाली हाथ घरमें न आनेका आपने नियम न लिया होता और उसका पालन न किया होता तो यह हार कैसे मिल सकता था ?"
यह सुनकर ससुरजी भाग्यवादी से पुरुषार्थवादी बन गये।
किसी नगर में दो विद्वान् रहते थे। उनमें से एक भाग्यवादी था और दूसरा पुरुषार्थवादी ।
एक बार राजाकी मध्यस्थता में दोनों ने शास्त्रार्थ किया ।
भाग्यवादीका कथन था : स्त्रीको मूछ नहीं होती, हथेली में बाल नहीं उगते, आमके वृक्ष पर बेर नहीं लगते, सूर्य पश्चिम में नहीं उगता, बुढापे में बाल सफेद हो जाते हैं, जन्म लेनेवाला हर प्राणी एक दिन मरता है - इन सब बातोंसे सिद्ध होता है कि सब कुछ भाग्यपर ही निर्भर है। कुछ आदमी जन्म से ही काने, अन्धे, बहरे, लले या लंगड़े होते हैं अथवा किसी सेठ या भिखारी के घर में पैदा होते हैं तो यह सब भाग्य का ही चमत्कार है :
भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम् ॥ [सब जगह भाग्य ही फलता है, न विद्या फलती है और न मेहनत ही !]
और भी कहा है :
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८४
नहि भवति यन्न भाव्यम् भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति यस्य हि भवितव्यता नास्ति ।
अवश्यं भाविनो भावा भवन्ति महतामपि ।
नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहिशयनं हरेः ।। [जो होने वाला नहीं है, वह कभी नहीं होता और जो होने वाला है, वह बिना प्रयत्न के भी हो जाता है । होनहार न होने पर हाथमें आई हई चीज़ भी नष्ट हो जाती है ! अवश्य होने वाले भाव महान् पुरुषों को भी होते हैं। यही कारण है कि शंकरजी वस्त्रहीन (दिगम्बर) हैं और विष्णुजी को साँप पर सोना पड़ता है]
चातक पक्षी का उदाहरण भी भाग्यवाद की पुष्टि करता है :
देवमुल्लंध्य यत्कार्यम् क्रियते फलवन्न तत् ।
सरोऽम्मश्चातकेनात्तम् गलरन्घ्रण गच्छति ॥ [भाग्यके विरुद्ध किया गया कोई कार्य सफल नहीं होता। चातक जब तालाब का जल पीता है, तब वह उसके गले के छेद से बाहर निकल जाता है ! ]''
पुरुषार्थवादीने कहा : "राजन् ! यदि भाग्य ही सब कुछ है तो भाग्यवादी को कुछ बोलने का प्रयत्न ही नहीं करना चाहिये था । वह अपने आप सिद्ध हो जाना चाहिये था । मैं भाग्यवादी से पूछना चाहता हूँ कि अपनी बात के समर्थनमें जो श्लोक आपने सुनाये, क्या वे किसी ग्रन्थ से बिना कण्ठस्थ किये ही अपने आप कण्ठस्थ हो गये हैं ? यह जो राजमहल बना है, क्या वह आसमानसे टपका है ?' ये जो वस्त्र हमने पहिन रक्खे हैं, क्या वे किसी झाड़ से पैदा हुए हैं ? ये जो बड़े-बड़े पोथे लिखे गये हैं, क्या वे
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पंडितोंके श्रमके फल नहीं हैं ? सारी दुनिया में सर्वत्र श्रम का ही नृत्य दिखाई देता है। यदि श्रम न होता तो मनुष्य पशु-पक्षियोंकी तरह जंगलों में नंगा-भूखा भटकता रहता !
अप्रकटीकृत शक्तिः शक्तोऽपिजनस्तिरस्क्रियां लभते ॥ [जो अपनी शक्ति को प्रकट नहीं करता, वह समर्थ हो तो भी तिरस्कार पाता है]
वसिष्ठ ऋषिने रामचन्द्रजी को भाग्यकी निरर्थकताके विषयमें जो कुछ समझाया था, वह सबके लिए मनन करने योग्य है :
कालविद्भिर्विनिर्णीतम् पाण्डित्यं यस्य राघव ! अनध्यापित एवासौ तज्ज्ञश्चेद् दैवमुत्तमम् ॥ कालविद्धिर्विनिर्णीता यस्यातिचिरजीविता । स चेज्जीवति संछिन्न-शिरास्तदैवमुत्तमम् ॥ न च निस्पन्दता लोके दृष्टेह शवतां विना ।
स्पन्दाच्च फलसम्प्राप्तिः तस्माद्देवं निरर्थकम् ॥ [हे रामचन्द्र ! ज्योतिषियोंने जिसके विद्वान् होने की भविष्यवाणी की है वह बिना पढाये ही विद्वान हो जाय तो भाग्य उत्तम है । फलितशास्त्रियों ने जिसकी आयु लम्बी बताई है, वह सिर काट देने पर भी यदि जीवित रहे तो भाग्य उत्तम है । मुर्दे के अतिरिक्त संसार में कहीं भी स्थिरता (निष्क्रियता) नहीं दिखाई देती। क्रियासे ही फल की प्राप्ति होती है (कार्य सफल होते हैं) इस लिए भाग्य निरर्थक है]
पशु-पक्षियों को भी श्रम से ही खुराक मिलती है। जुगन का उदाहरण भी पुरुषार्थ को प्रतिष्ठित करता है। जब तक वह उड़ता रहता है, चमकता रहता है । रुकते ही उसका प्रकाश नष्ट हो जाता है।"
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दोनों की बाते सुनकर राजा कोई निर्णय नहीं कर सका कि भाग्य को श्रेष्ठ माना जाय या पुरुषार्थ को । उसने अपने बुद्धिमान् मन्त्री को निर्णय का कार्य सौंप दिया । मन्त्री ने कहा कि वाद-विवाद से जो सिद्धान्त नहीं प्रमाणित होते, उनकी प्रत्यक्ष परीक्षा की जानी चाहिये । आपका प्रदेश हो तो मैं इन दोनों विद्वानों की प्रत्यक्ष परीक्षा करूँ ।
राजाने आदेश दे दिया । मन्त्री ने दोनों पंडितों को गाँव के बाहर बने एक मन्दिर में प्रविष्ट करा के फाटक पर ताला लगा दिया । तोन दिन बाद दोनों को बाहर निकाल कर महाराज के सामने ले आया । दोनों प्रसन्न दिखाई दे रहे थे । मन्त्री ने कहा : "मन्दिर में आपको जो भी अनुभव हुआ हो, उसके आधार पर आप अपने सिद्धान्त का समर्थन कीजिये ।"
1
पुरुषार्थवादी : "मुझे जब भूख लगी तब उठकर मैं इधर-उधर हाथ फिराने लगा । एक ताक में मुझे दो लड्डू मिल गये ! यदि मैं प्रयत्न न करता तो भूखों मरना पड़ता, इसलिए पुरुषार्थवाद ही विजयी हुआ है ।"
भाग्यवादी : "मैं तो भाग्य भरोसे चुपचाप एक जगह बैठा रहा । भूख मुझे भी लगी थी; परन्तु मैंने कोई प्रयत्न नहीं किया । बिना कुछ किये ही लड्डू मेरे मुँह मैं आ गया । पुरुषार्थवादी भाईने सोचा कि दो लड्डू मिले हैं, सो अकेले खाना अशिष्टता होगी । उन्होंने एक लड्डू मुझे दे दिया था । इस प्रकार बैठे-बैठे अनायास मुँह में लड्डू आ जाने से विजय भाग्यवाद की ही हुई है - ऐसा मैं मानता हूँ ।"
मन्त्री : " लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता; क्योंकि यदि पुरुषार्थवादी पंडितजी ने पुरुषार्थ न किया होता अर्थात् दोनों
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भाग्यवादी बनकर बैठे रहते तो दोनों भूखे रहते । भाग्यवादी को जो कुछ मिला था, वह पुरुषार्थवादी के पुरुषार्थ का ही प्रतिफल था ! अतः मेरी दृष्टि में विजय पुरुषार्थ की ही
राजाने भी मन्त्रीजी के निर्णय से अपनी सहमति घोषित कर दी।
एक जगह मन्दिर के लिए मूर्तियों के निर्माण का कार्य चल रहा था। किसी पथिक ने रुक कर एक प्रश्न किया : "भाई ! आप क्या कर रहे हैं ?"
एक ने कहा : “मैं अपने पेट के लिए पत्थर पर छैनी के प्रहार कर रहा हूँ।"
दूसरे ने कहा : "मैं धन कमाने के लिए मूर्ति बना रहा हूँ।"
तीसरे ने कहा : “मैं मूर्ति में सौन्दर्य को निर्मित कर रहा हूँ-दर्शनीयता का सृजन कर रहा हूँ-प्रभुता को प्रतिष्ठित कर रहा हूँ।"
श्रम तीनों बराबर ही कर रहे थे; परन्तु तीसरे कलाकारका श्रम में आनन्द का अनुभव हो रहा था। ऐसा ही अनुभव प्रत्येक श्रमिक को करना चाहिये ।
दो आदमी प्रात:काल उठ कर टहलने जाते हैं। एक आदमी सोचता है कि टहलने से हाथ-पाँव हिलते हैं-व्यायाम होता है-रक्तसंचार की गति तेज होती है आदि। दूसरा सोचता है कि टहलने से शुद्ध हवा मिलती है-सुन्दर प्रकृति के दृश्य देखने का अवसर मिलता है-सूर्य की सुनहरी किरणें शरीर पर पड़ती हैं आदि ।
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इन दोनों को शारीरिक श्रम का फल स्वास्थ्य के रूप में मिलता है; परन्तु दूसरे व्यक्ति को टहलने में जो आनंद आता है, उससे पहला व्यक्ति सर्वथा वंचित रह जाता है ।
श्रम के बाद जो आराम किया जाता है, उसे विश्राम कहते हैं। बिना श्रम किये यदि कोई आराम करता है तो वह आलसी है।
परीक्षा के दिनों में वही छात्र घबराता है, जिसने साल भर कोई परिश्रम न किया हो । प्रश्नपत्र सरल भी हो तो ऐसे छात्र को वह कठिन लगता है।
एक छात्र वार्षिक परीक्षा देने के लिए परीक्षा-भवन में पहुँचा । अपने रोल नम्बर की सीट हूँ ढकर उस पर बैठ गया। घंटी बजी। प्रश्नपत्रों का वितरण किया गया। उसे भी प्रश्नपत्र मिला। प्रश्नपत्र पाते ही उसे एक बार ध्यानपूर्वक पढ़ लेना चाहिये और जो-जो प्रश्न सरल हो या जिनका उत्तर आता हो, उन पर टिक मार्क लगा कर पहले उनका उत्तर लिख लेना चाहिये और फिर उन प्रश्नों की ओर ध्यान देना चाहिये, जिनका उत्तर नहीं आता या जो बहुत कठिन लगते हैं।
उस परीक्षार्थी ने भी अपना प्रश्नपत्र सावधानी से पढ़ा, परन्तु टिक मार्क लगाने लायक एक भी प्रश्न उसमें नहीं था। एक भी प्रश्न ऐसा नहीं था, जिसका उत्तर उसे सूझ रहा हो। पूरा वर्ष उसने खेलने-कूदने और हँसी-मजाक करने में ही बिता दिया था। आज वह अपने आलस्य के लिए पछता रहा था-अपने आपको कोस रहा था; परन्तु अब क्या हो सकता था ?
"अब पछताये होत क्या ? जक चिड़िया चुग गई खेत!"
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८६ आखिर उसने उत्तरपुस्तिका में से कागज का एक टुकड़ा फाड़ कर उस पर लिख दिया :
हजारों की किस्मत तेरे हाथ है
अगर पास कर दे तो क्या बात है ! फिर वह टुकड़ा उत्तरपुस्तिका के मुखपृष्ठ पर आलपिन से नत्थी करके कोरी उत्तरपुस्तिका निरीक्षक महोदय को थमा दी।
निरीक्षक ने दोनों पद्यात्मक पक्तियाँ पढ़ कर उस कागज़ के टुकड़े के पीछे अपनी ओर से ये दो पंक्तियाँ लिख दी :
किताबों की ढेरी तेरे हाथ थी!
अगर याद करता तो क्या बात थी ? फिर वह टुकड़ा परीक्षार्थी को लौटा दिया। परीक्षार्थी छात्र अत्यन्त लज्जित होकर अपने घर चला गया। आलसी को इसी प्रकार सर्वत्र लज्जित होना पड़ता है। महात्मा बुद्ध ने कहा था :
पमादो मच्चुनो पदम् ॥ [आलस्य मृत्यु का कारण है]
एक आम का पेड़ था। उसके नीचे दो आदमी लेटे हुए थे। उनमें से एक की छाती पर एक पका आम हवा के झोंके से टूट कर आ गिरा ।
उधर से एक घुड़सवार गुजर रहा था। आम वाले आदमी ने घुड़सवार को पुकारा । वह घोड़े से उतरकर वहाँ गया। पूछने पर उसने कहा : "कृपया मेरी छाती पर गिरा हुआ यह आम मेरे मुह में निचोड़ दीजिये।"
यह सुनकर मुसाफिर खिलखिला कर हँसा और बोला :
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६०
"अरे आलसी ! इतना सा काम क्या तू खुद नहीं कर सकता था, जो मुझे बुलाया ?"
दूसरे आदमी ने कहा : “आपने ठीक पहचाना भाई साहब ! यह आलसी ही है। थोडी देर पहले मेरे मह पर मक्खियाँ भिनभिना रही थी। मैंने कहा कि जरा हाथ हिलाकर उड़ा दो तो इससे इतना भी नहीं बन सका । मानो यह भी आम निचोड़ने जैसी कोई कठिन बात हो, जिस में ज़ोर लगाना पड़े !"
पहले आदमी ने कहा : "इस की बातों में मत आइये भाई साहब ! यह तो मुझसे भी बड़ा आलसी है, अभी थोड़ी देर पहले एक कुत्ता मेरा मूह चाट रहा था। मैंने इस आदमी से कहा कि ज़रा मुंहसे धुत् धत् कह कर कुत्ते को भगा दीजिये; किन्तु इससे इतना-सा शब्द भी बोला न गया। मानो यह भी मक्खियाँ उड़ाने के लिए हाथ हिलाने जैसी कोई कठिन बात हो ?"
घुड़सवार आम उठाकर चलता बना । प्रकृति फल उन्हीं को देती है, जो पुरुषार्थ करते हैं । लेटे हुए आदमियोंकी तरह जो आलसी होते हैं, वे जीवनमें कभी उन्नति नहीं कर सकते। ऐसे व्यक्तियोंसे मित्र भी दूर रहना चाहते हैं । मित्र उन्हें मिलते हैं, जो कर्मठ होते हैं और उद्यम करने में तत्पर रहते हैं।
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६. कर्मफल
जिस प्रकार करोड़पति सेठ धनके बल पर नर्तकी को नचाते हैं, उसी प्रकार संसारी जीवोंको पुण्यपाप के बल पर कर्म नचाता रहता है । नर्तकी को उलटने पर "कीर्तन" शब्द बनता है. यदि जीवों के जीवन में कीर्तन अर्थात भगवान् की भक्ति या स्तुति आ जाय तो फिर वे ही कर्म को नचाने लगते हैं ।
हम सब संसारी जीव कर्मराजा के कैदी हैं। असंसारी सिद्ध देव ही उसके बन्धन से मुक्त हैं।
कर्म आत्माका सबसे बड़ा शत्रु है । शरीर आत्मा का कारावास है । हम अनशन (उपवास) करते हैं तो दूसरे दिन कान पकड़कर कर्म पारणे में सब वसूल कर लेता है। शरीर आत्माका सारा पुण्य लूट लेता है ।
शुभाशुभ कर्म ही परलोक में जीव के साथ जाते हैं, शेष सारी सम्पत्ति, समस्त रिश्तेदार कौर मित्र यहीं छट जाते हैं :
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे
___भार्या गृहद्वारि जनःश्मशाने । देहश्चितायां परलोकमागे ।
कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।। [धन ज़मीनमें (पहले बैंकोंकी सुविधा नहीं थी, इसलिए लोग धनको ज़मीन में गाड़ कर रखते थे), पशु बाड़े में, पत्नी धरके दरवाजे में, लोग श्मशान में और शरीर चिता में (जल कर) छूट जाता है । परलोक के मार्ग में जीव
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१२
अकेला ही जाता है । केवल शुभाशुभ कर्म उसके साथ रहते हैं]
आत्माका शत्रु कर्म है । कर्मका शत्रु धर्म है । शत्रुका शत्रु मित्र होता है - इस नीति के अनुसार धर्म आत्माका मित्र है।
जिस प्रकार मिट्टी के साथ सोनेका अनादिकालीन सम्बन्ध है, उसी प्रकार कर्मके साथ आत्माका भी अनादिकालीन सम्बन्ध है।
आँख में मोतियाबिन्द हो तो उससे कोई वस्तु स्पष्ट नहीं दिखाई देती, उसी प्रकार मन में कषाय (क्रोध-मानमाया-लोभ) हो तो आत्माके स्पष्ट दर्शन नहीं हो सकते ।
हमारे आत्माराम भाई शरीरकी कालकोठरी में कैद हैं। संसार भी एक कैदखाना है। दोनोंकी व्यवस्था एक-सी है।
जेलमें जब कोई नया कैदी प्रविष्ट होता है तो वह बड़ा दुखी होता है; परन्तु अन्य कैदी उसका हार्दिक स्वागत करते हैं। कहते हैं - "रोनेकी कोई ज़रूरत नहीं । हम तुम्हें कम्पनी देंगे । तुम अकेले नहीं रहोगे ।"
___ यहाँ संसारमें भी जब कर्मराजाका कैदी आता है तो वह रोता है - चिल्लाता है; परन्तु उसका थाली बजाकर, गुड़ बाँट कर स्वागत करते हैं और कम्पनी देनेके लिए सब कुटम्बी नामक कैदी उसे हाथोंहाथ लेते हैं।
कोई कह सकता है - "महाराज ! हम आपके प्रवचन में आये हैं तो क्या यह हमारी स्वतन्त्रता नहीं है ? फिर हम अपने कुटुम्बियों के कैदी कैसे ?"
मेरा उत्तर यह है कि आप यदि अपने को स्वतन्त्र मानते हैं तो यहीं बैठे रहिये बारह बजे तक ! फिर देखिये
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६३
क्या होता है ? तत्काल घर पर गिनती हो जायगी कि कैदी कहाँ गया ? घर वाले दौड़े दौड़े यहाँ आयेंगे और मुझसे कहेंगे कि महाराज ! जिस कैदी को हमने प्रवचन सुनने के लिए पैरोल पर छोड़ा था, वह लौट कर अब तक घर क्यों नहीं आया ? कहीं फरार तो नहीं हो गया है ?
डाकू और राष्ट्रपति दोनों के आसपास पुलिस रहती है । डाकू के पीछे इसलिए रहती है कि कहीं भाग न जाय और राष्ट्रपति के आगे इसलिए कि उसकी सुरक्षा की जाय, सेवा की जाय । ठीक उसी प्रकार श्रावक और श्रमण दोनों के आसपास कर्म रहते हैं; परन्तु उनमें अन्तर है, श्रावक के प्रागे संसार रहता है और श्रमण के पीछे । वह जलमें कमल के समान संसारमें रहकर भी उससे निर्लिप्त रहता है - उसके प्रति अनासक्त रहता है ।
शुभाशुभ कर्मोकी वेदना तो सबको होती है; परन्तु वेदना यदि हमें वन्दना तक पहुँचा दे तो हमारा उद्धार हो जाय । वेदना से लाभ क्या होता है ? दुख में तो आँसू भी हमारा साथ नहीं देते । वे भी निकल जाते हैं । आँखों से बाहर अँधेरे में हमारी परछाई भी गायब हो जाती है; इसलिए आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान से ऊपर उठने का प्रयास कीजिये ।
कुत्ता भले ही एयरकंडीशन्ड कमरे में रहे और सेमसाहब के कर कमलों से दूध - बिस्कुट खाता रहे; परन्तु उसके गले में परतन्त्रता का पट्टा लगा रहता है । इसी प्रकार जीव किसी शरीर में चाहे कितनी भी भौतिक सुविधाओं के बीच रहे, उस पर कर्मराजा की ओर से परतन्त्रता का पट्टा तब तक लगा ही रहता है, जब तक वह संसार में रहता है ।
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कभी सुख है कभी दुःख है, इसीका नाम दुनिया है ।" दुनिया में सुख और दुःख का चक्र बराबर चलता ही रहता है :
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा । नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥
[ किसके प्रात्यन्तिक सुख या केवल दुःख प्राप्त होता है ? चक्र के आरों की तरह दशाएँ ऊपर-नीचे होती रहती हैं ] जीव अपने सुख-दु:ख का जिम्मेदार स्वयं ही है, कोई दूसरा नहीं :
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा
अहं करोमीति वथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः ॥
अध्यात्मरामायणम्
[ सुख और दुःख कोई किसीका नहीं देता । दूसरा कोई मुझे सुख या दुख देता है - ऐसा समझना गलत है । "मैं करता हूँ" ऐसा झूठा घमण्ड नहीं करना चाहिये; क्योंकि संसार अपनेअपने कर्मसूत्रों में गुथा हुआ है अर्थात् अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही संसारी जीव सुख या दुःख का अनुभव करते हैं; इसलिए अपने सुख-दुःख के लिए वे स्वयं ही जिम्मेदार हैं ] हमारे सुख-दुःख में दूसरे केवल निमित्त बन जाते हैं । जैसा कि शास्त्रकार कहते हैं :
सव्व पुव्वकयाणं कम्माणं पावए फलविवागे । प्रवराहेसु गुणस्य निमित्तमितं परो होइ ॥
[ सब जीव पूर्वकृत कर्मों का फल प्राप्त करते हैं । अपराध ( दु:ख ) और गुण (सुख) में दूसरा तो निमित्तमात्र होता है ।
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उत्तराध्ययन सूत्र में भी लिखा है : "अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाण य सुहाण य ॥" [प्रात्मा ही सुख-हुःख का कर्ता और भोक्ता है]
अच्छे कार्यों द्वारा हम अपने लिए सुख का और बुरे कार्यों द्वारा दुःख का निर्माण करते हैं । फिर अपने निर्मित सुख-दु:ख का हम स्वयं ही भोग भी करते हैं। निर्माण और भोग में अन्तर है। सुतार फर्नीचर का निर्माण करता है, कारीगर भवन का; परन्तु फर्नीचर से युक्त भवन का भोग या उपयोग कोई धनाढय सेठ करता है। इस प्रकार वस्तुओं के कर्ता और भोक्ता अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु कर्मों का कर्ता और भोक्ता एक ही होते है । सूत्रकृतांगसूत्र में लिखा है : जं जारिसं पुवमकासि कम्म
तमेव प्रागच्छति सम्पराये ॥ . [पहले जो जैसा कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है]
पानी में डाला गया लकड़ी का टुकड़ा तैरता है; परन्तु यदि गीली मिट्टी उसं पर लगा दी जाय, फिर कपड़ा लपेटा जाय और फिर उस पर दूसरी बार गीली मिट्टी की परत चढाई जाय-इस प्रकार यदि आठ बार उस पर गीली मिट्टी की परतें चढ़ा दी जायँ तो वह पानी में डूब जायगा।
यही बात आत्मा के लिए है। वह भी पूर्वजन्म में निर्मित पाठ कर्मों के आवरणों से लिप्त होने से संसारसागर मे डूबी हुई है।
जन्म लेने के बाद ये लिपटे हुए कर्म क्रमश : उदित होहो कर शुभाशुभ फल (सुख-दु:ख) देते रहते हैं :
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सकम्मुणा विप्परियासुवेइ ॥ -सूत्रकृतांग १/७/११ [अपने कर्मों से ही व्यक्ति कष्ट पाता है]
गोस्वामी सन्त तुलसीदास ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "रामचरितमानस' में लिखा है : "कर्मप्रधान विश्व करि राखा ।
जो जस करइ सो तस फल चाखा ॥" एक फकीर था। वह बस्ती में घूमते हुए गाया करता था :
भले भलाई बुरे बुराई कर देखो रे भाई !
भलाई का फल भला होता है और बुराई का बुरा । यदि किसी को इस बात पर विश्वास न हो तो स्वयं करके देख ले।
__एक औरत ने सोचा कि क्यों न करके देखा जाय । उसने दो लड्डुओं में जहर मिला दिया और उसी फकीर की झोली में वे लड्ड डाल दिये । सोचा कि मैंने फकीर के साथ बुराई की है और मरेगा फकीर ही। बुराई करने वाली मैं हूँ; परन्तु मेरी क्या हानी होगी? कुछ नहीं। इस प्रकार फकीर की बात झूठी सिद्ध हो जायगी।
फकीर भिक्षा में अन्य खाद्यसामग्री के साथ उस औरत से प्राप्त दोनों जहरीले लड्डू लेकर गाँव के बाहर बनी हुई अपनी कुटिया में चला गया ।
पहले उसने दूसरी सामग्री खाई। सोचा कि लड्डू यदि बच गये तो वे अगले दिन भी खराब न होंगे; परन्तु रोटी, खिचड़ी आदि अन्य सामग्री खराब हो जायगी; इसलिए पहले उन्हीं को खा लेना चाहिये ।
दूसरी सामग्री पर्याप्त थी। खाने से पेट भर गया।
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६७
लड्डू बच गये । उन्हें उसने एक कपड़े में बाँध कर खूटी से टांग दिया ।
रातको बारह बजे के प्रासपास दो आदमी कुटिया के निकट आये । उन्होंने किंवाड़ खटखटाये । फकीरने खोल दिये । अन्दर आकर वे बोले – “हम दोनों सैनिक हैं । दोतीन साल पहले सेनामें भरती हुए थे । आज छुट्टी लेकर अपने माँ-बापसे मिलने आये हैं; किन्तु अभी तो घरवाले सब सो रहे होंगे। हम भी थके हुए हैं। रातभर यहीं सोने की आज्ञा चाहते हैं, सुबह उठकर हम अपने घर चले जायेंगे ।
फकीरने उन्हें ठहरनेकी अनुमति दे दी । इतना ही नहीं; अपनी पोटलीमें बंधे वे दोनों लड्डू भी निकाल कर उन्हें दे दिये । बोले : एक-एक लड्डू आप दोनों खाकर जल पीनेके बाद सो जाइये ।"
सिपाहियोंने वैसा ही किया; किन्तु लड्डु खाने के बाद विषके प्रभावसे वे सदाके लिए सो गये ।
सुबह उठकर फकोरने विषैले लड्डुओंके बारे में जाना, जब देखा कि उनके खानेसे बेचारे दोनों सिपाही अपने माँबाप से मिलने के पहले ही इस दुनिया को छोड़कर चले गये हैं।
फकीर अपनी झोली उठाकर बस्ती में गया और गाने लगा :
भले भलाई बरे बुराई कर देखो रे भाई । लड्ड दिये फकीर को, पर दो मर गये सिपाई ॥
जब उस औरत ने सुनी यह आवाज़ तो उसे शंका हुई कि मेरे दो बेटे जो सेनामें भरती हुए थे, कहीं वे तो नहीं मर गये। शंका स्वाभाविक थी; क्योंकि दो-चार दिन
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पहले ही उन्होंने चिठ्ठी भेजकर सूचित किया था कि हम मिलने आ रहे हैं ।
वह अपने पतिको साथ लेकर फकीर की कुटिया में गई। देखा तो तत्काल पहिचान में आ गये कि वे उसीके पुत्र हैं। वह रोने और विलाप करने लगी : मैं ही पापिन हूँ। जहर देकर मैंने ही अपने प्यारे बच्चों की हत्या की है । धिक्कार है - मुझ हत्यारिनको !” |
मनुष्य हँस-हँसकर पाप करता है; परन्तु उस औरतकी तरह रो-रो कर भोगता है ।
ऐसी ही एक घटना और है ।
एक पंडितजी थे । वे प्रतिदिन राजमहल में जाकर घंटेभर तक घामिक प्रवचन करते थे। दक्षिणामें राजा साहब की ओर से दोदो स्वर्णमुद्राए उन्हें दी जाती थीं । कागजके एक टुकड़े पर राजा साहब दो स्वर्णमुद्राएँ देनेका आदेश भंडारीके नाम पर लिख देते थे । पंडितजो चिठ्ठी बता कर मुद्राएँ ले लेते थे ।
। एक दिन नाईको यह मालूम हुआ कि पंडितजी को दो स्वर्णमुद्राएँ मिलती हैं तो उसका भी मन इस ओर आकर्षित हुआ ।
दूसरे दिन जब पंडितजी नाई के घर बाल बनवाने गये तो बाल बनवाने के बाद नाई ने कहा : “पंडितजी! आप एक घंटा प्रवचन करते हैं और मुझे भी एक घंटा बाल बनाने में लगता है। इस प्रकार दोनों का श्रम समान है तो पारिश्रमिक भी समान होना चाहिये । आप दो स्वर्णमुद्राएँ लेते हैं तो मैं भी आप से दो स्वर्णमुद्राएँ. ही बालबनवाई के लगा।"
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पंडितजी : "आपके श्रममें और मेरे श्रममें अन्तर है। प्राप शारीरिक श्रम करते हैं और मैं बौद्धिक श्रम करता हूँ, इसलिए दोनों का मूल्यांकन समान नहीं हो सकता!"
नाई : "क्यों नहीं हो सकता ? श्रम तो श्रम ही हैभले ही वह शारीरिक हो या बौद्धिक । समय दोनों में समान ही खर्च करना पड़ता है। इसलिए पारिश्रमिक भी समान ही मिलना चाहिये।"
पंडितजी : “मैं स्वर्णमुद्राएँ माँगता नहीं हूँ। राजासाहब स्वयं ही देते हैं; किन्तु पाप तो माँग रहे हैं। माँगने वाले को केवल पारिश्रमिक मिलता है, दक्षिणा नहीं।"
नाई : 'अच्छा तो आप भी मुझे बिना माँगे किसी दिन दो स्वर्णमुद्राएँ दे दीजियेगा। आज मैं पारिश्रमिक से ही काम चला लगा।"
पंडितजी नाई की निर्धारित बनवाई देकर बिदा हो गये; किन्तु नाई के दिल में ईर्ष्या की आग जल रही थी।
दूसरे दिन राजमहल में राजासाहब के बाल बनाते समय नाई ने कहा : "हजूर ! आपके शरीर से हलकी-सी सुगन्ध आती रहती है; परन्तु पंडितजी को, पता नहीं क्यों, दुर्गन्ध आती है ?" __ राजा : “तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि पंडितजी का मेरे शरीर से दुर्गन्ध का अनुभव होता है ?"
नाई : “आप स्वयं ही अपनी आँखों से देख लीजियेगा साहब ! जब पंडितजी प्रवचन करने बैठते हैं, तब आपके पहुँचते ही रूमाल उठा कर वे नाक पर रख लेते हैं या नहीं।"
नाई चला गया। अगले दिन पंडितजी प्रवचनार्थ यथासमय राजमहल में अपने लिये निर्धारित आसन पर जाकर
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विराजमान हो गये । राजाजी के पहुँचने पर ही प्रवचन प्रारंभ किया जाता था । ज्यों ही राजासाहब आये, त्यों ही पंडितजी ने बोलना प्रारंभ कर दिया । राजाजी की नज़र तो पंडितजी के रूमाल पर थी । सचमुच उन्होंने उसे मुँह पर रख लिया था । इससे नाई के कथन की पुष्टि हो गई। राजाजी का मन प्रवचन में नहीं लगा । वे पंडितजी को दण्डित करने का उपाय सोच रहे थे ।
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प्रवचन समाप्त होते ही दी जाने वाली चिट्ठी में उन्होंने लिख दिया: स चिट्ठी लाने वाले की तत्काल नाक काट ली जाय ।" नीचे हस्ताक्षर कर दिये । चिट्ठी दे दी ।
पण्डितजी ने वह चिट्ठी उठाई और चल दिये हमेशा की तरह भंडारीजी के पास । उन्होंने चिट्ठी पढ़ने की कोशिश ही नहीं की । उन्हें विश्वास था कि आज भी दो स्वर्णमुद्राएँ देने की बात ही इसमें लिखी होगी ।
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उघर चुगलखोर नाई से न रहा गया । तमाशा देखने के लिए अपनी चुगली से प्रभावित क्रुद्ध राजा पंडितजी के साथ कैसा व्यवहार करते हैं-यह जानने के लिए बिना बुलाये ही नाई राजमहल में चला आया । सामने से प्रसन्न-चित्त पंडितजी आते दिखाई दिये । नाई ने समझा कि इन्हें कोई दण्ड नहीं दिया गया है, तभी खुश है ।
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नाई ने शिष्टाचारवश उन्हें प्रणाम किया । पंडितजी ने नाई के द्वारा माँगी गई दक्षिणा की बात याद आ जाने से वह चिट्ठी उसे दे दी और कह दिया : " लीजिये, आजकी दक्षिणा मैं आप ही को दे देता हूँ - यह चिट्ठी लीजिये और भंडारीजी के पास चले जाइये । "
पंडितजी इसके बाद अपने घर चले गये । नाई भंडारी
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"भले भलाई बुरे बुराई कर देखो रे भाई ! चिट्ठी दी पण्डित को, पर नाईने नाक कटाई !"
कर्मों के कारण जीव कितने बन्धनों में रहता है ? शरीर का बन्धन, परिवार का बन्धन, समाज का बन्धन, देश का बन्धन और विश्व का बन्धन- सर्वत्र बन्धन ही बन्धन हैं; सारा जीवन पराधीन है ! यहाँ तक की मौत भी अपने हाथ की बात नहीं है :
नागता आजीवनं या सा तु सम्प्रत्यागता । जीविते यद् दुस्सहत्वं तत्त मृत्यावप्यभूत ॥4
बम्बई की बात है। वहाँ मंच पर एक नाटक दिखाया जा रहा था। उसमें नायक (हीरो) निर्धनता से खिन्न होकर 'मर' जाता है। एक प्रेक्षक ने सोचा कि यदि मैं नायक की भूमिका में काम करता हुआ सचमुच मर जाऊं तो यह दृश्य बहुत प्रभावक हो जायगा। नाटक कम्पनी की ओरसे इस पर अधिक पुरस्कार मिलेगा और गरीबी से तंग मेरा परिवार भी उस पुरस्कार राशि से सुखी हो जायगा। अपने विचार को मूर्तरूप देने के लिये वह नाटक के संचालक से मिला। उसका प्रस्ताव सुनकर संचालक ने उत्तर दिया : “हम आपका प्रस्ताव स्वीकृत नहीं कर सकते, क्योंकि. उस प्रभावक दृश्य को देखकर प्रेक्षकों ने कहीं वन्समोर (एक बार और) कह दिया तो हमें दुबारा ऐसा अभिनेता कहाँ मिलेगा ?"
उसने समझ लिया कि मरना भी अपने बसकी बात नहीं है। मृत्यु आयुष्य कर्मकी समाप्ति पर ही अवलम्बित है। * सम्पादक द्वारा विरचित यह संस्कृत पद्यानुवाद उर्दू के जिस शेर का है, वहमौत पाने तक न आये, अब जो पाये हो तो हाय ! जिन्दगी मुश्किल ही थी, मरना भी मुश्किल हो गया ॥
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एक चोर रातको घर में घुस आया । सेठ बुद्धिमान् था । उसने सेठानीसे कहा : "अरी ! सुनती हो ? मुझे अभी-अभी एक सुन्दर सपना आया । गाँवके बाहर बाबा जमाल खाँ पीर की दरगाह पर मैं हमेशा दिया जलाता रहा । उनकी कृपा से अपने तीन पुत्र पैदा हुए। एक का नाम बाबा की यादगार में जमाल खाँ रख दिया, दूसरे का नाम पठान और तीसरेका चोर । एक दिन पहले बेटेकी वर्षगाँठ मनाने के लिए तुमने बहुत स्वादिष्ट खीर बनाई । मेरे लिए थाली लगा दी; परन्तु मैं बच्चों के बिना कैसे खाता ? वे सड़क पर खेल रहे थे । उन्हें बुलाने के लिए मैंने जोर से आवाज़ लगाई - जमाल खाँ ! पठान ! चोर ! दौड़कर आओ ।"
उसी समय जमाल खाँ नामक सेठ का पहरेदार आवाज़ सुनकर ऊपर आया और उसने चोरको पकड़ लिया ।
कर्म भी ऐसा ही चोर है । उसे युक्ति से ही पकड़ा जा सकता है । चोर घर में घुस आया था, वैसे ही कर्म आत्मा में घुसा बैठा है । उसे पकड़ने की युक्ति है धर्म ।
एक श्रावक था । उसने चातुर्मास कालमें चार महीने का पौषधव्रत ले लिया । घरमें माँ थी और पत्नी थी। दो छोटे बच्चे थे । निर्धनताका साम्राज्य था । ऐसी अवस्था में कुछ कमाई - धंधा न करके पौषघव्रत करना, और सो भी चार महीने तक की लम्बी अवधि के लिए, पत्नी सह नहीं सकी । वह नाराज़ होकर बच्चों के साथ पीहर चली गई ।
घर में एक कुत्ता पाल रखा था, सो बरसात में घरका दरवाजा गिर जाने से मर गया ।
घर में माँ अकेली रह गई थी । एक दिन अँधेरी रात
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१०४ में दो गधे वहाँ आँगन में आकर लेट गये। उनकी पीठ पर सोनेकी सिल्लियाँ लदी हुई थीं । बुढिया ने दिया जलाकर देखा तो सारे आँगनमें सिल्लियाँ बिखरी पड़ी थी। उसने सारी सिल्लियाँ बटोरकर रख लीं।
हुआ यह था कि एक धनवान् सेठ दस-पन्द्रह गधोंपर सोनेकी सिल्लियाँ लाद कर अँधेरी रातमें उस धनको ज़मीन में गाड़ने के लिए जंगल में चपचाप चला जा रहा था; परन्तु अँधेरे के कारण दो गधे गधोंके उस टोले से छिटक कर उधर आ निकले थे। यदि कुत्ता जीवित होता तो वह उन्हें भौंककर भगा देता और यदि दरवाजा गिरा न होता तो भी गधे घरके अाँगनमें प्रवेश न कर पाते - बाहर ही खड़े रहते या किसी खुले द्वारवाले दूसरे घर में घुस जाते ! सारा योग अनुकूल बैठा।
चातुर्मास कालमें ही बुढियाने नौकरचाकर रख कर कारीगरों के द्वारा नई सुन्दर पक्की इमारत बनवा ली और मुनीम रखकर व्यापार शुरू करवा दिया । फिर सन्देश भेज कर बहूको और बच्चोंको भी बुलवा लिया ।
पौषध समाप्त होते ही श्रावक जब अपने घर गया तो वहाँकी समृद्धि देखकर आश्चर्यचकित हो गया। उसने अपने घरकी दशामें इस अप्रत्याशित परिवर्तनका श्रेय पोषधवतको दिया । धर्मसे अशुभ कर्मों का क्षीण किया जा सकता है - यही प्रभाव उसके हृदय पर पड़ा ।
__ एक महिला थी । वह पानी उबाल रही थी। थोड़ी देर बाद पानी में से कुछ ध्वनि प्रकट होने लगी।
महिला ने पूछा : "भैया जल ! तुम क्या कह रहे हो ? ज़रा स्पष्ट शब्दों में समझाकर कहो ।”
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जलने उत्तर दिया : “बहिनजी ! आग मुझे कष्ट दे रही है। मुझमें ऐसी शक्ति है कि यदि मैं इस पर आक्रमण कर दूं तो यह तुरन्त बुझ जाय; परन्तु बीच में यह पीतलका आवरण (भगोना) बाधा डाल रहा है, इसलिए मैं मजब्ररी से सब कष्ट सह रहा हूँ :
इस रूपकके द्वारा यह समझाया गया है कि आत्मा भी कर्मों के भगोने में भरी हुई है, इसलिए विवश होकर उसे दुःख भोगने पड़ रहे हैं :
ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे । विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तः सदासङ्कटे ॥ रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः ।
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे । [जिसने ब्रह्माको कुम्हारकी तरह ब्रह्माणु रूपी भाण्ड (बर्तन) बनाने में लगा दिया, विष्णु को जिसने दस अवतार लेनेकी झंझट में डाल दिया, शंकरको जिसने खप्पर हाथमें रखकर भीख मांगने के लिए भटकाया और सूर्यको जो प्रतिदिन आकाश में भ्रमण कराता है, उस कर्मको नमस्कार हो]
यह गरुडपुराणके अध्याय एक सौ तेरह का श्लोक है, किसी जैनग्रन्थ का नहीं; इसलिए ब्रह्मा-विष्णु--महेश के कार्योंका वर्णन जैनेतरमान्यताके अनुसार हुआ है । उससे असहमतिकी दार्शनिक चर्चामें न उलझकर मैं केवल उसके प्रतिपाद्य विषय की ओर ही ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि सारी दुनिया कर्मों से ही संचालित हो रही है। सभी संसारी जीवों को कर्म नचा रहे हैं और वे नाच भी रहे हैं :
Whatever mishap may befall you, it is on
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account of something which your hands have done.
[ तुम्हें जिस प्रपत्ति या दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है, उसका कारण वही कुछ कार्य है, जो तुम्हारे हाथोंने किया है ! ]
एक गुजराती कहावत है :
" जेहवी करे छे करनी तेहवी तरत फले छे !"
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एक साधु अपने शिष्य के साथ एक गाँवसे दूसरे गाँवको जा रहे थे । मार्ग में एक तालाब आया । गुरुजी तो आगे निकल गये; परन्तु शिष्य रुक गया । उसने देखा कि एक मछुआ तट पर खड़ा होकर मछलियाँ पकड़ रहा है । उसने बड़े कोमल शब्द में उसके पास जाकर अहिंसाधर्मका उपदेश दिया; परन्तु मछुए पर उसका कोई असर नहीं हुआ ।
निराश हो कर भागता हुआ शिष्य अपने गुरुजी के समीप जा पहुँचा । अपने रुकने का कारण उन्हें बताया । यह भी कहा कि ऐसे लोग उपदेश पर ध्यान नहीं देते इससे बड़ी निराशा होती है ।
-
गुरूजी ने समझाया कि अपने - अपने कर्मों का फल सब भोगते हैं । हमें सफलता की पर्वाह न करके प्रसन्नता - पूर्वक अपने कर्त्तव्य का पालन करते रहना चाहिये - करेगा सो भरेगा !
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कुछ वर्षों बाद विहारमें ही गुरु-शिष्य को एक जगह कोई घायल साँप दिखाई दिया, जो चींटियों के काटने से तड़प रहा था; परन्तु भागकर अन्यत्र नहीं जा पा रहा था । गुरुजी ने शिष्यसे कहा: “देखो ! उस दिन जिसे तुमने
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१०७
उपदेश दिया था, वह मछग्रा ही मर कर साँप बना है । जिन मछलियोंको उसने मारा था, वे सब चींटियाँ बन कर खूनसे लथपथ उसके शरीरको काट रही हैं। कर्मों का फल प्राणियोंको इसी प्रकार इस लोक में नहीं तो परलोक में अवश्य मिलता है; क्योंकि :
कडाण कम्माण न अस्थि मोक्खो ॥ [किये हुए कर्मों से (फल भोगे बिना) मुक्ति नहीं मिल सकती !]
दुष्कर्मों से चारों ओर शत्रुओं की वृद्धि होती है और सत्कर्मोसे मित्रों की । कर्मफल के सिद्धान्तको भली भांति हृदयंगम करके सबके साथ मैत्रीपूर्ण सद्व्यवहार करने में ही हमारा कल्याण है।
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७. कृपणता
उदारताका विलोम है - कृपणता । यह मनकी एक संकुचित वृत्ति है, जो परोपकार में बाधक होती है ।
संसार में यदि मूरों की सूची बनाई जाय तो उसमें सब से ऊपर कृपण (कंजूस) व्यक्तियों का नाम लिखा जायगा; क्योंकि धन होते हुए भी वे उसका न भोग करते हैं और त्याग ही; केवल अर्जन, रक्षण और वियोगका दु:ख ही उनके पल्ले पड़ता है।
एक कवि ने कृपणको सबसे बड़ा दाता बताते हुए उस पर व्यंग्य किया है :
कपणेन समो दाता, न भूतो न भविष्यति ।
अस्पृशन्नेव वित्तानि, य: परेभ्यः प्रयच्छति ।। [कंजूस के समान दाता न हुअा है और न होगा, जो बिना छूए ही अपना धन दूसरोंको दे डालता है] ,
जीवित अवस्था में तो धनको छूकर देना पड़ता है; परन्तु कृपण मृत्यु के बाद दूसरों को धन देता है; इसलिए बिना छुए दे देता है अर्थात् मृत्यु के बाद दूसरे लोग उसके घनका मजे से उपभोग करते हैं ।
पिपीलिकार्जितं धान्यम् मक्षिका-सञ्चितं मधु ।
लुब्धेन सञ्चितं द्रव्यम् समूलं हि विनश्यति ॥ [चींटियोंके द्वारा इकट्ठा किया हुआ धान्य, मधुमक्खियों के द्वारा इकट्ठा किया गया शहद और लोभी के द्वारा इकट्ठा किया गया धन मूल सहित नष्ट हो जाता है।
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१०६ खाये-खिलाये बिना जिनके दिन बीत जाते हैं, वे साँस लेते हुए भी लुहारकी धौंकनी के समान जीवित नहीं हैं।
त्याग और भोग से रहित धन से यदि कोई अपने को धनवान् मानता है तो उसी धन से हम धनवान् क्यों नहीं कहला सकते ? यदि कोई कहता है कि मैं करोड़पति इसलिए हूँ कि बैंक में (मेरे खाते में) एक करोड़ रुपये जमा हैं - मैं दान या भोग नहीं करता तो क्या हुआ ? तो बैंक में जमा उसी करोड रुपयों की राशि से एक निर्धन व्यक्ति भी अपने को करोड़पति क्यों नहीं मान सकता ? दान-भोग में उस रोशिका उपयोग दोनों नहीं करते ।
कृपण अगले भवमें भिखारी बन कर क्या उपदेश देता है ? एक कवि के शब्दों में देखिये :
बोधयन्ति न याचन्ते भिक्षुकास्तु गृहे गृहे ।
दीयतां दीयतां नित्य-मदातुः फलमीदृशम् ॥ [घर-घर में भिखारी याचना नहीं करते, किन्तु बोध (उपदेश) देते हैं : "दीजिये, सदा दान कीजिये; अन्यथा प्रदाता (कृपण) का फल ऐसा होता है ( वे हमारे समान भिखारी बन जाते हैं)"]
अमुक धन कंजसका था - यह कैसे मालम होता है ? एक कविने उसका कारण इन शब्दों में बताया है :
असम्भोगेन सामान्यम् कृपणस्य धनं परैः ।
अस्येदमिति सम्बन्धो हानौ दुःखेन गम्यते ॥ [सम्भोग न करने के कारण निर्धन और कंजूस का धन सामान्य (समानता रखने वाला) होता हे । हानि (नुकसान) होने पर जो दुःख होता है, उसीसे जाना जा सकता है कि
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११० घन इस (कंजूस) का था (क्योंकि निर्धन को काई दुःख नहीं होगा)]
दान और भोग न करने वाले का धन नष्ट क्यों होता है ? सो बताया है :
दानं भोगो नाश-स्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ [दान, भोग और नाश-ये धन की तीन गतियाँ हैं। जो न धन किसी को देता है और न भोगता है, उसके घनकी तीसरी गति (बर्बादी) हो जाती है]
मनुष्य शरणागत का त्याग नहीं करता और जहर को नहीं खाता-इस बात को ध्यान में रखकर एक कविने कहा है :
शरणं किं प्रपन्नानि विषवन्मारयन्ति किम् ?
न त्यज्यन्ते न भुज्यन्ते कृपणन धनानि यत् ॥ [कृपण की शरण में आया है धन, क्योंकि वह उसका त्याग नहीं करता ? धन विष की तरह मारक (घातक) है क्या कि कृपण उसका भोग नहीं करता ?]
बहरे के सामने गाया जाने वाला संगीत, अन्धे के सामने रखा गया सुन्दर चित्र और मुर्दे के गले में डाला गया फूलों का हार जिस प्रकार व्यर्थ होता है, उसी प्रकार कंजूस की लक्ष्मी भी व्यर्थ होती है।
उदार व्यक्तियों का यश फैलता है। उन्हे सब याद करते हैं; किन्तु कंजूसों का कोई नाम लेना भी पसन्द नहीं करता। कहा है :
दिन ऊग्यां दातार याद करे सारी 'इला ।
समारो संसार नाम न लेवे नाथिया ! 1 पृथ्धी। कंजूसों का। 3 कवि के एक शिष्य का नाम ।
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१११ महा कवि श्री हर्ष की दृष्टि में कंजूस का ही भार लगता है, पृथ्वी को। उनके शब्द ये हैं :
याचमानजनमानसवृत्तेः पूरणाय बत जन्म न यस्य ।
तेन भूमिरतिभारवतीयम् न द्रुमैन गिरिभिर्न समुद्रः ॥ [याचकजनों की इच्छापूर्ति के लिए जिसका जन्म नहीं हुआ, उसीसे यह भूमि अति भारवती (बहुत बोझा ढोने वाली) है; न पेड़ों से, न पहाड़ों से और न समुद्रों से ही]
पहले लोग रखवाली के लिए खेत में खाली घास-फूस और बाँस से बना एक पुतला खड़ा कर देते थे। रात को चोर उसे आदमी समझकर दूरसे ही चले जाते थे। कंजूस भी उस पुतले के समान होता है-ऐसा एक कविने इन इन शब्दों में प्रकट किया है। या न ददाति न भुक्ते
सति विभवे नव तस्य तद् द्रव्यम् । तृणमयकृत्रिमपुरुषो
रक्षति सस्यं परस्यार्थे ॥ [धन होते हुए भी जो न देता है और न भोगता है, उसका वह धन है ही नहीं। घाससे बना हुआ नकली पुरुष जिस प्रकार दूसरों के लिए धान्य की रक्षा करता है, वैसा ही वह कंजूस भी (केवल रखवाला) है (धन का मालिक नहीं है] ___कृपण और कृपाण-ये दोनों शव्द मिलते-जुलते हैं। इन दोनों के स्वभाव में भी समानता है। 'प' के बदले दसरे शब्द में 'पा' है; इस प्रकार आकार (आकृति) में ही थोड़ा सा भेद है।
दृढतरनिबद्धमुष्टेः कोषनिषण्णस्य सहजमलिनस्य । कृपणस्य कृपाणस्य च केवलमाकारतो भेदः ॥
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११२
[ कृपण ( कंजूस) और कृपाण (तलवार) में केवल आकार ( 'आ' की मात्रा अथवा प्राकृति) का ही भेद है; अन्यथा ये दोनों दृढतर निबद्ध मुष्टि (कृपण मज़बूती से मुट्ठी बन्द रखता है - किसीको दान नहीं करता और कृपाण की मूठ मज़बूत होती है ) कोषनिष्षण कृपण खजाने के पास बैठा रहता है और कृपाण म्यान में रहती है- - म्यान को भी कोष कहते हैं) और सहज मलिन (कृपण स्वाभाविक रूपसे मैला होता है और कृपाण काली होती हैं) होते हैं ]
(
लोभी या कंजूस धन का दान इसलिए नहीं करता कि मैं कहीं दरिद्र न हो जाऊँ, परन्तु उदार व्यक्ति भी यही सोचकर धन का दान करता है कि कहीं मैं दरिद्र न हो जाऊँ ! कैसी विचित्र है दोनों में समानता ? उदार व्यक्ति सोचता है कि यदि मैं दरिद्र हो गया तो फिर दान नहीं कर सकूँगा, इसलिए जब तक धन मौजूद है, दान कर दूँ तो अच्छा रहेगा अथवा वह यह सोचता है कि पूर्वभव में दान किया था, इसलिए इस भवमें मैं धनवान् बना हूँ । यदि इस भवमें दान नहीं करूंगा तो अगले भवमें मुझे कहीं दरिद्र न बनना पड़े !
दान शब्द की याद न आ जाय और दान में हाथसे धन न छूट जाय - इस दृष्टि से कंजूस 'द' अक्षर वाले शब्दों के प्रयोग तक से बचने का प्रयास करता है । यदि ऐसा कोई शब्द बोलना हो तो उसका पर्यायवाची शब्द बोलता है :
देवता को सुर श्रौ असुर कहे दानव को दाई को सुधाय तिया दार को कहत है । दर्पण को आरसी त्यों दाख को मुनक्का कहे दास को खवास आम खास विचरत है ॥
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१९३ देवी को भवानी और देहरा को मठ कहे याही विधि घासीराम रीति प्राचरत है । दाना को चबीना दीपमाला को चिरागजाल देव के डर सों कभी दद्दो न कहत है ॥
--माषाश्लोकसागर यदि कोई सुन्दर पुष्ट बलिष्ठ जवान गाय हो, परन्तु दूध न देती हो तो उसे कौन खरीदना चाहेगा? इसी प्रकार दूसरों के काम न पाने वाली कंजूस की सम्पति चाहे कितनी भी हो, उसका कोई मूल्य नहीं।
एक बार बड़े मुल्ला को किसी आवश्यक कार्य से दूसरी जगह जाना था। दिन खराब न हो-इस दृष्टि से दिन-भर वे दूकान पर कमाई करते रहे और शाम को दूसरे गाँक. जाने का कार्यक्रम बनाया।
भोजन करके अपना बैग उठाया और घरसे बिदा हो गये। पाँच-दस किलोमीटर मार्ग तय किया ही होगा कि सहंसा उन्हें एक बात याद आई । एक ज़रूरी काम रह गया था। वे एबाउट टर्न होकर घर लौट आये।
घर आकर बीबी से बोले : “सोते समय दीपक बुझा देना, नहीं तो व्यर्थ ही रातभर तेल जलता रहेगा।"
बीबी को यह सूचित करना ही वह काम था, जिसे करने के लिए आधे रास्ते से वे लौट आये थे ।
बीबी बोली : "मियाँजी ! आपको तेल जलने की इतनी चिन्ता थी तो क्या पाँच - दस किलोमीटर चल कर यहां आने और फिर से वहाँ तक लौटते में जूते घिसने की कोई चिन्ता नहीं हुई ?"
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११४
मियाँजी ने कहा : "बिल्कुल नहीं; क्योंकि जूते तो रात को मैं बगल में दबाकर ही चलता हूँ !" ___ एक बार उन्हें एक छाता खरीदना था । उनकी बीबीने उन्हें समझा दिया कि आजकल लोग मनमाना भाव बोलते हैं । जो असली कीमत होती है, उससे दुगुना वताते हैं; इसलिए दूकानदार जो भाव बताये, उसका प्राधा ही तुम देनेकी तैयारी बताना ।
बड़े मुल्लाने बात गाँठ में बाँध ली । फिर बाजार में गये। वहाँ एक छाते की बड़ी - सी दूकान देखकर जा पहुंचे।
___एक छाता पसंद करके उसका भाव पूछा । दूकानदारने बताया : “यह छाता बहुत बढिया है । वैसे तो इसका मूल्य बीस रुपये है; परन्तु आपके हाथ से बोहनी करना है। इसलिए मैं सोलह रुपयों में दूंगा।"
मियाँजी को बीबी की बात याद आ गई । बोले : “मैं तो आठ ही रुपये लाया हूँ।" ।
दूकानदार : "तो आठ में ही सही । ।
मियाँजी : 'लेकिन मुझे और सामान भी तो खरीदना है । क्या आप चार रुपयों में नहीं दे सकते ?"
दूकानदार पहले ग्राहक को खाली हाथ जाने नहीं देता था; इसलिए घाटा सह कर भी छाता देने को तैयार हो गया । बोला : "चलिये, चार ही दे दीजिये ।"
मियाँजी : “यदि इसका मूल्य आप चार बता रहे हैं तो मैं दो रुपये दूंगा।'
दूकानदार : "जो आपकी इच्छा हो सो दे दीजिये । जब घाटा ही सहना है तो फिर विचार ही क्या करना ?"
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११५
मियाँजी : "मेरा विचार तो एक ही रुपया देने का है ।"
दूकानदार : "अब आप से एक रुपया लेकर लेने का नाम क्या करूँ ? आप तो मुफ्त में ही इसे ले जाइये ।”
मियाँजी : "यदि मुफ्त में ही देना है तो दो छाते दीजिये । एक मेरी बीबी के काम आ जायगा ! "
यह है अनुदार मनोवृत्ति । ऐसी मनोवृत्ति से मनुष्य अपनी स्थिति हास्यास्पद बना लेता है !
एक बार बड़े मुल्ला बीमार पड़े और बेहोश हो गये । कुटुम्बियोंने समझा कि मर गये हैं । रोना-धोना मच गया । अड़ौसी- पड़ौसी इकट्ठ े हो गये । एक ने कहा कि मुल्ला का जनाजा शानसे निकाला जाय ।
दूसरे ने कहा : "यदि अधिक खर्च होगा तो वह मुल्ला के स्वभाव से विपरीत हो जायगा, क्योंकि वे सदा कम से कम खर्च में काम चलाने के पक्षपाती रहे हैं ।"
तीसरा बोला : “हाँ, जनाजा सादगी से निकालना ही ठीक है ।"
चौथा : "कितनी भी सादगी से क्यों न निकाला जाय, कुछ न कुछ खर्च तो होगा ही !
22
मुल्ला होश में आ चुके थे । वे यह सारी चर्चा सुनकर उठ बैठे और बोले : " आप लोग इतनी चिन्ता क्यों कर रहे हैं ? मैं पैदल ही आपके साथ कब्र तक चला चलता हूँ. वहीं मर जाऊँगा । आप शान से मुझे दफना कर चले आइयेगा । जनाजे का सारा खर्च बच जायगा !
""
एक सेठजी थे । वे भी बड़े कंजूस थे । एक बार बीमार
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पड़े। मित्रों की सहायता से कुटुम्बियोंने चाहा कि उनका इलाज़ कराया जाय।
बीमारी भयंकर थी। सेठजी ने पूछा : “इस बीमारी के इलाज में कुल कितना खर्च होने की संभावना है ?"
___ एक मित्र बोला : "चार-पाँच हजार रुपये तो लग ही जायँगे।"
सेठजी : “और अन्त्येष्टि में क्या खर्च आयगा ?" मित्र : "चार-पाँच सौ रुपये ।"
सेठजी : "तो फिर इलाज की ज़रूरत नहीं। मुझे इस बीमारी से मरने ही दीजिये । सस्ते में काम निपट जायगा।"
कंजूसी का कष्ट गरीबी के कष्ट से भी बढ़ कर होता है-यह बताते हुए किसी कवि ने कहा है :
न शान्तान्तस्तृष्णा धनलवणवारिव्यति करैः श्रतच्छायः कार्याश्चरविरसरूक्षाशनतया । अनिद्रा मन्दाग्निर्न पसलिलचौरानलभयात्
कदर्याणां कष्टं स्फुटमधनकष्टादपि परम् ॥ [धन रूपी खारे पानी से मनकी तृष्णा (प्यास) शान्त नहीं हई । लम्बे समय तक रसहीन रूखा भोजन करने से शरीर की शोभा नष्ट हो गई। राजा, जल, चोर और प्राग के डर से अनिद्रा और मन्दाग्नि का रोग लग गया। स्पष्ट ही निर्धनों की अपेक्षा कृपणों को कष्ट अधिक होता है]
पहले धन जमीन में गाड़ने वाले कंजूस तो बड़े बुद्धिमान होते थे, क्योंकि वर्षीदाम के समय उनका धन तीर्थंकर के द्वारा निर्धनों में वित्तरित हो जाता था। इससे पुण्य उन्हें भी मिल जाता था, परन्तु आजकाल तो बैंक में रखा जाता
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है, इसलिए दान के काम नहीं आ पाता । वह धन का संग्रह करता-करता मर जाता हैं, किन्तु नहीं जानता कि उसका उपभोग कौन करेगा?
दो कंजस आपस में बड़े मित्र थे । एक दिन की बात है । उनमें से एक बीमार पड़ा । दूसरा उसका हाल-चाल जानने और सान्त्वना देने के लिए उसके घर गया । बीमारी गहरी थी । केवल औषध का सेवन करने से पूरे लाभ की संभावना न थी। मित्रने सुझाया कि कुछ दान-पुण्य भी करना चाहिये :
मूजी से कंजूस यूँ कहे शान्ति झट होय ।
दान करो निज हाथ से जो इच्छा हो, सोय ॥
इस पर मुजीने कहा : "मित्र ! यह बात तो मुझे पहले से ही मालूम है । मैं वह दान कर चूका हूँ, जिसके लिए आप मुझे प्रेरित कर रहे हैं।"
मित्रने पूछा : "क्या आप अपने दान का विवरण बतायेंगे ?'' मूजी : "अवश्य । सुनिये :
दो दाना तो दालका सवा टका-भर चन । एक टीपर्यो तेल को तीन गांगड़ी लण ॥ इतो दान निज हाथसे तुरत फुरत कर दीन । कि नही ने पूछयो नहीं, नरभव लाहो लोन ॥
ऐसे अद्भुत दानियोंको कुछ देने में ही कष्ट होता हो तो भी कोई बात नहीं; परन्तु ये तो दूसरों को देते हुए देखकर भी बड़े दुखी हो जाते हैं । एक उदाहरण से मैं अपनी बात स्पष्ट करना चाहूँगा ।
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एक जगह कोई उदार सज्जन किसी निर्धन को कुछ दान कर रहा था । एक कंजूस ने उसे देख लिया । वह मन - ही - मन सोचने लगा कि कितने कष्ट से सम्पत्ति अजित की जाती है - यह अजित करने वाला ही समझ सकता है । उदारता के नाम पर धन को लूटा दिया जाय तो दिवाला ही निकल जाय । जो व्यक्ति मांग रहा है, वह भी व्यर्थ ही अपना गौरव नष्ट कर रहा है । विचारकों ने किसी के सामने माँगने के लिए हाथ फैलाने को मौत से भी अधिक दु:खदायक माना है । कहा है :
माँगन मरन समान है, मत कोई माँगो भीख । माँगन ते मरना भला, यह सद्गुरु की सीख ॥
आखिर वह कंजूस अपने घर पहुँचा । पत्नी ने उसके उदास चेहरेको देखकर पूछा :
के तो गाँठ से गिर गयो के काहू को दीन ? तिरिया पूछे प्रेमसू क्यों प्रिय ! भया मलीन ? यह सुनकर पतिदेवने उत्तर में कहा :
न तो गाँठ से कुछ गिरा, ना काहू को दीन ।
देतां देख्या औरने तासों भया मलीन ॥ कंजूसों के और भी अनेक नमूने हमें जहाँ - तहाँ खोजने पर मिल जायेंगे ।
__ एक आदमी ने किसी शहर में सर्विस लग जाने के कारण एक सुविधाजनक मकान ढूढ कर किराये पर ले लिया।
एक बार उसका कोई मित्र उससे मिलने आया। मित्र को मकान दिखाने की इच्छा से वह उसे विभिन्न कमरों में
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११६ ले गया। एक कमरा बिल्कुल खाली पड़ा था। मित्रने पूछा कि यह कमरा किस काम आता है ।
आदमी ने कहा : “यह हमारा संगीत कक्ष है ।"
मित्र : 'लेकिन इसमें कोई वाद्य तो है नहीं । क्या आप केवल मुहसे गाते हैं ? बजाते कुछ नहीं ? शास्त्रकारोंने लिखा है :
गीतं वाद्य च नृत्यञ्च त्रिभिः सङ्गीतमुच्यते ॥ [गायन, वादन और नर्तन - इन तीनों के मिलने से “संगीत" कहा जाता है।
इस सूक्ति के अनुसार संगीत - कक्ष वही कहला सकता है, जिसमें गीत, वाद्य और नृत्य तीनोंका सयोग हो - मिलन हो ।'
आदमी ने कहा : "नाचने, गाने और बजाने की हम ज़रूरत ही नहीं समझते । पड़ोस में ग्रामोफोन पर फिल्म संगीत के रिकार्ड बजते रहते हैं, रेडियो से भी फर्माइशी गाने आते रहते हैं। इतना ही क्यों ? रेडियो से नाटक, प्रहसन, कहानियाँ, चटकूले, कविताएँ अादि भी समय - समय पर हमें सुनने को मिलती हैं। हमारा पूरा परिवार इसी कमरे में बैठ. कर मजे से सब कुछ सुनता रहता है। अन्य कार्यक्रमों की अपेक्षा हमें संगीत अधिक प्रिय लगता है; इसलिए हमने इस कमरे का नाम संगीतकक्ष रख दिया है। बात आई समझमें ?"
'जी हाँ, बिल्कुल अच्छी तरह समझमें आ गई । आपकी बुद्धिमत्ता सचमुच प्रशंसनीय है।" ऐसा कह कर मित्र वहाँ से तत्काल बिदा हो गया ।
इसी ढंग की बुद्धिमत्ता का एक छोटा – सा नमूना और देखिये :
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१२०
__ एक गाँव में रहने वाला कोई आदमी अपने किसी कामसे एक बार शहर में गया । काम पूरा होने के साथ ही दिन भी पूरा हो जाने से वह अपने समाज के किसी बन्धु के घर ठहर गया । शहर वाले खिलाने - पिलाने में बहुत सावधान रहते हैं । यह बात बेचारे गाँव वाले आदमी को मालूम नहीं थी।
शहर वाले सेठ ने भोजन के समय शिष्टाचारवश कह दिया :
"आइये, भोजन करें।"
ग्रामीण आदमी सेठके साथ भोजनकक्ष में चला गया। वहाँ दोनों के लिए थालियाँ लगा दी गई। वहाँ से रसोईघर के चूल्हे पर भी नज़र पड़ जाती थी। सेठानी सेठसे भी अधिक होशियार थी। उसने भोजनार्थ आई इस नई बला को टालने के लिए एक उपाय सोचा। उसके अनुसार चिमटा चूल्हे की जलती लकड़ी पर रख दिया।
ग्रामीण ने पूछा : “यह चूल्हे में चिमटा गरम क्यों किया जा रहा है ?"
सेठानी बोली : " जब यह चिमटा खूब तपकर अपने सिरों (दोनों टाँगों) पर लाल-लाल हो जायगा, तब इससे अपने घर आये मेहमान की पीठ दागी जायगी, जिससे दुवारा घर पाने पर पहिचाना जा सके कि यह अपना ही मेहमान है, किसी और घरका नहीं। यह क्रिया पूरी हो जाने के बाद मेहमानों की थाली में रोटियाँ परोसी जाती हैं। उससे पहले नहीं।"
यह सुनते ही अत्यन्त भयभीत ग्रामीण लघशंका का बहाना करके बिना कुछ खाये-पिये ही वहाँ से खिसक गया। कंजूसी जो न कराये सो थोड़ा। सेठानी अपनी सफलता पर
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१२१ प्रसन्न हुई और सेठ को ऐसी बुद्धिमती सेठानी पाकर विशेष गर्व का अनुभव होने लगा।
जहाँ न पहूँचे रवि वहाँ पहुँचे सुकवि
इस सूक्ति के अनुसार एक कवि को कंजूस में ही अधिक उदारता के दर्शन हुए ! वह कहता है :
उदारचरितस्त्यागी याचितः कृपणोऽधिकः ।
एको धनं तत: प्राणान अन्य प्रारणांस्ततो धनम् ॥ [कंजूस से कुछ मांगा जाय तो वह दाता से भी अधिक उदार और त्यागी प्रमाणित होगा, क्योंकि दाता पहले धन
और फिर प्राण देता है; परन्तु कृपण पहले प्राण दे देता है, फिर धन देता है !]
प्यासा चातक पानी पाने की आशा में बार-बार बादलों को देखता, उनसे याचना करता, अपनी व्यथा सुनाता, गिड़गिड़ाता; परन्तु एक-एक करके बादल गर्जना करते हुए बिना पानी बरसाये ही आगे बढ़ जाते; कोई उसकी पोर ज़रा भी ध्यान नहीं देता-बिल्कुल नहीं पसीजता-एक बूद भी उसके लिये नहीं टपकता। यह सारा हलचाल देखकर किसी सहृदय कवि के हृदय में उस चातक के प्रति सहज ही सहानुभूति पैदा हो गई। उसने कहा :
रे रे चातक ! सावधानमनसा मित्र ! क्षणं श्रूयताम अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नेतादृशाः । केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति धरणीम् गर्जन्ति केचिद् वृथा
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ॥ हे मित्र चातक ! सावधान मन से क्षणभर सुनो। आकाश में बहुत-से बादल रहते हैं। सब ऐसे (उदार) नहीं हैं । कुछ तो बरसातों के द्वारा धरती को गीला कर देते हैं और कुछ व्यर्थ ही गर्जना करते हैं; इसलिए तू जिस बादल को देखता
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है, उस-उसके (सबके ) सामने दिन ( करुणाजनक याचना के )
वचन मत कहा कर ]
विदुर नीति में ऐसे लोगों को कठोर दण्ड देनेका प्रविधान पाया जाता है । लिखा है :
द्वाम्भसि प्रवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् । विद्वांसं चाप्रवक्तारम् धनवन्तमदायिनम् ॥ [ न बोलने वाला विद्वान् और न देने वाला धनवान् इन दोनों को गले में शिला बाँधकर जल में डुबो देना चाहिये ] महात्मा बुद्ध ने भी कहा था :
"न वे कदरिया देवलोकं व्रजन्ति ॥ "
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धम्मपद १३ / ११
[ कृपण कभी स्वर्ग में नहीं जाते ] एक कंजूस मात्र लेना जानता है, देना नहीं; और माँगने वालों को "नहीं है" कह कर निराश कर देता है - यह वात एक राजस्थानी कवि ने इस दोहे के माध्यम से प्रकट की है :
बावन वखर में बड़ो नन्नो सहुनो सार । दद्दो तो जाणू नहीं लल्ले ' अक्सर प्यार ॥ ऐसे लोगों की प्रतिज्ञा होती है : जल डबू श्रगिनी जल 'हिमुख प्रगल दूँ । 7 इतना कारज मैं करूँ दद्दो नाम न ल्यू ॥ राजस्थान में चारण नामक एक समाज है । पुराने जमाने में अपने आश्रयदाता राजाओं की बढ़ा-चढ़ा कर स्तुति करना, कविताओं में प्रशस्ति तैयार करना और उसे गा-गा कर सुनाना उनका प्रमुख कार्य था - व्यवसाय था | उनसे
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१. इन्कार । २. सबका उत्तम अंश । ३. देना । ४. लेना | ५. प्रायः । ६. साँप के मुँह में उँगली दे दूँ । ७. इतने ।
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१२३
प्रशस्ति सुनकर राजा लोग उन पर प्रसन्न हो जाते थे और उन्हें पुरस्कार में प्रचुर धन देते थे। इससे उनकी आजीविका चलती थी-पूरा परिवार पलता था ।
ऐसा एक चारण कवि किसी कंजूस सेठ के पास जा पहुँचा । उसने प्रशस्तिकाव्य सुनाकर सेठकी तबीयत खुश कर दी। कुछ-न-कुछ इनाम तो देना ही पड़ेगा अब-ऐसा सोच कर सेठने कह दिया : “मैं तुम्हें एक पगड़ी दूंगा।"
चारण सन्तुष्ट होकर चला गया। दूसरे दिन जब पगड़ी माँगने पहँचा तो जिस मनहरण कवित्त से चारणने प्रशस्तिगान किया था, उसी छन्द में सेठ ने उससे ऐसा कहा :
'पाघ देनी कही सो तो, माँगत हो आज ही पै,
आवेगो असाढ तब, बन हु बुवावेंगे । होवेगो कपास तब, लोड - पीज - कात - बुन, कोऊ चतुर धोबी तें, ऊजरी धुवावेंगे । बुगचा में बाँध घर, रखेंगे कितेक दिन, प्रावेगो कसुम्बो तब, गुलाबी रंगावेंगे । हम बाँध 'पुत बाँध, पोते पड़पोते बाँध, पीछे हम 'वाही पाघ तुमको दिलावेंगे ।
चारणने अपना माथा ठोक कर कहा कि तुम्हारे प्रपौत्र (पुत्र के पुत्र के पुत्र) के सिरसे पगड़ी उतरने तक न तुम जीवित रहोगे और न मैं ही रहूँगा !
ऐसे कृपणों का भला कौन मित्र बनना चाहेगा ? कोई नहीं।
१. पगड़ी। २. गठरी। ३. वसन्त ऋतु । ४. पुत्र । ५. पौत्र (पुत्र का पुत्र)। ६. प्रपौत्र । ७. वही।
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८. गुणग्राहकता
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घर घर में सूप होता है । वह क्या करता है ? उत्तम
वस्तु को अपने पास रख लेता है । थोथी वस्तुको उड़ा देता है । माली माला बनाने के लिए पौधों के पास जाता है। और फूलों को तोड़ लेता है, किन्तु काँटों को वहीं छोड़ देता है । हमें भी सब जगह से गुणों को ग्रहण करना है दोषों को छोड़ना है; परन्तु हमारा स्वभाव तो चलनी जैसा है । हम दोषोंको ग्रहण करते हैं और गुणों का त्याग कर देते हैं ।
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शरीर क्षणभंगुर है - अस्थायी है; परन्तु गुण स्थायी रूपसे आत्मा के पास रहते हैं; इसलिए गुणों की रक्षा के लिए शरीर की भी परवाह नहीं करनी चाहिये ।
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दूध न देने वाली गाय गले में लटकने वाली घंटी की मधुर ध्वनि मात्र से बाजार में नहीं बिक सकती । एक रुपये की मटकी भी लोग खूब ठोक बजा कर लेते हैं । कपड़े की दूकान पर पचास तरह का कपड़ा देखकर मुश्किल से एक-दो चुनते हैं । उसकी चमकदमक और रंग ही नहीं देखते, टिकाऊपन भी देखते हैं । किसीको नौकरीपर रखना हो तो पहले अनेक उम्मीदवारों का इंटरव्यू ( साक्षात्कार ) लेते हैं और भलीभाँति परखकर अपने लिए उपयोगी व्यक्ति का चयन करते हैं । इन सारे उदाहरणों से क्या सिद्ध होता है ? यही कि सब लोग सद्गुणियोंको पसंद करते हैं अर्थात् सद्गुणों से प्यार करते हैं ।
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१२५ फिर भी आश्चर्यको बात है कि वे स्वयं सद्गुणों को अपनानेका प्रयास नहीं करते । वे सोचते हैं, में भले ही दुर्गुणों से भरा रहूँ; परन्तु मेरे आसपास रहने वाले सभी सज्जन हों - ईमानदार हों - सद्गुणी हों । यही वह भूल है, जो पूरे समाज को सद्गुणी बनाने में बाधक है।
निष्कलंक क्षीण चन्द्र (दूजके चाँद) की लोग जितनी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं, उतनी सकलंक पूर्ण चन्द्र की नहीं । इससे सिद्ध होता है कि गुणों से ही गौरव प्राप्त होता है, विशाल सम्पदासे नहीं ।
ऊँचे आसन से भी गुणोंका कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। महलकी छत पर या मन्दिरके शिखर पर बैठे कौए को भी कोई गरुड़ या हंस मानने की भूल नहीं कर सकता ।
कोई व्यक्ति नहीं चाहता कि उसे लूटा जाय, फिर भी वह स्वयं दूसरोंको लूटने का प्रयास करता है, जो गलत है। हम जैसा व्यवहार दूसरों से अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार स्वयं भी दूसरों के साथ करें ।
___ मेरी बात ज़रा उल्टी है। मैं स्वयं चाहता हूँ कि आप मुझे जी भर कर लूटें । मैं चरित्रके गुणों को लुटाने आया हूँ - फ्री ऑफ चार्ज देता हूँ। जिस प्रकार बजाज पचासों तरहके थान खोल-खोल कर दिखाता है । ग्राहक कहे कि कपड़ा तो पसंद है, भाव पसंद नहीं है तो भी वह नाराज़ नहीं होता । कपड़े थान के रूप में लपेटकर फिर यथास्थान जमा देता है । मैं भी अपने प्रवचन की दुकान पर अपरिग्रह, अनुशासन, उद्यम, गौरव, चतुराई, दया, प्रामाणिकता, प्रेम, भावना, मानवता, मित्रता आदि विविध गुणों के थान खोलखोल कर तर्को, सुभाषितों, दृष्टान्तों और मनोहर कथाओं
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से उनका महत्त्व समझाने का प्रयास करता हूँ । आप सुन
लेते हैं और भाव न जमने पर ग्रहण नहीं करते तो भी बुरा नहीं मानता नाराज़ नहीं होता; क्योंकि मेरा तो यह व्यवसाय ही है । व्यवसायी यदि ग्राहकों पर नाराज़ होने लगे तो उसका व्यवसाय ही चौपट हो जाय !
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गुणों का महत्त्व समझने वाला गुणियों के बीच प्रसन्न रहता है । कहा है :
गुणिनि गुणज्ञो रमते
नागुणशीलस्य गुणिनि परितोषः ।
अलिरेति वनात्कमलम्
न ददुरस्तन्निवासोऽपि ॥
[ गुणज्ञ गुणियों में रमण करता है जिसमें गुणों का प्रभाव है, वह गुणी से सन्तुष्ट नहीं होता । भौंरा जंगल से कमल पर आ जाता है, परन्तु जलमें रहने वाला मेंढक उसके पास नहीं जाता ! ]
यदि गुणज्ञ न हों तो गुणियोंके गुण भी उन ( गुणहीनों) के पास जाकर किस प्रकार दोष बन जाते हैं ? देखिये : गुरणा गुरज्ञेषु गुणीभवन्ति
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः । सुस्वादुतायाः प्रवहन्ति नद्यः
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः ॥
[ जो गुण गुणज्ञों के पास जाकर गुण बनते हैं, वे हो निर्गुण को पाकर दोष बन जाते हैं । नदियों का पानी बहता है, वह बहुत स्वादिष्ट होता है; किन्तु समुद्र को प्राप्त कर ( जब नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं, तब ) वही पानी अपेय ( खारा ) हो जाता है ]
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एक इंग्लिश विचारकने लिखा है :
Cream will rise to the top. मलाई सतह पर तैरेगी अर्थात् गुण ऊँचे स्थान पर रहेंगे]
सद्गुणों से धन मिल सकता है; किन्तु धनसे सद्गुण नहीं मिल सकते ! यही दोनों में अन्तर है ।
गुणोंका महत्त्व न जानने वाला गुणियोंकी प्रशंसा नहीं कर सकता : न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्षम्
स तं सदा निन्दति नात्र चित्रम् । यथा किराती करिकुम्भलब्धाम् ।
__ मुक्तां परित्यज्य बित्ति गुजाम् ॥ [जो व्यक्ति जिसके गुणोंका महत्त्व नहीं जानता, वह उसकी यदि सदा निन्दा करता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जैसे हाथीके कुम्भस्थल से प्राप्त मोती का त्याग करके भील गुजाको ग्रहण कर लेता है]
एक इंग्लिश विचारक डिकेन्स ने लिखा है :
सद्गुण चिथड़ों में भी उतना ही चमकता है, जितना भव्य बहुमूल्य वेषभूषामें !
सैकड़ों गुणहीनोंसे एक गुणवान् पुत्रको श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया है :
वरमेको गुरणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि ॥
एकश्चन्द्रस्तभो हन्ति न च तारागणोऽपि च ॥ [सैंकड़ों मूर्ख पुत्रोंकी अपेक्षा एक गुणवान् पुत्र श्रेष्ठ होता है । एक अकेला चाँद अँधेरेको नष्ट कर देता है; परन्तु
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१२८ तारों के झुण्डसे (ढेर सारे तारे मिल जाय तो भी उनसे) अंधेरा नष्ट नहीं हो सकता]
गुणवान् पुत्र को ही सुपुत्र कहते हैं, जिससे माँ-बाप को सुख मिलता है :
एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् ।
सहैव दशभिः पुत्र-और वहति गर्दभी ॥ [एक सुपुत्र को पाकर सिंहनी निर्भयतापूर्वक सोती है; किन्तु दस पुत्रों के साथ गधी भार ढोती है]
एक बार सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टिन को सापेक्षवाद के सिद्धान्त पर भाषण देना था। समय निर्धारित हुआ। पोस्टर छपे । घोषणाएँ की गई; परन्तु आइंस्टिन नहीं गये । श्रोता निराश होकर लौट गये । ऐसा लगातार चार दिन तक हुआ। पाँचवें दिन ये भाषण देने पहुंचे। केवल दस श्रोता थे। आइंस्टिन ने उनके बीच लगातार तीन घंटे तक भाषण करके अपना सापेक्षवाद समझाया।
जब आयोजकों ने उनसे पूछा कि आप पहले चार दिन तक क्यों नहीं आये तो उन्हों ने उत्तर दिया : "मैं श्रोताओं को फिल्टर कर रहा था !"
भीड़ के बीच भाषण करने की अपेक्षा तीव्र जिज्ञासुओं के बीच भाषण करना अधिक लाभदायक होता है। उसमें वक्ता को भी आनन्द प्राता है और श्रोताको भी। श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश अकेले अर्जुन को दिया था। उसे युद्ध के लिए तैयार करना था-उसका मोह मिटाना था--उसकी किंकर्तव्य विमूढता नष्ट करनी थी, सो उसमें श्रीकृष्ण पूरी तरह सफल रहे । अर्जुनने उपदेश को आत्मसात् कर लिया ।
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उपदेश केवल सुनने के लिए नहीं होता, आचरण में उतारने के लिए होता है । जो उपदेश के अनुसार आचरण नहीं करता, उसकी कैसी दुर्दशा होती है ? देखिये :
एक आदमीने बड़े मुल्ला को सलाह दी कि अमुक डॉक्टर को दिखाने से तुम्हारी तबीयत ठीक हो जायगी; क्यों कि बहुत बड़े डॉक्टर हैं ।
मुल्ला अस्पताल में गये और डॉक्टर साहब के सामने खड़े हो गये । वे उस समय, पहले आये मरीजों को देख रहे थे । बड़े मुल्ला ने एक सलाम ठोका । डाक्टर साहबने भी शिष्टाचार का उत्तर शिष्टाचारसे देनेके लिए उन्हें सलाम किया | मुल्ला तत्काल घर लौट आये । उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ ।
उस आदमी से जा कर कहा : "डाक्टर साहब ने मुझे देख लिया था; क्योंकि मेरे सलाम के उत्तर में उन्हें मेरे शरीरकी ओर देखना ही पड़ा; परन्तु उनकी नज़र मुझ पर पड़ गई, फिर भी मेरी बीमारी नहीं मिटी ।"
आदमी ने कहा : " अपना शरीर दूर से डाक्टर को दिखा कर चले आने से कुछ नहीं होता । मरीजों के साथ लाइन में खड़े हो जाओ और जब नम्बर आये, तब उनसे कहो कि मेरे शरीरकी जाँच करके कोई इलाज़ कीजिये, जिस से मैं चंगा हो सकू । "
मुल्ला ने दूसरे दिन वैसा ही किया। डाक्टर साहबने भली भांति जाँच कर के एक कागज पर नुस्खा लिख दिया और कह दिया कि इसे सँभाल कर रखना । जब दुबारा यहाँ आना हो तब इसे साथ लेकर आना ।
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मुल्ला ने नुस्खा सँभाल कर रख लिया; परन्तु उससे भी जब कोई लाभ नहीं हुआ, तब उसे साथ लेकर दुबारा डाक्टर के पास पहुँचे और बोले कि मुझे तो इससे कोई लाभ नहीं हुआ | आपके हुक्मके अनुसार यह नुस्खा मैंने तिजोरी में सँभालकर रक्खा था । उस कागजके टुकड़े में अब तक वैसी ही स्वच्छता है । न तो वह कहीं से कटा-फटा है और न मैला ही हुआ है ।
डाक्टर साहब ने कहा : नुस्खे के कागज पर लिखी दवाएं बाजार से खरीद कर खाने से बीमारी मिटेगी । केवल नुस्खे के कागज को सँभालनेसे कुछ नहीं होगा ! "
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प्रभु महावीर ही ऐसे डाक्टर हैं, जो राग-द्व ेषके रोग को मिटाने के लिए उपदेशरूपी नुस्खा देते हैं । उसे शास्त्ररूपी तिजोरी में बन्द करके रखने से नहीं; किन्तु उपदेशके अनुसार आचरण करने से हमारा रोग मिटेगा ।
श्रादमीयत और शं है इल्म है कुछ और चीज़ । कितना तोतेको पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा ॥
एक आदमीने एक तोतेको बड़े प्रेमसे पाला । सुरक्षाके लिए उसे सिखा दिया कि बिल्ली आये तो भाग जाना !
आदमी उसे पींजरे में छोड़ कर बाहर किसी कामसे चला गया । असावधानी से पींजरे का द्वार खुला रख दिया था उसने ।
कुछ देर बाद उधर से एक बिल्ली का निकली । पींजरे का द्वार खुला देख कर वह धीरे-धीरे उसकी प्रोर बढ़ने लगी । तोते ने देखा तो घबरा कर पालक का मन्त्र बोल दिया : "बिल्ली आये तो भाग जाना "
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१३१ परन्तु बिल्ली पर उस मन्त्र का कोई असर नहीं हुआ। तोतेने तब लगातार मन्त्रपाठ शुरू कर दिया : "बिल्ली आये तो भाग जाना - बिल्ली आये तो भाग जाना"
बिल्ली ने उसे पंजे में पकड़ लिया, फिर भी तोता वही मन्त्र बोलता रहा । फिर वह उसे मुह में रख कर पेट में उतार गई।
बिल्ली और तोते की इस कथा का आशय है कि मन्त्र पाठ करने के लिए नहीं, जीवन बदलने के लिए होता है। उपदेश का आचरण ही लाभप्रद होता है; केवल श्रवण और उच्चारण से कुछ नहीं होता, जीवन में गुण उतरने चाहिये।
संस्कृत में एक लोकोक्ति है:
यथा नाम तथा गुणः ।। [जैसा नाम होता है, वैसा ही उसमें गुण होता है]
प्राचीनकाल में गुणों के अनुरूप नाम रखे जाते थेशान्तिनाथ, वर्धमान, सुमतिनाथ, युधिष्ठिर, भीम, दुर्योधन, दुःशासन आदि नाम उनके गुणों के अनुरूप हैं; परन्तु आजकल ऐसा नहीं पाया जाता।
एक गाँवमें किसी युवक का विवाह हुआ । युवक का नाम था, उनठनपाल । नई दुलहन को अपने पतिदेव का यह नाम पसंद नहीं आया। पड़ोसी उसे "ठनठनपाल की औरत" कह कर पुकारते थे। उसे यह नाम बहुत भद्दा लगता था।
उसने सास-ससुर से और पतिदेव से आग्रह किया कि इस नाम को बदल दें; परन्तु किसी ने उसके निवेदन और अनुरोध पर ध्यान नहीं दिया। नाम बदलने की किसी ने अनुमति नहीं दी।
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आखिर वह अपनी न्यायोचित माँग न माने जाने के विरुद्ध घर छोड़कर चली गई। वह पीहर जाकर अपने माँबाप को यह दुखड़ा सुनाना चाहती थी। गाँव से बाहर पहुँचते ही उसने एक मुर्दे की अर्थी को श्मशान में ले जाते हुए देखकर किसी से पूछा : "कौन थे ये मरने वाले साहब ?"
उत्तर मिला : "श्रीमान् सेठ अमरचन्दजी !"
औरत आगे चली तो मार्ग में एक भिखारी मिला नाम पूछने पर उसने बताया- “धनपाल।" ।
उसे अत्यन्त आश्चर्य हो रहा था कि "अमर" भी मरता है और "धनपाल" भी भीख माँगता है ! नाम के अनुसार लोगों में गुण क्यों दिखाई नहीं देते ? ।
कुछ दूर जाने पर उसने देखा कि एक औरत सूखे गोबर के कंडे बीन - बीन कर ढेर कर रही है। हिम्मत करके उसने उसका भी नाम पूछ ही तो लिया ! उत्तर से ज्ञात हुआ कि उसका नाम लक्ष्मी कुमारी है ।
यह सब देख सुनकर वह बीच रास्ते से ही पलट कर फिर से अपने ससुराल में लौट आई।
पड़ौसियों के पूछने पर उसने घर से जाने और लौटने की घटनाका विवरण सुनाकर कहा :
अमर मरन्तो मैं सुण्यो भिखमंगो धनपाल । छाणा वीणे लच्छमी आछो ठनठनपाल ॥"
नाथूलाल नामक एक राजस्थानी कवि ने ऐसे नामोंकी एक विस्तृत सूचि.पेश की है : होरालाल नाम सो तो कंकर को करे काज
वृद्धिचन्द्र नाम पूंजी गाँठ को गमावे है
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१३३ नाम तो सन्तोषदास पल में झलक उठे
गम्भीर है नाम सो तो लोकांने लड़ावे है । शोभाचन्द नाम सो तो कुशोभा करत नित
प्यारचन्द नाम खार जग में वसावे है कहै कवि नाथूलाल नाम के हवाल सुनो
गुण और नाम साथ विरला ही पावे है ॥ कस्तूरी है नाम जामे बास नहीं हींगदू की
रूपी बाई नाम रूप काग से सवायो है नाम है जड़ाव पास नहीं है सोनारो तार
राजीबाई नाम राखे थोबड़ो चढायो है । चाँद बाई नाम सो तो काजल सू काली दीसे
स्यारणी बाई नाम जन्म राड़ में गमायो है कहै कवि नाथूलाल गुण बिना नाम सो तो
श्वान हू के अंग पै सुगन्ध हो लगायो है ॥ हिन्दी की कहावत है : "आँखों का अन्धा नाम नयनसुख !"
हमें चाहिये कि कम से कम अपने नाम का लिहाज करके उसके अनुरूप गुण तो धारण करने का प्रयास करें ही, जिस से नाथूलाल जैसे कवियों को हँसी उड़ाने का मौका न मिले।
गुण का विलोम दोष है। दोष का प्रवेश होते ही गुण गायब हो जाते हैं । यह बहुत बुरी बात है।
एक आदमी जंगल में भटक गया । उसे मार्ग दिखाने के लिए चार औरतें मिलीं।
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आदमी ने पूछा : " आप सब कौन हैं ? कहाँ रहती हैं ? परिचय देने की कृपा करें ।"
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एक बोली : "मेरा नाम बुद्धि है । मैं मनुष्य के मस्तिष्क में रहती हूँ ।"
दूसरी बोली : "मेरा नाम लज्जा है । मैं मनुष्य की आँखों में रहती हूँ ।"
तीसरी ने कहा : "मेरा नाम है हिम्मत । मैं मनुष्य के हृदय में रहती हूँ ।"
चौथी ने कहा : "मेरा नाम तन्दुरुस्ती है । मैं मनुष्य के पेट में रहती हूँ ।"
उन्होंने सड़क पर पहुँचने की दिशा बता दी । कुछ श्रागे बढ़ने पर उसे चार डाकू मिले । परिचय पूछने पर क्रमश: उन्होंने कहा -
एक
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“मैं क्रोध हूँ । मस्तिष्क में रहता हूँ ।" “मैं लोभ हूँ। आँखों में रहता हूँ तीन - “मैं भय हूँ । हृदय में रहता हूँ ।" चार “मैं रोग हूँ | पेट में रहता हूँ ।"
मनुष्य ने कहा : " लेकिन मनुष्य के मस्तिष्क आदि स्थानों में तो बुद्धि आदि का निवास है न ? "
वे बोले : “ बात सही है; परन्तु ज्यों ही हम लोगों को देखती हैं, वे सब भाग जाती हैं । हमारे सामने वे ठहर नहीं पातीं ! "
इस रूपक कथा में प्रकट किया गया है कि दोष गुणों से अधिक प्रबल होते हैं । दोष की जरा-सी भी चिनगारी गुणग्राम में आग लगाने की क्षमता रखती है ।
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१३५ एक छोटा-सा काँटा पाँवको टिकने नहीं देता, छोटासा रजकण आँख में चुभता रहता है, छोटी - सी फुसी चैन छीन लेती है, छोटा - सा छिद्र जहाज को डुबो देता है, छोटीसी मार्मिक बात भयंकर कलह का कारण बन जाती है, छोटासा मच्छर नींद उड़ा देता है, छोटी-सी दरार बड़े-बड़े बाँधों और भवनों को तोड़ देती है; ठीक उसी प्रकार एक छोटा-सा दोष सारे गुणों को नष्ट कर देता है !
लाख गुनों को दोष इक कर देता बदनाम । खाने का खोती मजा कड़वी एक बदाम ॥ विदुरनीति में लिखा हैषड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधमालस्यं दीर्घसूत्रता ॥ [इस जगत् में कल्याण चाहने वाले पुरुषको ये छह दोष छोड़ देने चाहिये : (१) नींद, (२) ऊँघ, (३) डर, (४) गुस्सा, (५) आलस और (६) देर से काम करने का स्वभाव]
लोग अधिकतर अपने गुण देखते हैं और दूसरों के दोष; किन्तु उन्हें दूसरों के गुण और अपने दोष देखने चाहिये। क्योंकि दूसरों के गुण देखने से उन्हें अपनाने की प्रेरणा मिलती है और अपने में दोष देखने से उन्हें छोड़ने की। अपना दोष बहुत कम लोग देखते हैं। वृन्द कविने लिखा है:
सब देखे, पर आपनो दोष न देखे कोय । करे उजेरो वीप पै तरे अंधेरो होय ॥
क सब वस्तुओं पर रहने वाला अंधेरा मिटाता है; परन्तु अपने नीचे का अँधेरा उसे दिखाई नहीं देता।
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यदि कोई ईमानदारी से अपने भीतर झांक कर देखे तो दोष हूँढने के लिए उसको किसी और जगह जाने की ज़रूरत ही न रहे । जैसा कि कबीर ने कहा है :
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय । जो दिल खोजा प्रापना, मुझसा बुरा न कोय ॥
सच पूछा जाय तो दूसरों में दोष देखने वाला स्वयं ही दोषी होता है। एक सुन्दर दृष्टान्त द्वारा मैं आपके सामने इस बातको प्रमाणित करना चाहूँगा -
रास्ते के एक ओर एक महात्मा ध्यान लगा कर बैठे थे । वहाँ से एक चोर गुजरा । महात्मा को देख कर बोला : “यह भी शायद कोई चोर है। रात-भर चोरी के लिए दौड़ धूप करने के बाद थक कर चूर हो जाने से अब सो रहा है । यदि पुलिस वाले आ गये तो पकड़ ले जायँगे।"
थोड़ी देर बाद एक शराबी उधर से निकला। उसने कहा : “अधिक शराब पीने से ही बेचारे की ऐसी दशा हो गई है कि सुबह तक नशा ही नहीं उतरा। यह तो अच्छा हआ कि रात को मैंने कम पी, नहीं तो मैं भी इसी की तरह कहीं सड़क पर पड़ा सो रहा होता।"
फिर एक ठग निकला। वह बोला : “ऐसा लगता है कि लोगों की आँखों में धूल झोंक कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए महात्मा का वेष पहन कर ध्यान का दिखावा करने में यह आदमी बड़ा कुशल है। वास्तव में यह कोई पहुँचा हुआ धूर्त होना चाहिये; परंन्तु लोग इसे मुश्किल से ही पहिसान पायेंगे। यह तो मैं ही हूँ कि जिसने इसकी असलियत को पहिचान लिया।"
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फिर प्रात: काल भ्रमण के लिए घर से निकला एक सज्जन वहाँ आया । उसने उन्हें देख कर कहा : " अरे ! ये तो कोई पहुँचे हुए त्यागी महात्माजी हैं । ध्यान लगाकर ये प्रभु के दर्शन का आनन्द ले रहे हैं । जब तक इनकी समाधि नहीं टूटती, मैं यहीं प्रतीक्षा करता हूँ । जब ये आँखें खोलेंगे तब इनसे मनको एकाग्र करने की विधि मैं भी सीखूंगा।"
इस प्रकार दोषदर्शन करने वाले सभी राहगीर चले गये और गुणदर्शन करने वालेने महात्मा से लाभ उठाया ।
एक दिन की बात है । श्री कृष्ण कहीं जा रहे थे । रास्ते में उन्हें एक सड़ियल कुत्ता बैठा दिखाई दिया। उसके शरीर से तेज़ बदबू निकल रही थी । साथ वाले युद्धिष्ठिर भीम, अर्जुन आदि सभी लोग रूमाल मुँह पर रख कर नाक - मौंह सिकोड़ते हुए जल्दी-जल्दी वहाँ से आगे बढ़ गये; परन्तु श्रीकृष्ण कुछ देर जानबूझकर वहीं खड़े रहे और फिर शान्ति से आगे बढ़ गये । उन्होंने कुत्ते के प्रति ज़रा भी घृणा का भाव प्रदर्शित नहीं किया ।
उनकी इस चेष्टासे चकित पांडवों ने जब इसका कारण पूछा तो श्रीकृष्ण ने गम्भीरता से उत्तर दिया : "मैं तो यह देख रहा था कि उस कुत्ते के दाँत कितने स्वच्छ, सफेद और चमकीले हैं । कितना अच्छा होता यदि मेरे दाँत भी वैसे ही चमकीले होते !"
इसे कहते हैं - गुणग्राहकता । जिसकी दृष्टि गुणों पर रहती है, उसे केवल गुण ही दिखाई देते हैं, दोषोंकी ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता ।
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१३८ ____ अमेरिकाके राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन ने युद्धसचिवके पद पर अपने एक विरोधी व्यक्तिकी नियुक्ति कर दी। अंगरक्षकोंने उन्हें याद दिलाया कि पिछले अनेक अवसरों पर उस व्यक्तिने आपकी खिल्ली उड़ाई है - आपके व्यक्तित्वको गिराया है - आपको अपमानित किया है। फिर भी क्यों आपने उसे इतना ऊँचा पद दे दिया।
लिंकन ने उत्तर में कहा.: "यदि उसको योग्यता राष्ट्र के लिए उपयोगी है तो मुझे अपने व्यक्तिगत आक्षेपों पर उपेक्षा ही करनी होगी । वह लिंकन की निन्दा कर के भी राष्ट्रपति का तो परम सम्मान ही करेगा । और ऐसे काम करेगा, जिससे जगत् में राष्ट्रको प्रशंसा हो ।”
राष्ट्रभक्तिका दावा करने वालों में लिंकन जैसी गुणग्राहकता पाई जानी चाहिये ।
___ अकबर बादशाह का एक बहत बुद्धिमान मन्त्री था - बीरबल । उसकी मृत्यु हो जाने से बीरबल का परिवार शोकमग्न हो गया था ।
परिवारको सान्त्वना देने के लिए स्वयं बादशाह बीरबल के घर गये । मन्त्री का इससे बढ़ कर और क्या सम्मान हो सकता था ?
जब बादशाह घर पर बैठ कर परिवार के बड़े सदस्यों को धीरज बंधा रहे थे, उसी समय उस घरका एक बालक बादशाहकी गोदमें आ कर बैठ गया ।
__ बादशाहने प्यारसे पूछा : "बेटे ! तुम्हारे पिताके साथ कितनी माताएँ सती हुई हैं तुम्हारी ? बताओगे ?"
बालक : "क्यों नहीं ? सुनिये । मेरी कुल चार माताएँ
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१३६
थीं। उनमें से तीन सती हो गई हैं; परन्तु एक माता परिवार का पालन-पोषण करने के लिए जीवित रह गई।"
बादशाह "इस्लाम धर्म में तो चार औरतों से विवाह करने की छूट है; परन्तु तुम्हारे हिन्दु पिताने चार शादियां कैसे की ? क्या तुम अपनी उन चारों माताओं के नाम बताओगे ?"
बालक : “जहाँपनाह ! सुनिये। मेरी जो तीन माताएँ पिताजी के साथ सती हो गई थीं, उनके नाम हैं - वीरता, उदारता और बुद्धिमत्ता; किन्तु मेरी जो चौथी माता जीवित रह गई है उसका नाम प्रतिष्ठा (नेकनामी) है।"
बादशाह इस उत्तर से बहुत-बहुत प्रसन्न हुआ और उये पाँच स्वर्णमुद्राएँ पुरस्कारमें देते हुए कहा : "हो तो आखिर तुम बीरबल के ही बेटे ! जैसा बाप बुद्धिमान् था, वैसे ही तुम भी हो । जल्दी-जल्दी बड़े हो जाओ। फिर मैं तुम्हें भी मन्त्री बना हूँगा ।"
इस दृष्टान्त से पता चलता है कि पुत्रों में पैतृक परम्परा से भी गुण आते हैं । _अन्त में एक रूपक द्वारा मैं आजका वक्तव्य समाप्त करूंगा। ___एक माली था । वह खाली टोकरी लेकर बगीचे में उगे हुए पौधोंके पास फूल तोड़ने के लिए गया ।
वहाँ कुछ देर तक चमेली, मोगरा, कनेर, गेंदा आदि के फूल तोड़-तोड़ कर अपनी टोकरी में वह डालता रहा । सहसा पास ही उसे हँसते हुए कुछ गुलाबी चेहरे दिखाई दिये । माली उनके पास जा पहुँचा । वे गुलाब के पौधे
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थे। एक गुलाब से माली ने प्रश्न किया : “क्या आप कृपया मुझे अपने हँसनेका कारण बतानेका कष्ट करेंगे ?"
गुलाब : "अवश्य ; परन्तु इससे पहले कि हम आपके प्रश्नका उत्तर दें, आपको हमारे एक प्रश्नका उत्तर देना होगा।"
माली : "अच्छी बात है । पूछिये ।"
गुलाब : "आप इस फुलवारीमें आकर फूल ही क्यों चुनते हैं ? काँटे क्यों नहीं चुनते ?"
माली : “इसलिए कि जिसके लिए ये फूल चुने जाते हैं, वह मनुष्य केवल फूलोंसे प्यार करता है, काँटोंसे नहीं।" __गुलाब : “यदि यह सच है तो फिर मनुष्य दूसरे मनुष्यों के जीवनसे काँटे (दोष) ही क्यों चुनता है ? फूल (गुण) क्यों नहीं ?"
माली इस प्रश्न से निरूत्तर हो गया और तभी उसे उन गुलाबी चेहरों के हँसनेका कारण भी समझ में आ गया। वे मनुष्य के स्वभावकी हँसी उड़ा रहे थे । ___मैं आशा करता हूँ कि मनुष्य दोषदर्शनका अपना स्वभाव बदलेगा, गुणग्राहकता को अपनायेगा और गुलाब के फूलों की तरह सर्वत्र अपने सद्गुणों की सुगन्धको फैलाता रहेगा, जिससे भौंरों की तरह मित्र उसकी ओर आकर्षित हों । ★
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९. गौरव
गुरुताका भाव गौरव है, जो एक अच्छा गुण है । उर्दू का एक शेर है :
राहे खुद्दारी में मर कर भी भटक सकते नहीं । टूट तो सकते हैं हम, लेकिन लचक सकते नहीं ॥
गौरव को ही उर्दू में खुद्दारी कहते हैं। इसमें व्यक्ति को अपने उचित सम्मान को सुरक्षित रखने का ध्यान रहता है। यह ध्यान ही है, जो उसे कुमार्ग पर जाने से रोकता है ।
इसी गौरव के लिए लोग दान और त्याग करते हैं; क्योंकि :
गौरवं प्राप्यते दानान्न तु वित्तस्य सञ्चयात् ।
स्थितिरुच्चैः पयोदानाम् पयोधिनामधः स्थिति: ॥ [दान से ही गौरव प्राप्त होता है, धन के संग्रह से नहीं। बादल (पानी बरसाते हैं, इसो कारण) ऊँचे स्थान (आकाश) में हैं और समुद्रोंकी (पानी लेने और संग्रह करने के कारण) स्थिति नीचे है]
यहाँ गौरव का अर्थ यश है । यश भी दो प्रकार का होता है - सुयश और कूयश । राम को सुयश प्राप्त हा और रावण को कुयश । सुयश को ही गौरव कह सकते हैं, कुयश को नहीं ।
धन पाने के लिए धनवान् की, बुद्धि पाने के लिए बुद्धिमान की, बल पाने के लिए पहलवान की और विद्या पाने के लिए जैसे विद्वान की संगति की जाती है, वैसे ही
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१४२
गौरव पाने के लिए व्यक्ति को गौरवशाली (महान्) पुरुष की संगति में रहना पड़ता है-रहना चाहिये भी । जलबिन्दुओंको बादल से नीचे आते देख कर भरने को दौड़ते देख कर और नदियों को बहते देख कर जब इन से गन्तव्य पूछा गया तो सबने एक ही उत्तर दिया समुद्र । समुद्र जलनिधि है-महान् है; इसलिए ये सब उसकी संगति चाहते हैं ।
हाथी गौरवशाली है; परन्तु उसमें घमंड नहीं है । मक्खी हाथीकी पीठ पर बैठ कर यह सोचती है कि मैं इससे बड़ी हूँ तो यह उसका घमण्ड है ।
यह हो सकता है कि भ्रम से कभी गौरवशाली को घमण्डी मान लिया जाय और घमण्डी को गौरवशाली | इस भ्रम से बचने के लिए दोनों का सूक्ष्म अन्तर अच्छी तरह समझ लेना जरूरी है ।
गौरवशाली समझता है कि "मैं किसी से कम नहीं हूँ", किन्तु घमण्डी समझता है "मुझसे बढ़कर कोई नहीं हैमैं ही सब से बड़ा हूँ ।"
गौरवशाली किसी को हानि पहुँचाये बिना अपनी उन्नति करता है और घमण्डी दूसरों की हानि करके भी अपना नाम आगे लाना चाहता है । अपने में योग्यता न होने पर मी यश लूटना चाहता है । यही दोनों में मुख्य अन्तर है । जो व्यक्ति अपने कर्त्तव्य के प्रति उपेक्षा रखते हैं, वे अपने गौरव की रक्षा नहीं कर सकते । सारे जैन आगम अर्धमागधी भाषा में लिखे गये हैं; परन्तु अपनी इस भाषा के प्रचारके लिए आपने क्या किया हैं ? कितने जैन श्रावक या साधु ऐसे हैं, जो अर्धमागधी भाषा में बातचीत कर सकते हैं ?
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१४३ पश्चिम जर्मनी से एक विद्वान् यहाँ आये थे - डॉ०रोझ । भगवती सूत्र का अनुवाद कर रहे थे । कुछ शंकाओं का समाधान कराने के लिए आये थे । पन्द्रह दिन तक मेरे सान्निध्य में रहे । वे संस्कृत में ही बोलते थे। बड़े प्रामाणिक विद्वान थे । बहुत सन्तुष्ट हो कर गये; परन्तु जाते जाते मेरे मुह पर एक तमाचा मार गये । कह गये कि आगम की भाषाके जानकार यदि इसी प्रकार घटते रहे तो एक दिन ऐसा पायगा, जब भारत वासियों को अर्धमागधी सीखने के लिए पश्चिम जर्मनी प्राना पड़ेगा !
___मैं निरुत्तर हो गया । क्या कहता ? जो स्थिति आज जैन समाजकी है, उससे इन्कार कैसे करता ?
कुछ वर्ष पहले रेवती के दान के प्रसंग को लेकर किसी विद्वान् ने प्रभु महावीर पर माँसाहारी होने का आरोप लगाया था; परन्तु उससे जैनसमाज में कोई विशेष हलचल नहीं हुई । वह प्रसंग भगवती सूत्र में वर्णित है ।
"कपोत" शब्द के दो अर्थ होते हैं-कबूतर और कदू । वहां दूसरे अर्थ में ही उसका उपयोग हुआ है; परन्तु उस विद्वान् ने भ्रमसे पहला अर्थ ही समझ लिया। प्रभु का गौरव हमारा गौरव है । यदि कोई मूर्खतावश कीचड़ उछाले तो उसे पागल या बीमार समझकर हम उपेक्षा भी कर सकते हैं; परन्तु यदि किसी विद्वान् को भ्रम हो जाय तो उसके भ्रमको हर हालत में दूर करना हमारा कर्तव्य है, अन्यथा वह हजारों व्यक्तियों को भ्रान्ति का शिकार बना देगा। यदि जेनेतर विद्वानों के ऐसे भ्रमको मिटाने के कर्तव्य का हम पालन नहीं करें तो अपने गौरव को बचा नहीं सकते।
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पेट के लिए भी मनुष्य गौरव को नष्ट करता है । एक कवि ने लिखा है :
इयमुदरदरीदुरन्तपूरा
यदि न भवेवभिमानभङ्गभूमिः क्षणमपि न सहे. भवाहशानाम् कुटिलकटाक्षनिरीक्षणं नृपाणाम् ॥
--- भतृहरिः [अत्यन्त कठिनाई से भरी जाने वाली तथा अभिमान (गौरव) को नष्ट करने वाली यह पेट रूपी गुफा अगर न होती तो में माप जैसे राजाओं के कुटिल कटाक्ष के अवलोकन को क्षणमात्र भी नहीं सहता]
हिन्दी के कवि रहीम ने भी पेट की इस विचित्रता का अनुभव किया था। यह भूखा हो तो गौरव नष्ट करता ही है, परन्तु भरा हो तो भी दृष्टि बिगाड़ देता है। जिसका पेट भरा हो, वह समझता है कि सबका पेट भरा है। इस प्रकार भूखों के प्रति सहानुभूति, दया और सहायता के भाव को उत्पन्न नहीं होने देता। यह देखकर पेटसे उन्होंने कहा कि तू पीठ क्यों नही हो गया ? उनके शब्द यह हैं :
रहिमन भाखत पेट सों क्यों न भयो तू पीठ ? भूखे मान डिगा वही भरे बिगारत दीठ ! गौरव को बचाने में वही सफल होता है, जो स्वार्थी न हो।
ईसाइयों के धर्मगुरु पोप दस-दस पौंड दान में लेकर सबको स्वर्ग का पासपोर्ट दे रहे थे।
एक चालाक आदमी भी वहाँ पहुँचा । उसने दस पौंड देकर अपने लिए एक पासपोर्ट ले लिया।
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१४५ अपने एकत्र धनको एक स्पेशल कार में लाद कर पोप जब किसी सुरक्षित स्थान पर ले जा रहे थे, तभी मार्ग में वह आदमी पिस्तौल लेकर खड़ा हो गया । और उसने सारा धन लूट लिया।
पोप चिल्लाये भी थे : "अरे! पापी मैं तुझे शाप दूंगा तो तू नरक में जायगा।"
परन्तु उस आदमी ने कहा :- “मैं तो आपसे स्वर्ग का पासपोर्ट पहले ही प्राप्त कर चुका है। इस समय तो मैं धर्मके नाम पर दुनिया को लूटने वाले डाकू को लूटने का पवित्र कार्य कर रहा हुँ !"
स्वार्थियों का गौरव इसी प्रकार नष्ट होता है, जैसे पोप का हुआ !
मेरा विहार चल रहा था। रास्ते में किसी जगह लोहे की फैक्ट्री में ठहरने का मौका आया। वहाँ एक जगह बहुत - से हथौड़े पड़े हुए थे। मैंने उन्हें देखकर मैनेजर से पूछा : “क्या इस कारखाने में हथौड़े बनाये जाते हैं ?".
मैनेजर : "नहीं महाराज ! ये तो वे हथौड़े हैं, जो बेकार होने से एक ओर डाल दिये जाते हैं। लोहा ज़ब गर्म किया जाता है, तब उसे ऐरण पर रख कर हथौडे से पीट-पीट कर पतला करते हैं। जब बार-बार काम में आने से हथौड़ा खराब हो जाता है, तब उसे फेंक कर उसके स्थान पर दूसरा हथौड़ा काम में लाया जाता है।"
मैंने फिर पूछा : “यदि हथौड़े इतनी बड़ी संख्या में खराब हुए तो कुछ ऐरण भी खराब हुए होंगे न ?"
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१४६
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मैनेजर : "नहीं महाराज ! ऐरण तो वर्षों से एक ही काम में आ रहा है ।"
विचार करने पर इससे दो निष्कर्ष सामने आते हैं । ऐरण की तरह जो सहिष्णु होता है, वह सिद्ध बनता है - उसका गौरव सुरक्षित रहता है । दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि हथौड़े की तरह दूसरों के हाथों में पड़कर जो प्रहार करते हैं, वे एक दिन फेंक दिये जाते हैं उनका गौरव नष्ट हो जाता है ।
-
मेवाड़ का एक चारण पेट की आग को शान्त करने के लिए बादशाह अकबर के दरबार में पहुँचा । वहाँ बादशाह को सलाम करने से पहले उसने अपने मस्तक से पगड़ी उतार कर बगल में दबा ली ।
अकबर ने ऐसा करते हुए उसे देख लिया। पूछा : "क्या आप नहीं समझते कि सलाम करने से पहले पगड़ी उतार कर आपने कितना बड़ा गुनाह किया है ?"
चारण : " समझता हूँ साहब ! लेकिन आदत से मज़बूर हूँ । यह पगड़ी महाराणा प्रताप की दी हुई है । जब वे भारी तकलीफें सह कर भी आपके सामने नहीं झुके तो उनकी दी हुई यह पगड़ी भला कैसे झुक सकती है ? हमारा सिर हमारे पेट का गुलाम है । जहाँ रोटी का टुकड़ा मिलता है, वहीं झुक जाता है ।"
यह सुनकर बादशाह इस बात से चकित हो गये कि एक साधारण चारण भी जिसके गौरव की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखता है, वह महाराणा कितना महान् है !
महामना मदनमोहन मालवीय " बनारस हिन्दु यूनिव
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१४७ सिटी" की स्थापना के लिए चन्दा एकत्र कर रहे थे। उसी सिलसिले में एक दिन वे रामपुर के नवाब साहब के पास भी जा पहुंचे।
नवाब उस समय नशे में थे। मालवीयजी ने अपना परिचय देकर नवाब से निवेदन किया :- "वड़ी आशा के साथ आया हूँ। बनारस हिन्दु यूनिवर्सिटी के लिए कुछ आप भी चंदा देने की कृपा करें।"
नवाब ने गुस्से में कहाँ :- “क्या बोला ?...हिन्दू...हिन्दू यूनिवर्सिटी के लिए हम चंदा दें ?...हट जाओ सामने से नहीं तो जूता मार देंगे !" ।
मालवीयजी शान्ति से खड़े रहे। नवाबने एक पाँव से जूता खोलकर सचमुच उन पर फेंक दिया ! कितना अपमान हुमा? परन्तु वे चन्दा अपने लिए तो माँग नहीं रहे थे कि उस अपमान से शर्मिन्दा होते :
मर जाऊँ माँगू नहीं, अपने तन के काज । परमारथ के कारणे मोहि न प्रावे लाज ॥
कुछ इस दोहे जैसे ही भाव उनके मन में उठ रहे थे । आखिर नवाब का फेंका हुआ वह जूता ही उठा कर चल दिये। बाजार में आये। वहाँ एक चौराहे पर खडे होकर बादशाह का वह जूता नीलाम करने लगे। बोली लगने लगी।
किसी सी०आई०डी० ने नवाब को खबर दे दी कि आपका जूता नीलाम किया जा रहा है। उससे आपकी इज्जत मिट्टी में मिल जायगी। नवाबने वज़ीर से सलाह लेकर अपने भण्डारी को घटना स्थल पर भेज दिया और कह दिया कि सबसे ऊँची बोली लगाकर वह जूता ले आयो।
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१४८
भण्डारी गया और अपने नवाबके गौरव की रक्षा के लिए उस जूते को नीलामी में सबसे ऊँची बोली लगाकर आखिर इक्कावन हजार में खरीद लिया।
एक जगह एक फकीर किसी बादशाह के पास दौलत माँगने गया । उस दौलत से वह गरीबों की बस्ती में एक स्कूल के लिए भवन बनवाना चाहता था। बादशाह उस समय इबादत कर रहे थे और खुदा से अपने लिए दौलत माँग रहे थे। __यह देखकर फकीर लौटने लगा। बादशाह ने कहां : "आप बिना कुछ लिये ही लौट क्यों रहे हैं ?"
फकीर ने कहा : "मैं तो आपको बादशाह समझ कर आया था !"
बादशाह : "आप ठीक जगह पर आये हैं। मैं बादशाह ही हूँ। आइये।"
फकीर : "नहीं; आप तो मेरे ही जैसे भिखारी हैं। बादशाह वह होता. है, जो किसी से कभी कुछ नहीं माँगता । आप तो अल्लाह से अभी खुद दौलत माँग रहे थे। यदि आप अल्लाह से माँग सकते हैं तो क्या मैं उनसे नहीं माँग सकता ? मैं भिखारी का भिखारी क्यों बनू ?"
ऐसा कहकर फकीर वहाँ से चला गया। माँगने से मनुष्य का गौरव समाप्त हो जाता है।
तृणं लघु तरणातूलम् तूलादपि च याचकः ।
वायुना किन मोतोऽसौ याचयिष्यति मामपि ॥ [तिनका हलका होता है, तिनके से रूई हल्की होती है और रूई से भी हल्का याचक होता है। फिर भी हवा उस (याचक)
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१४६ को उड़ा कर नहीं ले जाती ! क्यों ? इस डरसे कि यह कहीं मुझसे भी कुछ माँग न बैठे ! ऐसी आशंका रहती है उसे]
याचक से कौए को अच्छा बताते हुए कहा गया है : काक आह्वयते काकान याचको न तु याचकम् ।
काकयाचकयोमध्ये वरं काको न याचकः ।। [कौआ (अकेला कुछ नहीं खाता । वह काँव-काव करके दूसरे) कौओं को बुलाता है, परन्तु भिखारी दूसरे भिखारीयों को नहीं बुलाता। इस से सिद्ध होता है कि भिखारियों से कौमा श्रेष्ठ होता है]
___ याचकों का मन याचना से पहले किस प्रकार आन्दोलित होता है ? इसका वर्णन करते हुए कहा गया है :
पुरत: प्रेरयत्याशा लज्जा पृष्ठावलम्बिनी ।
ततो लज्जाशयोर्मध्ये दोलायत्यर्थिनां मनः ॥ [आशा कहती है-"आगे बढ़ो" और लज्जा कहती है-"पीछे हटो।" इस प्रकार लज्जा और आशा के बीच याचकों का मन झूलता रहता है]
__एक धनवान् से मिलने के लिए उसका कोई मित्र उसके घर आया। कुशल प्रश्न के बाद उसने पुछा : "आपका दाहिना हाथ अधिक महत्त्वपर्ण है। हर काम में पहले वही उठता है-चाहे लेखन हो या दान, सफाई हो या स्नान, फिर भी क्या कारण है कि आपने सोनेकी यह रत्नजटित अंगूठी दाहिने हाथ की उँगली को न पहिना कर बाएँ हाथ की उँगली को पहनाई है ?"
धनवान् ने उत्तर दिया : "मित्रवर ! दाहिना हाथ बड़ा है, इसीलिए तो उसने स्वयं अँगूठी न पहिन कर छोटे को
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१५०
पहनाई है । छोटे हाथने भी इसी नियम का अनुसरण करते हुए बड़ी उँगली और अँगूठे को छोड़कर छोटी उँगली को अँगूठी पहनाई है | जो छोटे का ध्यान रखता है, वही बड़ा है । बड़ों का बडप्पन छोटे के अस्तित्व पर ही निर्भर है, इसीलिए बड़े छोटों को देते हैं । "
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इस रूपक कथा का सन्देश यह है कि लेने वाला छोटा होता है— गौरवहीन होता है ।
एक बार बादशाह सिकन्दर किसी भारतीय साधु के पास गया । साधु परमात्मा के और अपने गुरु के अतिरिक्त और किसी के सामने नहीं झुकते ।
जब साधु, सिकन्दर के समीप आ जाने पर भी, खड़ा नहीं हुआ, बैठा ही रहा, तब उसने सोचा कि यह साधु शायद मुझे जानता नहीं होगा । उसने कड़क कर पूछा : "क्यों रे साधुड़े ! तू जानता है कि मैं कौन हूँ ?"
साधुने कहा : "आपको कौन नहीं जानता ? आप तो मेरे गुलामों के भी गुलाम हैं !
ܕܐ
चौंक कर सिकन्दर ने कहा : "अबे ! क्या बकता है तू ?" साधु : "मैं ठीक ही कह रहा हूँ । आप इन्द्रियों के गुलाम हैं और इन्द्रियाँ मेरी गुलाम है, इस प्रकार आप मेरे गुलामों के गुलाम हैं ।"
सिकन्दर निरुत्तर हो गया । फिर भी उसने कहा : "मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? "
साधु : " सेवा करना चाहते हो तो मेरे सामने से हट जाओ, जिससे सूरज की किरणें मेरे शरीर तक पहुँच सकें । "
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१५१
अमेरिका में एक पादरी ने बाइबिल सबसे ऊपर, गीता सबसे नीचे और बीच में सारे धर्मग्रन्थ ( अन्य धर्मों के शास्त्र ) रख दिये । फिर उस जगह स्वामी विवेकानन्द को ले जाकर कहा : "देखिये, यहाँ सारे धर्मग्रन्थों के ऊपर बाइबिल है और आपकी गीता सबसे नीचे !"
स्वामीजी उसका आशय समझ गये । उन्हो ने उत्तर में कहा : "गुड फाउंडेशन | आधार मजबूत है । गीता को आपने ठीक स्थान पर रक्खा है । उसे वहाँ से हटाइयेगा नहीं ।"
इस प्रकार अपनी प्रत्युत्पन्नमति से उन्हों ने गीता के गौरव की रक्षा की ।
दक्षिण भारत में श्रीधर नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहता था । उसके चार पुत्र थे । बड़े का नाम केशव था । मन्दबुद्धि होने से तथा आलसी होने के कारण वह पर्याप्त अध्ययन नहीं कर सका । चारों पुत्र जब जवान हो गये तो श्रीधर ने उनके अनुकूल कन्याओं से उनका विवाह कर दिया । घर में सारा परिवार संस्कृत में ही बातचीत करता था ।
एक दिन चारों भाई भोजन कर रहे थे । केशव की पत्नी परोस रही थी और शेष तीन पत्नियाँ भोजन बना रही थी ।
भोजन समाप्त करने से पहले केशव को कुछ दही खाने की इच्छा हुई । उसने कहा : "दधिमानय" ( दधिम् + आनय दही लाओ )
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यह सुनकर सब भाई हँस पड़े, क्योंकि उसने "दधिम् " इस अशुद्ध पद का प्रयोग किया था । नपुंसकलिंगी होने से द्वितीया के एकवचन में भी "दधि" रूप ही बनता है, इस
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१५२ लिए सन्धि करके बोलना तब शुद्ध होता, जब कहा जाता "दध्यानय ।"
__ केशव की पत्नी इस बात से खिन्न हो गई। उसने सोचा कि मेरे पतिदेव की हँसी मेरी हँसी है। मुझे किसी भी तरह से अपने पतिदेव के गौरव की रक्षा करनी चाहिये ।
वह बोली : "आप व्यर्थ हँस रहे हैं। मेरे पतिने कहा है-दधि मानय [दधि मा + आनय] अर्थात् दही मत लाओ। छाछ लाओ-ऐसा उसका आशय था। क्या अशुद्धि है भला इस में ?''
यह कह कर उसने केशव की थाली में छाछ परोस दी। सब चकित हो गये। अपनी प्रतिभा के बल पर केशव की पत्नी ने सबको मूर्ख साबित करके अपने पति के गौरव की रक्षा की।
केशव मन-ही-मन लज्जित हुमा । दूसरे दिन गुरुजी के आश्रम में जा कर उसने मन लगाकर विद्या का अध्ययन किया और एक अच्छे कवि के रूप में ख्याति प्राप्त की।
एक इत्र का व्यापारी था। अनेक प्रकार के इत्र लेकर महाराणा से मिलने पाया। उदयपुर के राजमहल में पहुँच कर उसने सब इत्रों के नमूने बताये, परन्तु भाव अधिक लगने से एक भी इत्र महाराणा ने नहीं खरीदा।
वह उदास होकर दिल्ली जा रहा था कि सामने से शिकार खेल कर अनोखा कुवर आ रहे थे।
इत्र विक्रेता से बातचीत करके तत्काल उन्होंने सारा इत्र खरीद कर उसके सामने ही अपने घोड़े के शरीर से चुपड़ दिया। इत्र विक्रेता चला गया।
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यह समाचार सुनते ही महाराणा को बहुत क्रोध आया। उन्होंने अनोखा कुवर को अपने सामने बुला कर पूछा : "जो चीज हम नहीं खरीद सके उसे खरीद कर तुमने मारा अपमान क्यों किया?"
अनोखा कुवर ने जबाव दिया : “महाराणाजी ! मैंने आपका अपमान करने के लिए इत्र नहीं खरीदा; किन्तु मेवाड़ के और आपके गौरव की रक्षा के लिए खरीदा है । यदि मैं ऐसा न करता तो इत्र विक्रेता दिल्ली जाकर बादशाह के सामने यही कहता कि मेवाड़ के महाराणा बहुत कंजूस हैं। मैं इतनी दूरी से बड़ी पाशा लेकर उनके राजमहल में गया; परन्तु वे एक बूंद भी नहीं खरीद सके ! अब मैंने उसका मुह बन्द कर दिया है। यदि वह दिल्ली गया भी तो कहेगा कि महाराणा के एक मामूली सेवक ने सारा इत्र खरीद कर अपने घोड़े को चुपड़ दिया था और आप तो एक शीशी ही ले रहे है !"
यह सुनकर महाराणा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने दण्डित करने के स्थान पर वेतन बढ़ाकर उसे पुरस्कृत किया।
। एक दिन वैसा ही एक इत्र विक्रेता दिल्ली-दरबार में गया। वहाँ अकबर बादशाह को उसने सब तरह का इत्र खोल-खोलकर दिखाया। एक-दो शीशियाँ उन्होंने खरीद भी ली। इत्रवाला अपनी शीशियों की पेटी उठाकर चला गया।
इधर बादशाह ने देखा कि फर्श पर इत्र की एक बूंद पड़ी है। उन्होंने उसे उठाकर अपनी मूछों पर लगा लिया; किन्तु जब वे बद उँगली पर लगा रहे थे, ठीक उसी समय अकस्मात् बीरबल वहाँ आ गये। उन्होंने फर्श पर से
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बूंद उठा कर मूछ पर लगाते हुए बादशाह को देख लिया था । बादशाह को भी यह मालम हो गया कि बीरबल ने मुझे देख लिया है। इससे वे बहुत शर्मिन्दा हुए।
अपनी शर्म को मिटाने के लिए उन्होंने खजांची से सारे देश में पत्र लिखवा कर सूचना करवा दी कि बादशाह इत्र के बहुत शौकिन हैं। जिन्हें भी इत्र बेचना हो, वे दिल्ली दरबार में अमुक दिन अपना माल लेकर हाजिर हो जायँ ।
खबर पाते ही दूर-दूर से इत्र-विक्रेता झुण्ड के झुण्ड दिल्ली दरबार में चले आये। खजांची ने मुह माँगे दाम से सारा इत्र खरीद लिया। फिर बादशाह ने स्नान करने का जो हौज था, उसका पानी बहार निकलवा कर सारा इत्र उसमें डलवा दिया हौज इसे पूरा भर गया।
फिर लँगोटी बाँधकर बादशाह उसमें तैरने लगे और बीरबल से बोले : "देखो तो इस इत्र में तैरने का मुझे कितना मजा आ रहा है ?"
बीरबल ने कहा : “जहाँपनाह ! गुस्ताखी मुआफ हो तो एक बात अर्ज करूं।"
बादशाह : “कहिये; आज तो मैं बहुत खुश हूँ। सब कुछ सुन सकता हूँ; क्योंकि इत्र में पहली बार तैरने का मजा ले रहा हूँ।"
बीरबल : “जहाँपनाह ! जो इज्जत बूंद से गई वह हौज़ से भी नहीं आ सकती। अर्थात् आपका जो गौरव बूदने नष्ट कर दिया वह अब हौज़ से भी पुनःप्राप्त नहीं हो सकता!"
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१५१
हिन्दी में एक कहावत है : "धमण्डी का सिर नीचा" अर्थात् घमण्डी को गौरव नहीं मिलता। अन्त में उसे लज्जित होना पड़ता है । इस विषय में एक उदाहरण सुनाकर मैं आज का अपना वक्तव्य समाप्त करूँगा ।
एक घर में सास-बहू की खटपट चलती रहती थी । एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता था, जिस दिन उन दोनों में बोलाचाली न हुई हो ।
झगड़ने के बाद रूठ कर सास बहू पर बकझक करती हुई घर से बहार निकल कर बैठ जाती थी ।
भोजन के तैयार हो जाने पर बहू सास को मना कर घर में ले जाती और उन्हें खिला कर खाती ।
इसके द्वारा सास मुहल्ले वालों पर यह प्रभाव जमाना चाहती थी कि घर में मेरी कितनी ईज्ज़त की जाती है । बहू यह सब समझती थी ।
एक दिन पतिदेव व्यापार के सिलसिले में किसी दूसरे शहर में गये हुए थे । सास अपनी आदत के अनुसार कर बाहर जा बैठी ।
रसोई बन गई; किन्तु सास को सबक सिखाने के लिए उस दिन बहू बाहर नहीं निकली । जान-बूझ कर उसने ऐसा किया था । खा-पीकर वह घर के दूसरे कामों में लग गई ।
उधर सास के पेट में चूहे दौड़ने लगे । वह बार-बार झाँक कर घर के भीतर देखती रही; परन्तु बहू मनाने के लिए बाहर नहीं निकली, सो नहीं निकली।
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सास सुबह से शाम तक बैठी रही। शाम को भी भोजन का समय हो गया, फिर भी बहू मनाने नहीं आई। मुहल्ले वाले भी उसके बाहर बैठने का कारण पूछ - पूछ कर उसे लज्जित करने लगे। आखिर भूख और लज्जा के कारण सास को बाहर बैठे रहना असह्य हो गया। वह सोच रही थी कि एक बार किसी तरह मैं घर के भीतर पहँच जाऊँ तो काफी है। फिर भोजन तो मैं स्वयं अपनी थाली में रखकर खा लगी।
उसी समय चरने के लिए गई भैंस घर में लौट कर आई । बुढिया ने उसकी पूछ पकड़ ली और चिल्लाई "रहने दे रहने दे भैस ! तू मुझे जबर्दस्ती अन्दर क्यों ले जा रही है ?" ऐसा कहते कहते वह भैंस के साथ घिसटती हुई घर में प्रविष्ट हुई । घमण्ड ने ही उसके गौरव को मिट्टी में मिला दिया।
किसी अंग्रेज को आपने धोती - कुरते में नहीं देखा होगा; परन्तु उनकी पोशाक यहाँ खूब चल रही ! ईसा को क्रॉस पर लटकाया गया था। उसकी स्मृति में वे टाई बाँधते हैं; परन्तु आपके कौन - से तीर्थंकर या अवतार को फाँसी लगी ? बिना सोचे नकल करने से गौरव नष्ट होता है। गौरवशाली ही सच्चे मित्र पा सकता है, दीन - हीन नहीं।
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१०. चतुराई
यह एक ऐसा गुण है, जिसकी इस दुनिया में कदम-कदम पर ज़रूरत होती है। बुद्धि तो प्रायः सबमें होती है, परन्तु उसका ठीक समय पर ठीक तरह से प्रयोग करना चतुराई है :
श्रवण नयन अरु नासिका, हैं सबके इक ठौर । कहिवो सुनिवो समुझिवो चतुरन को कछु और ॥
एक महात्मा से पूछा गया कि आपने सारे सद्गुण किनसे सीखे हैं तो बोले : "मूोंसे ! क्योंकि जैसा वे करते हैं, वैसा मैं नहीं करता।"
सचमुच बुद्धिमान् मूों से जितना सीख सकते हैं, उतना मूर्ख बुद्धिमानों से नहीं सीख पाते !
किसी अपराध में बड़े मुल्ला पकड़ें गये । जज ने पूछा : "आपने ऐसा अपराध क्यों किया ?
मुल्लाने कहा : "आपके लिए, अन्यथा आप, आपका स्टाफ, पुलिस आदि सब बेकार न हो जाते ? पहले ही भारत में कितने करोंड़ व्यक्ति बेकार हैं ? मैं आप सबको बेकार बनाकर उनकी संख्या में वृद्धि नहीं करना चाहता था !"
इसी प्रकार एक जज से बड़े मुल्ला ने कहा : "पड़ोस की मुर्गी मेरे घर में आ गई है। इसे आप रख लीजिये।"
जज : "मैं क्यों रखू ? यह मुर्गी उसके मालिक को लौटा दीजिये।"
मुल्ला : "लेकिन जो मुर्गी का मालिक है, वह तो इसे लेने को तैयार ही नहीं है।"
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१५८
जज : "तो इसे रख लीजिये अपने ही पास।"
मुल्ला : “धन्यवाद । मह मुर्गी आपकी ही थी। मैंने बापके पड़ोस में ही मकान किराये पर लिया है।"
जज मुल्ला का मुंह ताकता रह गया ।
एक वकील से मुल्ला ने कहा कि किसी की गाय मेरे खेत से दस रुपये के गेहूँ खा गई है, क्या करूँ।
वकील : "गाय के मालिक से दस रुपये माँग लो और यदि वह न दे तो कोर्ट में दावा कर दो।"
मुल्ला : "तो दीजिये दस रुपये आप मुझे, क्योंकि वह गाय आप ही की थी ?"
वकील ने बटुए से दसका नोट निकाल कर मुल्ला को दे दिया और सलाह की फीस के रूप में उससे वापिस तत्काल ले भी लिया !
इन तीनों उदाहरणों में चतुराई तो है, परन्तु उसका दुरुपयोग किया गया है। अब कुछ सदुपयोग के उदाहरण सुने :
- आद्य शंकराचार्य स्नान करके अपने आश्रम को लौट रहे थे कि मार्ग में एक भंगी से स्पर्श हो गया। वे क्रुद्ध होकर बोले : “यह क्या किया ? मेरे सद्यःस्नात शरीर को छूकर अपवित्र कर दिया ! अब मुझे दुबारा नहाने जाना पड़ेगा।"
भंगी : "आप सदा इस वाक्य को प्रमाणित करते रहते हैं
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्म व नापरः ॥ [ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है, दूसरा नहीं]
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यदि ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ मिथ्या है तो आप भी मिथ्या हैं ओर मैं भी मिथ्या हूँ । यदि मिथ्या ने मिथ्या का स्पर्श कर लिया तो वह भी मिथ्या ही होगा । उस पर इतना क्रोध क्यों ?
जो ब्रह्म आपके शरीर में है, वही ब्रह्म मेरे शरीर में भी मौजूद है । ब्रह्म सबका पवित्र है और शरीर सबका अपवित्र है । ब्रह्म अपवित्र नहीं हो सकता, वैसे ही शरीर भी पवित्र बिल्कुल नहीं हो सकता, चाहे वह दिनरात गंगा में डूबा रहे ।
अब आप ही शान्त चित्त से सोचिये कि एक पवित्र ब्रह्म ने अपने अपवित्र शरीर से यदि दूसरे पवित्र ब्रह्म के अपवित्र शरीर को छू लिया तो कौनसा बड़ा पहाड़ टूट गया कि जिससे किसी को दुबारा नहाने जाना पड़े ? "
शंकराचार्य - जिन्हों ने संस्कृत में वादविवाद ( शास्त्रार्थ ) करके बड़े-बड़े पण्डितों के छक्के छुड़ा दिये थे ! — उस भंगी के सामने निरुत्तर हो गये । उन्होंने सत्य को तत्काल स्वीकार करने का साहस दिखाते हुए कहा : "मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिये । मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मेरी आँखें खोल दीं । अब मैं दुबारा नहाने न जाकर अपने आश्रम ही लौटू गा.'
1
एक जगह नौ सेना में भरती के लिए इंटरव्यू चल रहा था । एक युवक से पूछा गया : “यदि समुद्र में तूफान आ गया तो क्या करोगे ?"
युवक : " तो लंगर डाल दूँगा ।"
प्रश्न : "यदि फिर तूफान आगया तो ? " युवक : "फिर लंगर डाल दूँगा ।"
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१६०
प्रश्न : “और फिर से आया तो?" युवक : "तो फिर से डाल दूंगा !" प्रश्न : "लेकिन इतने लंगर कहाँ से आयेंगे ?" युवक : “तो फिर इतने तूफान भी कहाँ से आयँगे?"
इस उत्तर से प्रसन्न होकर उसे तत्काल नौ सेना में भरती कर लिया गया। यही युवक आगे चलकर लार्ड माउन्टबेटन के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ऐसा ही एक बार एक जैनमुनि से किसी ने पूछा : "यदि सारी दुनिया के स्त्री-पुरुष जैनधर्म के अनुसार दीक्षा लेकर श्रमण - श्रमणी बन जायँ तो फिर भोजन कौन बनायगा? और कोई भोजन नहीं बनायगा तो खायेंगे
क्या?"
उस समय एक जैन पण्डित मुनिराज के पास ही बैठे थे। वे बोले : "जिस दिन सब लोग जैनदीक्षा लेकर साधुसाध्वी बन जायँगे, उस दिन पत्थर भी लड्डू बन जायँगे और सारी शिलाएँ रोटियाँ बन जायँगी !"
प्रश्नकर्ता : “वाह ! ऐसा कैसे हो सकता है ?"
पण्डित : "तो ऐसा भी कैसे हो सकता है कि सब प्रव्रज्या ले लें?"
सब हँस पड़े। बात खत्म हो गई।
एक सड़क से कोई जैनमुनि जा रहे थे। उन्हें सुनाकर एक द्वषी ब्राह्मण पंडित ने अपने शिष्यों से कहा : "जो इन जैनमुनियों को देखता है, वह नरक में जाता है !"
__ मुनि ने मुस्कराकर पूछा : "और जो आपके दर्शन करता है, वह कहाँ जाता है ?"
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पंडित : "वह स्वर्ग में जाता है !''
मुनि : "तब तो आपके ही कथन के अनुसार मैं स्वर्ग में जाऊँगा और आप कहाँ जायँगे ? आप ही सोचें ।”
ऐसे ही एक दूसरे द्वषी पंडितने अपने शिष्य से कुछ दूरी से गुजर रहे जैन मुनि की ओर संकेत करके कहा : "इन साधुनों को देखने से पाप लगता है; क्योंकि ये कभी नहाते तक नहीं !"
मुनि ने निकट पहुँच कर धीरे से कहा : "भाई ! गाय कभी नहीं नहाती और भैंस पानी में ही पड़ी रहती है; परन्तु आप दोनों में से पूज्य किसे मानते हैं ? मन की स्वच्छता ही किसी को उत्तम बनाती है, शरीर की स्वच्छता नहीं।"
महाराणा भीमसिंहजी की श्रद्धा वैष्णव धर्म पर थी। उनके भंडारी केसरजी जैन धर्मावलम्बी थे।
एक दिन भरी सभा में उन्होंने पूछा : "केसरजी ! जैनों के देव बड़े होते हैं या वैष्णवों के ?"
चतुर केसरजी ने उत्तर दिया : “हुजूर ! मैं खड़ा हूँ और आप बैठे हैं।"
इसका आशय यह था कि वैष्णवों के देव खड़े रहते हैं मेरी तरह और जैनों के तीर्थकर बैठे रहते हैं आपकी तरह । यदि मेरी अपेक्षा सिंहासन पर बिराजमान आप बड़े हैं तो जैनों के देव भी निश्चय ही बड़े हैं। इस छोटे से तर्क पूर्ण उत्तर से महाराणा बहुत प्रसन्न हुए।
एक राजाने अपने मन्त्री से भरी सभा में पूछा : मेरी हथेली में बाल क्यों नहीं उगते ?"
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१६२
मन्त्री : “इसलिए कि दान करते रहने से आपकी हथेलियाँ घिस गई हैं।"
राजा : "अापकी हथेली में क्यों नहीं उगते ?"
मन्त्री : "आप से दान लेते - लेते मेरी हथेलियाँ घिस गई हैं !"
राजा : "तो फिर इन सभासदों की हथेलियों में बाल अवश्य उगने चाहियें; किन्तु वहाँ क्यों नहीं उगते ?" ___ मन्त्री : “आप दान देते हैं और मैं दान लेता हूँ; किन्तु इन्हें कुछ नहीं मिल पाता; इसलिए ये ईर्ष्यावश बैठे - बैठे हाथ मलते रहते हैं । इस कारण इन सब की हथेलियाँ भी घिस चुकी हैं।" __ राजा इस हाजिरजवाबी पर मुग्ध हो गये।
एक बादशाह थे उन्हें एक वज़ीर की जरूरत थी। इंटरव्यू का आयोजन किया। तीन आदमी आये । एक प्रश्न किया : “ यदि मेरी और तुम्हारी दाढी में आग लग जाय तो तुम पहले किसे बुझाओगे ?" ___ एक ने कहा : “मैं पहले आपकी दाढी बुझाऊँगा; फिर मेरी'
दूसरे ने उत्तर दिया : “मैं पहले अपनी दाढी बुझाऊँगा; फिर आपकी।"
तीसरा बोला : “मैं एक हाथसे अपनी दाढी बुझाऊँगा और दूसरे हाथसे आपकी !”
कहने की आवश्यकता नहीं कि इन तीनों में से बादशाह ने तीसरे को ही चुन कर वज़ीर बनाया, पहले
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दो को नहीं। उसने सोचा कि पहला मूर्ख है और दूसरा स्वार्थी । तीसरे का उत्तर सन्तुलित है- बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण है; इसलिए वही इस पद के लायक है।
मुहम्मदशाह और नादिरशाह में सन्धि हुई थी। उस समय दरबार में दोनों बादशाह अपने-अपने उचित आसन पर बैठे थे। नादिरशाहने अपने चाकर को हुक्का भर लाने का हुक्म दिया।
चाकरने हुक्का तैयार तो कर लिया; परन्तु वह विचार में पड़ गया कि हुक्का दोनों में से किसके सामने रक्खू; क्योंकि बड़े मुहम्मदशाह थे और चाकर वह नादिरशाह का था। मुहम्मदशाह के सामने रखने पर नौकरी चली जाती और नादिरशाह के सामने रखने पर बड़ी बेअदबी हो जाती !
एक मिनिट सोचकर आखिर उसने हुक्का नादिरशाह के सामने ही रख दिया।
नादिरशाह ने डाँटा : " यह कैसी बदतमीज़ी है ? हुक्का पहले आप (मुहम्मदशाह की ओर इशारा करते हुए) के सामने रखना चाहिये था या मेरे ?' ___चाकर : “हुजूर ! भरा हुक्का पेश करके मैंने तो हुक्म की तामील की है। रही सम्मान की बात, सो बड़ों का सम्मान बड़े ही कर सकते हैं। मैं क्या करूँ ?"
चाकर के इस चतुराईपूर्ण उत्तरसे दोनों बादशाह तो खुश हुए ही, सारे दरबारी भी चकित हो गये।
एक दिन बड़े मुल्लाने कुछ मित्रों को घर पर आमन्त्रित किया। सब लोग शाम को आने वाले थे। दोपहर को एक
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किलोग्राम दूध लाकर बीबी को दे दिया कि इसे गर्म करके रख देना, जिससे खराब न हो। शामको यह खीर बनाने के काम में आ जायगा।
फिर मुल्ला शाक-सब्जी, सौंफ-सुपारी. लौंग-इलायची आदि खरीदने बाजार चले गये। इधर पत्नी दोस्तों को दावत देकर घर लुटाने के पक्ष में नहीं थी। उसने दूध कहीं छिपा दिया।
जब मुल्ला दूसरा सामान लेकर घर पहुंचे तब बीबी बोली : “आज खीर नहीं बन सकेगी।"
मुल्ला : “क्यों ? क्या तुम्हारी तबीयत खराब है ?"
बीबी : "तबीयत तो ठीक है, परन्तु दूध सारा बिल्ली पी गई !"
मुल्ला यह सुनते ही बनिये की दूकान से तराजू और बाँट ले आये। बिल्ली को पकड़कर तौला। मालम हुआ कि वह पूरे एक किलोग्राम की है। मुल्ला ने बीबी से कहा : "यदि यह दूध है तो बिल्ली कहाँ है ? और यदि यह बिल्ली है तो दूध कहाँ है ?"
मुल्ला की इस चतुराई के सामने हार कर बीबी को छिपा दूध बाहर निकालना पड़ा और यथासमय खीर बनानी पड़ी। ____एक घर में दो भाई रहते थे। बड़े का नाम था-- पारायण और छोटे का नारायण । रात का समय था । चार चोर घर में घुस आये। पारायण ने चतुराई से काम लिया। कुछ ही दूर सोये नारायण को पुकार कर उसने कहा :
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"नारायण भई नारायण ! हम गंगाजी जायेंगे ।"
नारायण बोला :
"गंगाजी तो जायेंगे पर घर किस को सँभलायेंगे ? "
पारायण : “ चरखी बेची चरखा बेचा
पूनी बेची पंखा बेचा घर में आग लगायेंगे पर गंगाजी तो जायेंगे ।"
है । हम गलती से यहाँ घुस आये ।
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चोरों ने समझ लिया की इस घर मैं तो कुछ भी नहीं
इतने में नारायण ने पूछा :
"गंगाजी तो जायेंगे पर रास्ते में क्या खायेंगे ! "
पारायण : " चोरी करके खायेंगे पर गंगाजी तो जायेंगे नारायण भई नारायण ! हम गंगाजी जायेंगे ।"
१६५
यह आवाज़ एक कोतवाल ने सुन ली । वह एकदम घर में घुस आया और बोला :
"चोरी करके खायेंगे ?
चोरी करके खायेंगे तो जूत फटा फट
"
पायेंगे !
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पारायण : किस को पड़ेंगे जूते ? कोतवाल : चोरों को, और किस को ? पारायण : तो ये खड़े हैं चोर, पकड़ो और मारो जूते ! पारायण की चतुराई से चोर पकड़ लिये गये।
अरब के एक बादशाह का जवान इकलौता पुत्र चल बसा । उसने सुना था कि सच्चा साधु वह होता है, जो मुर्दे को जिन्दा कर दे और जिन्दे को मुर्दा बना दे। उसने अरब देश में ऐसे साधु की तलाश की। कोई नहीं मिला।
किसी ने कहा : "भारत साधुओं की भूमि है । यदि वहाँ से कोई साधू यहाँ बुलवा लिया जाय तो शायद आपके बेटे की जान वापिस आ जाय ।"
बादशाह ने इस सुझाव को मंजूर कर के एक प्रतिनिधि मंडल भारत भेजा। वह दिल्ली में जाकर बादशाह अकबर से मिला । अरबके बादशाहका सन्देश सुनकर अकबर ने बीरबलसे राय ली।
बीरबलने सूरदास, तुलसीदास और कबीर के नाम और पते नोट करा दिये । कहा कि इनमें से कोई भी चलने को तैयार हो गया तो आपकी समस्याका समाधान हो जायगा।
प्रतिनिधिमण्डल सबसे पहले सूरदास के पास गया । उनसे अरब देश चलने का निवेदन किया । वे बोले : "मैं व्रजमण्डल के क्षेत्रसे बाहर नहीं जाता। आप यदि शाहजादे के शरीरको यहाँ ले आयें तो मैं कुछ कर सकता हूँ।"
प्रतिनिधि मण्डलने सोचा कि यहाँसे लौटकर जाने-आने में बहुत दिन लग जायँगे; तब तक मुर्दा सड़ जायगा तो ज़िन्दा कैसे हो पायगा? इसलिए दूसरे महात्मा के पास चलें।
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१६७ फिर सन्त तुलसीदास के पास पहुँचे । सारी बात सुन कर तुलसीदासने कहा : “अरब का धर्म और वहाँ की संस्कृति इस देश की प्रकृति से मेल नहीं खाती । जहाँ भारतीय संस्कृति पाली जाती है, वहीं मेरी शक्ति काम कर सकती है, अन्यत्र नहीं।"
यहाँ से निराश हो कर अन्त में अरब का वह प्रतिनिधि मण्डल महात्मा कबीर के पास पहचा । प्रस्ताव सुनते ही वे तत्काल चलने को तैयार हो गये।
प्रतिनिधिमण्डल महात्मा कबीर को साथ लेकर अरब के बादशाह के पास पहुँचा । बादशाहने महात्मा कबीर का आदर-सत्कार करके उन्हें ऊँचे आसन पर बिठाया और अर्ज किया : “आप मेरे बेटे को जीवित कर दीजिये ।"
कबीर ने मुर्दे की और देखकर कहा : "उठ जा खुदा के नाम से !"
मुर्दे में कोई हलचल नहीं हुई। फिर कहा : "उठ जा कुदरत के नाम से !"
फिर भी मुर्दे में कोई जान नहीं आ सकी । अन्त में कहा : उठ जा मेरे नाम से ।' ।
यह सुनने ही मुर्दा उठकर बैठ गया। इससे बादशाह को खुशी तो हुई; परन्तु कबीर को धन्यवाद देने के बदले फाँसी देने का हुक्म यह कह कर दे दिया : “कुरानमें लिखा है, जो अपने को खुदा से बड़ा साबित करे, वह काफ़िर होता है । उसे जान से मार डालना चाहिये ।"
कबीर साहबने मुस्कुराते हुए कहा : तब तो खुदाको ही फांसी लगनी चाहिये; क्योंकि उन्होंने स्वयं ही मुझे
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अपने से बड़ा साबित किया है । यदि खुदा खुदको बड़ा साबित करना चाहते तो अपने नाम से ही मुर्देको खड़ा कर देते । पहले तो मैंने उन्हीं का नाम लिया था ।"
बादशाह ने इस चतुराई भरे जवाब से चौंक कर अपनी भूल कबूल की और कबीर को अत्यन्त सम्मानके साथ भारत भेजनेका प्रबन्ध कर दिया ।
इस कथामें मुर्दे को जिन्दा करने की बात आलंकारिक है । उसका तात्पर्य यही है कि मुर्दे के कारण जो शोक परिवार को हो रहा था, उसे मिटा दिया गया ।
यदि यह तात्पर्यार्थ न लेकर अभिधेय अर्थ लिया जायगा तो उस सूक्ति के उत्तरार्ध से अनर्थ हो जायगा । पूरी सूक्ति इस प्रकार है : “सच्चा साधु वह है जो मुर्दे को जिन्दा करे और जिन्दे को मुर्दा !"
उत्तरार्ध में जिन्दे को मुर्दा करने वाले को सन्त कहा गया है । उसके अनुसार तो बड़े-बड़े हत्यारे भी सन्त मान लिये जायँगे; परन्तु ऐसा नहीं है; क्यों कि इस उत्तरार्ध का भी आलंकारिक अर्थ होता है। वह यह कि सन्त जीवित आदमी को संयमी बनाता है-इन्द्रियों को वश में रखने की कला सिखाता है-विषयों को सामने देखकर भी वह मुर्दे की तरह कैसे उनके प्रति अनासक्त रहे-उपेक्षाभाव रखे ? ऐसा उसे प्रशिक्षण दिया जाता है ।
खैर, यह थोड़ी-सी प्रासंगिक चर्चा इसलिए कर दी कि ऐसी कथाएँ सुनकर लोग चमत्कार के चक्कर में न पड़ जायँ और अन्धविश्वासों के शिकार न बन जायें ।
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१६६
हमारा प्रतिपाद्य है-कबीर की चतुराई । यदि बादशाह को उत्तर देने में एक क्षण भी वे चूक गये होते तो फाँसी पर लटका कर मार दिये जाते !
महाराज कुमारपाल की सभा में बड़े-बड़े दार्शनिक उपस्थित थे। महाकवि जैनाचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने भी वहाँ प्रवेश किया । जैनसाधुओं के वेष के अनुकूल डंडा उनके हाथ में था और कम्बल कन्धे पर । इस रूप में उन्हें आते देखकर किसी विद्वान् ने उनकी हँसी उड़ाते हुए कहा
"पागतो हेमगोपालो दण्डकम्बलमुद्वहन् ॥" [ग्वाला हेमचन्द्र डंडा और कम्बल लेकर आ गया है]
चतुर हेमचन्द्राचार्य ने तत्काल उस श्लोक का उतरार्ष बनाकर इस प्रकार उत्तरं दिया :
"षड्दर्शनपशुप्रायांश्चारयन् जैनवाटिके ।।" [जैनदर्शन के अनेकान्त रूपी उद्यान में षड्दर्शन रूपी पशुओं को चराता हुआ (मैं आ गया हूँ)]
यह सुनकर हँसने वाले सब गम्भीर हो गये और राजा कुमारपाल प्रसन्न ।
कहा गया हैं : चंदन की चुटकी भली: गाड़ा भला न काठ । चतुर अकेला ही भला, मूरख भला न साठ ॥
सम्राट अकबर सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री हीरविजयसूर के सम्पर्क में आकर जैनधर्म के प्रति विशेष आदरभाव रखने लगा था। इसे ईर्ष्यालु जैनेतर पंडित सह नहीं सके। एक दिन उन्होंने बादशाह से कहा : "जैनधर्म में न गंगा को
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महत्त्व दिया जाता है और न सूरज को, जब कि ये दोनों हम सब के अनन्त उपकारी हैं।"
__ अगले दिन सत्संग करते समय अकबर ने आचार्यजी से प्रश्न किया : "महाराज ! लोग कहते हैं कि गंगा और सूरज़ को जैनधर्म में महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता। क्या यह सच है ?"
सम्राट् को बहकाने के लिए किये गये मिथ्यात्वीयों के कुप्रयास को विफल करते हुए आचार्यश्री ने उत्तर दिया : "जैनसाधु गंगा में पाँव नहीं धरते । क्या यह उसका सन्मान नहीं है ? सूर्य को अस्त होने पर खाना तो दूर-हम लोग पानी तक नहीं पीते ! क्या सूर्य की उपासना का दावा करने वाले ऐसा करते हैं ? फिर हम पर यह आरोप कैसा कि हम गंगा और सूरज को कोई महत्व नहीं देते ? नहाकर गंगा के जल को अपने शरीर के मैल से दूषित करने वाले गंगा का अधिक सम्मान करते हैं या उसके जलको न छकर उसकी पवित्रता को बनाये रखने वाले जैन मुनि ? आप ही सोचकर फैसला कीजिये !"
फिर एक दिन पूछा : "धर्म कौन-सा अच्छा है ?"
बोले : "जिससे आत्मा शुद्ध होती हो, वही धर्म अच्छा है।"
फिर पूछा : "माला फिराते समय जैनधर्म में मनके अपनी ओर धुमाते हैं और इस्लाम में बाहर की ओर । इन दोनों में कौन-सा तरीका ठीक है ?"
बोले : "जैनधर्म मैं एक-एक मनके द्वारा एक-एक गुण अपनी प्रात्मा में भरने का भाव रहता है और इस्लाम के
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तरीके में एक-एक दोष छोड़ने का आत्मा से बाहर निकालने का । इसलिए माला फिराने के दोनों तरीके ठीक हैं ।"
सम्राट् अकबर ने उनकी चर्चा से प्रभावित होकर श्री हीरविजयसूरिजी को " जगद्गुरु" का खिताब दिया था । सूरिजी ने अकबर से " जजियाकर" समाप्त करवा दिया था, जो हिन्दू बने रहने के लिए हिन्दुओं से वसूल किया जाता था और जिससे उस जमाने में चौदह करोड़ रुपये बादशाह के खजाने में नियमित रूप से पहुँचते थे ! गाय, बैल, भैंस और भैंसे की धर्म के नाम पर की जाने वाली हत्या (बलि) बन्द करवा दी थी ।
इन सब सफलताओं के मूल मैं आचार्यश्री का गम्भीर विशाल ज्ञान और चरित्र तो था ही, परन्तु सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था उनका वाक्चातुर्य बोलने की चतुराई। जिसमें भी ऐसी चतुराई होती है, उसे मित्र बहुत आसानी से मिल जाते हैं ।
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११. चिन्ता
चिन्ता ऐसी आग है, जो मनमें लगती है और शरीर को जलाती है। चिता शरीर को एक ही बार जलाती है; परन्तु चिन्ता उसे बार-बार जलाती है। इसलिए चिता और चिन्ता –इन दोनों की तुलना की जाय तो चिन्ता अधिक भयंकर मालूम होगी।
सुप्रसिद्ध विचारकों ने चिन्तन किया है, चिन्ता नहीं की। चिन्तन से बड़े-बड़े ग्रन्थों की रचना की जाती है, चिन्ता से नहीं । चिन्ता तो उलटे सक्रिय मनुष्य को भी निष्क्रिय बना देती है । चाणक्य ने लिखा है
"चिन्ता जरा मनुष्याणाम् ॥" [चिन्ता मनुष्यों का बुढापा है अर्थात् चिन्ता करने वाला जवान शीघ्र बूढा हो जाता है]
चिन्ता ऐसी राक्षसी है, जो सब कुछ खा जाती हैनष्ट कर देती है :
चिन्तया नश्यते रूपम् चिन्तया नश्यते बलम् ।
चिन्तया नश्यते ज्ञानम् व्याधिर्भवति चिन्तया ॥ [चिन्तासे रूप, शक्ति और ज्ञान नष्ट हो जाता है और रोग पैदा हो जाता है]
चिन्ता रोग की माता ही नहीं, स्वयं भी बीमारी है :
को वा ज्वर: ? प्राणभृतां हि चिन्ता ॥ [बुखार कौनसा है ? प्राणियों के भीतर रहने वाली चिन्ता ही उनका बुखार है]
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बुखार जिस प्रकार शरीर को कमजोर बना देता है, उसी प्रकार चिन्ता भी शरीर को दुर्बल बना देती है। चिन्ता और दुर्बलता को साथ देखकर एक कविने उसके साथ इस प्रकार वार्तालाप किया :
चिन्ते ! दुर्बलतास्ति किं तव सखी यत्सार्धमेवेक्ष्यते ? नैवं किन्तु ममास्ति विश्वविजयी दुःखाभिधो नन्दनः । तस्यैषा रमरणीति वल्लभतरा जाता मदीया स्नुषा भूभक्तिपरायणान्वहमतो नो याति दूरं क्वचित् ।।
-धनमुनिः [हे चिन्ते ! क्या कमजोरी तेरी सहेली है, जो सदा तेरे साथ ही देखी जाती है ? (चिन्ता बोली) ऐसा नहीं है, किन्तु सारे विश्व पर विजय पाने वाला दुःख नामक मेरा जो पूत्र है, उसकी प्यारी पत्नि होने से यह (कमजोरी) मेरी बहू है। यह सासकी भक्त है; इसलिए प्रतिदिन पास ही रहती है-- दूर नहीं जाती ! ]
आशय यह है. कि चिन्ता से दुःख होता है और दुःख से कमजोरी पाती है। विवाह के बाद चिन्ता की सम्भावनाएँ तीव्र हो जाती हैं। इसलिए कहा है,
फूले फूले फिरत हैं, प्राज हमारो ब्याव ॥ _ 'तुलसी' गाय-बजाय के देत काठ में पाँव ॥
विवाह के पहले जो स्वतन्त्रता होती है, वह बाद में नहीं रहती, फिर तो :
भूल गये राग रंग, भूल गये छकड़ी। तीन चीज याद रही, नन तेल लकड़ी। यह हालत सबकी होती है :
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क्या तवंगर क्या गुनी क्या पीर और क्या बालक । सब के दिल में फिक्र है दिनरात पाटे दाल का ॥
इस चिन्ता का मुख्य कारण है-निर्धनता, जिससे बुद्धि भी दूर चली जाती है। जहाँ चिन्ता का निवास हो जाता है, वहाँ बुद्धि का निवास कैसे हो सकता है ?
नश्यति विपुलमतेरपि बुद्धिः पुरुषस्य मन्द विभवस्य ।
घृतलवणतैलतण्डुल- वस्त्रेन्धनचिन्तया सततम् ॥ [विशाल बुद्धि वाला पुरुष भी यदि निर्धन है तो लगातार घी, नमक, तेल, चाँवल, वस्त्र, ईधन आदि की चिन्ता से उसकी बुद्धि नेष्ट हो जाती है]
बुद्धि ही क्यों ? अन्य गुणों पर भी चिन्ता की आँच पहुँच जाती है :
दारिद्रयदोषो गुणराशिनाशी ।। [गरीबी ऐसा दोष है, जो गुणों के समूह को नष्ट कर देता है]
निर्धनता का दंश जब तक मनुष्यों को परेशान नहीं करता, तभी तक वे ज्ञान और विद्या की बड़ी-बड़ी चर्चाएँ करते हैं : तावद्विद्यानवद्या
गुणगणमहिमा रूपसम्पत्ति शौर्यम् स्वस्थाने सर्वशोभा
परगुणकथने वाक्पटुस्तावदेव । यावत्पाका कुलाभिः
स्वगृहयुवतिभिः प्रेषितापत्यनक्वात् हे बाबा! नास्ति तैलम्
न च लवणमपीत्यादि वाचां प्रचारः ॥
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[तभी तक निर्दोष विद्या है, गुणों के समूह को महीमा है, सौन्दर्य रूपी लक्ष्मी और पराक्रम है, अपने स्थान पर सब प्रकार की शोभा है तथा दूसरों के गुणों का वर्णन करने में वाणी की चतुराई है, जब तक कि रसोई घर में लगी हुई स्त्रियों के द्वारा भेजे गये पुत्र के मुह से- "हे बाबा! घर में न तेल है और न नमक है...” आदि बोली सुनने का का अवसर नहीं पाता!
गृहस्थ को कदम - कदमपर धन की आवश्यकता होती है; इसलिए कहा जाता है : "जिस साधु के पास कौड़ी, वह कौड़ी का और जिस गृहस्थ के पास कौड़ी नहीं, वह कौड़ी का।
इस कहावत में गृहस्थ के लिए धन की अनिवार्य आवश्यता को रेखांकित किया गया है ।
सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी वीर सावरकर के जीवन की एक घटना सुनने योग्य है।
उन्हें इंग्लैंड में गिरफ्तार करके जहाज द्वारा भारत की ओर भेजा जा रहा था। जहाज जब फ्रांस के तट पर पहँचा, तभी वे पहरेदारों की नज़र से अपने को बचा कर समुद्र में कूद पड़े। फिर धीरे-धीरे जल के भीतरही - भीतर तैरते हुए तट पर जा पहुंचे।
* इस श्लोक का सम्पादक के द्वारा विरचित पद्यात्मक भावानुवाद :
ज्ञान-कला-चर्चा में रस है प्राता तब तक ध्यान-भक्ति-अर्चा में रस है प्राता तब तक । "नमक अन्न साबुन बाबूजी ! आज नहीं है।" यह स्वर घर से नहीं कान में प्राता जब तक!
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उनका पीछा भी किया गया था; किन्तु वे शहर के भीतर तक पहुँच गये और किसी की पकड़में न आये।
आगे उनकी इच्छा ट्राम में बैठकर भाग जाने की थी; परन्तु टिकट के लायक एक भी सिक्का उनके पास न होने से वे ट्राम में न बैठ सके और पकड़ लिये गये। एक सिक्का न होने से लगातार अट्ठारह वर्ष तक उन्हें कैद की सजा भोगनी पड़ी थी ! इससे धन का महत्त्व ध्यान में प्रा सकता है।
जर्मन - सम्राट जोसेफ द्वितीय ने एक दिन किसी बालक को सड़क पर भीख माँगते देखा। पूछताछ से पता चला कि उसके पिता चल बसे हैं। घर में छोटा भाई और माँ है, पर दोनों बीमार हैं। घर में खाने को दाना भी नहीं है। वह भूख सह सकता है, माँ और भाई की बीमारी नहीं। दोनों का इलाज कराने के लिए धन की ज़रूरत है। इस ज़रूरत की पूर्ति के लिए वह जीवन में पहली बार भीख माँगने को सड़क पर खड़ा हुआ है।
जोसेफ ने कुछ रुपये देकर बालक को एक डाक्टर के पास भेज दिया और पता नोट कर स्वयं उस बालक के घर पहुँचा। बातचीत से बीमारी का सही कारण मालूम हो गया। फिर वह कागज के एक टुकड़े पर नुस्खा लिख कर चला गया। घर वाले उसे डाक्टर समझे थे; इसलिए उसने भी दवा की तरह कागज पर कुछ लिख दिया था।
थोड़ी देर बाद बालक डाक्टर को साथ लेकर आया। माँ ने पहले आये हुए डाक्टर का नुस्खा उसे दिखाया । नुस्खे में लिखा था: " बालक को खजाने से एक हजार सिक्के दे दिये जायँ।" नीचे सम्राट के हस्ताक्षर थे।
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उसने बालक को समझा दिया और अपनी दवा भी दे दी । बालक जाकर खजाने से सिक्के ले आया । असली डाक्टर की दवा भी ली जाती रही । माँ-बेटे दोनों जल्दी स्वस्थ हो गये ।
राजा भोज एक बार प्रजा का सुख - दुःख जानने के लिए वेश बदल कर धारानगरी में घूम रहे थे ।
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एक ब्राह्मण के घर के पाससे गुजर रहे थे कि सहसा उन्हें रोने पीटने की आवाज़ उसमें से सुनाई दी । वे आपस में एक- दूसरे को दोषी और अपराधी बता - बता कर पीट रहे थे। दो आवाजें औरतों की थी और एक पुरुष की । औरतें सास- बहू थीं और आदमी वह ब्राह्मण था, जो इस घर का मालिक था ।
राजा भोजने मकान का नम्बर नोट कर लिया और दूसरे दिन प्रातःकाल अपना आदमी भेजकर उस ब्राह्मण को राजसभा में बुलाया ।
१२
ब्राह्मण चला आया । राजाने पूछा : “ कल रात को आपके घरमें मारपीट हो रही थी - शोरगुल मच रहा था । आप जैसे समझदार विद्वान् ब्राह्मण के घर में ऐसी अशान्ति क्यों ?"
ब्राह्मण ने उत्तर दिया : महाराज ! अम्बा तुष्यति न मया
नस्नुषया सापि नाम्बया न मया ।
अहमपि न तया न तया
वद राजन् ! कस्य दोषोऽयम् ?
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१७८ [माता न मुझसे सन्तुष्ट है और न उस (पत्नी) से । वह (पत्नी) भी न मातासे सन्तुष्ट है, न मुझसे । मैं भी न मातासे सन्तुष्ट हूँ और न उस (पत्नी) से । हे राजन् ! आप ही कहिये, इसमें दोष किसका है ?]
राजा भोज : “निर्धनताका ही इसमें दोष है; और किसीका नहीं !"
ऐसा कहकर खजाने से उसे दस हजार स्वर्णमुद्राएँ दिलवा दीं। उनकी निर्धनता मिट गई और पूरा परिवार सुख-चैन से रहने लगा।
जर्मनीकी पराजयके बाद वहाँ अधिकांश लोग बीमार रहने लगे । कारण की छानबीन की गई तो पता चला कि वे इस बात की चिन्ता करते थे कि आज तो रोटी मिल गई है, पर कल मिलेगी या नहीं !
वहाँ के शासकोंने सबको अगले दिन की रोटी एक दिन पहले ही बाँटनी शुरू कर दी। परिणाम यह हुआ कि धीरेधीरे सब स्वस्थ हो गये ।।
सन्त, महात्मा, ककीर आदि बिल्कुल निश्चित रहते हैं; इसलिए स्वस्थ भी रहते हैं ।
सन्त एकनाथ को प्रसन्नचित्त देखकर किसी भक्तने उनसे पूछा कि आपकी प्रसन्नता का रहस्य क्या है ?
सन्तने कहा : “इसका उत्तर तो मैं फिर कभी दे दूंगा, परन्तु आज एक ज़रूरी सूचना तुम्हें करना चाहता हूँ कि आजसे ठीक सातवें दिन तुम्हारी मृत्यु हो जायगी !"
मृत्यु का तो नाम ही दुःखद होता है । जब सन्त ने
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मृत्युकी भविष्यवाणी कर दी तब उसमें शंका की भी कोई गुंजाइश नहीं रही ।
भक्त को जो कुछ करना था, इन्हीं सात दिनों में निपटाना था । उसे अपने पिछले जीवन की घटनाएँ भी याद आने लगीं । जिन-जिन की उसने चोरी की थी, उन-उनकी वस्तुएँ वह लौटा आया । जिन-जिनका अपमान किया था, गालियाँ देकर जिन्हें दुखी बनाया था, मारपीट करके जिनको अपने स्वार्थ के लिए परेशान किया था, उन सबसे दौड़-दौड़ कर क्षमा माँग ली | जिन से रिश्वत ली थी, उन्हें व्याजसहित लौटा दी । सब तरह से आत्मा को हल्का कर लिया । नया पाप करने की तो फुरसत ही नहीं थी ।
एकनाथ : " नहीं जीवित रहने वाले हो
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सातवें दिन शान्ति से मृत्यु की प्रतीक्षा में वह शय्या पर पड़ा था । शरीर बहुत कमजोर हो गया था, परन्तु मनमें शान्ति थी । उसी दिन सन्त एकनाथ उससे मिलने उसके घर गये । कमजोरी के कारण वह उनको प्रणाम करने के लिए उठ भी न सका । लेटे-लेटे ही हाथ जोड़ कर निवेदन किया : "गुरुदेव ! आपकी भविष्यवाणी सच निकली । आज मैं मरनेवाला हूँ । अब अन्तिम समय आ चुका है । देखिये, यह शरीर कितना शिक्षित हो गया है !
"
भाई ! तुम अभी कई वर्षों तक मृत्यु श्राज नहीं श्रायेगी ।"
-
यह सुनते ही चौंकता हुआ भक्त उठकर खड़ा हो गया और उनके चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया उसने । फिर बोला : “गुरुदेव ! जब मैं वर्षों जीने वाला हूँ, तब आपने पहले एक सप्ताह में मृत्यु हो जायगी-ऐसी भविष्यवाणी क्यों की ?
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मेरे साथ इतनी बड़ी मज़ाक क्यों की ? सन्त होकर आप झूठ क्यों बोले ?"
एकनाथ : "मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देना चाहता था। इसलिए मैंने ऐसी भविष्यवाणी की थी। जैसे सप्ताह-भर तक तुमने मृत्यु को याद रख कर निष्पाप जीवन बीताया, वैसे ही हम जीवन-भर मृत्यु को याद रख कर निष्पाप जीवन बिताते हैं। निष्पाप जीवन ही प्रसन्नता का रहस्य है । अभी मृत्युशय्या पर भी तुम्हारा चेहरा शान्त था, प्रसन्न था-यह तुमने स्वयं अनुभव किया है। यही तम्हारे प्रश्न का प्रत्यक्ष उत्तर था, जो मैंने दिया है। रही बात शारीरिक शिथिलता एवं निर्बलता की, सो इसका कारण निराशा है-भय है । मृत्यु का स्मरण अवश्य रखना चाहिये, जिससे जीवन सद्व्यवहारमय हो; परन्तु मृत्यु से डरना नहीं चाहिये । मौत की चिन्ता नहीं करनी चाहिये । जब मैंने कहा कि तम वर्षों जीने वाले हो तो तुम्हारे भीतर जो मरने की चिन्ता थी, निराशा थी, वह एकदम समाप्त हो गई और उसका फल यह हआ कि तम्हारे शरीर में खोई शक्ति पुनः लौट पायी, सो अब यह बात अच्छी तरह तुम्हें समझ में आ गई होगी कि निष्पाप और निश्चिन्त जीवन ही प्रसन्नता का रहस्य है। इस विधि से कोई भी व्यक्ति प्रसन्न रह सकता है-अपने अस्तित्व को सार्थक कर सकता है।" ___ इस प्रकार प्रवचन देकर सन्त एकनाथ अपने आश्रम को लौट गये।
एक ज्योतिषी भविष्यकथन का व्यवसाय करता था । मन्त्री ने राजासे कहा कि उसे दरबार में बुलाकर उसके भविष्य-कथन की जाँच करनी चाहिये कि उसमें कितना सत्य है ।
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१८१
ज्योतिषी बुलवाया गया । मन्त्रीने राजाको पहले ही बतला दिया था कि किस ढंग से क्या प्रश्न करना है। उसके अनुसार राजाने म्यानसे तलवार निकाल कर ज्योतिषीजी महाराज से पूछा : "बताइये, आपकी मृत्यु कब होगी ?" ___इस पर यदि ज्योतिषी कहता कि कुछ वर्ष बाद होगी तो तत्काल उसकी गर्दन तलवार से उड़ाकर भरी सभा में यह प्रमाणित कर दिया जाता कि भविष्य-कथन झूठा निकला।
इससे विपरीत यदि ज्योतिषी कहता कि मैं अभी मरने वाला हूँ तो उसकी गर्दन न काटकर-उसे जीवित रहने देकर यह प्रमाणित किया जाता कि भविष्ककथन झूठा निकला।
फलित ज्योतिषी बहुत चतुर था । वह इस कैंचीको समझ गया । क्षणभर सोचकर उसने उत्तर दिया : "मेरी मृत्यु आपकी मृत्यु से तीन दिन पहले होगी ।"
इस उत्तरको सुनकर राजाने अपनी तलवार म्यान में रख ली; क्योंकि यदि ज्योतिषीको अभी मार डाला जाता तो तीन दिन बाद राजाको भी मरना पड़ता। इस भविष्य कथन द्वारा उसने राजाके मनमें मृत्यु की चिन्ता भर दी थी। राजा इतनी जल्दी मरना नहीं चाहता था और जीवित रहनेके लिए ज्योतिषी को भी जीवित रखना ज़रूरी था ।
कभी-कभी कल्पित संकटोंसे भी व्यक्ति चिन्ताग्रस्त हो जाता है।
बड़े मुल्ला एक बार लोटा लेकर जंगल में शौचकार्य से निवृत्त होने गये । वहाँ एकान्त स्थल ढूँढ कर थोड़ी देर तक बैठे और फिर लोटा वहीं कहीं फेंक कर घर लौट आये।
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१८२
बीबी ने पूछा : "मियाँजी ! आप को तो जंगल जाकर लौटने में प्रतिदिन लगभग एक घंटा लगता है। आज इतनी जल्दी कैसे लौट आये ? घंटे भरका कार्य दस मिनिट में कैसे निपटाया ?"
बड़े मुल्ला : "वहाँ सौ-दो सौ साँप मेरी ओर भागते हुए चले आ रहे थे, इसलिए मैंने वहाँ ठहरना उचित नहीं समझा।"
बीबी : 'क्या सौ - दो सौ साँप देख लिये आपने ?"
मियाँ : "नहीं, दूरसे एक नज़र डाल दी थी । बीसतीस थे !"
बीबी : “क्या सचमुच बीस-तीस साँप थे ?"
मियाँ : "बीस-तीस नहीं, तो दो-चार अवश्य रहे होगें।'
बीबी : “दो-चार ? क्या आपने साँप बराबर गिने थे ?"
मियाँ : “गिने तो नहीं थे; फिर भी मेरा खयाल है कि एक साँप तो जरूर होगा; अन्यथा मुझे डर क्यों लगता?"
बीबी : "कल्पना से; क्योंकि कल्पना करने से भी उतना ही डर लगता है, जितना प्रत्यक्ष देखने से ।"
कल्पित भय से बड़े मुल्ला को ऐसी चिन्ता हुई कि उन्होंने अपना लोटा ही जंगल में फेंक दिया !
द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रतिदिन अपने को अट्ठारह घंटों तक अत्यन्त व्यस्त रखने वाले मिस्टर चचिल से किसी ने पूछा : “क्या आपको कभी कोई चिन्ता नहीं होती ?"
चचिल ने उत्तर दिया : "मेरे पास भला इतना समय कहाँ है कि मैं चिन्ता करूं ?"
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१८३ एक फ्रांसीसी विचारक ने आनन्द प्राप्ति के तीन नियम बताये थे। पहला था- अपने को कार्यव्यस्त रखना । दूसरा भी यही और तीसरा भी यही। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यदि तुम आनन्द पाना चाहते हो तो किसीन-किसी काम में लगे रहो- लगे रहो- लगे रहो। इस प्रकार जो कार्यव्यस्त रहता है चचिल की तरह उसे चिन्ता करने के लिए समय ही नहीं मिलता।
प्राचीन काल में चीनी शासक कैदियों को कष्ट देने के लिए यह उपाय काममें लाते थे।
पहले वे कैदियों के हाथ-पाँव बाँध देते थे। फिर उन्हें ऐसे पानी के मटकों के नीचे बिठा देते थे, जिनके पैंदोंसे निकल कर एक-एक बूद उनके मस्तकों पर गिरती रहे। मस्तक पर टपकने वाली बूद का प्रहार चिन्ता के कारण अपराधी को हथौड़े की चोट के समान पीड़ित करता था। परिणामस्वरुप कैदी पागल हो जाता था।
दियासलाई दूसरों को जलाने से पहले स्वयं को जलाती है, उसी प्रकार क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि चिन्ताजन्य भाव भी दूसरों से पहले अपने आश्रय को ही जलाते हैं।
क्रोध काँटे से अधिक भयंकर होता है; क्योंकि कांटा तो जिसे चुभता है, उसी को कष्ट देता है। परन्तु क्रोध क्रोधी को भी कष्ट देता है और जिसके प्रति क्रोध किया जाता है, उसे भी । यदि हमें अपना बूरा करने वालों के प्रति क्रोध आता है तो फिर क्रोध पर ही क्रोध आना चाहिये : __ अपकारिषु कोपश्चेत् कोंपे कोपः कथं न ते ? [यदि अपकारीयों पर क्रोध आता है तो क्रोध पर तुझे
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१८४ क्रोध क्यों नहीं आता ? (क्रोध ही सबसे बड़ा अपकारी है; इसलिए उसी को क्रोध का पात्र बनाना चाहिये)]
एक विचारक ने लिखा है : "क्रोध मूर्खता से शुरू होता है और पछतावे पर खत्म।"
क्रोधी किसी की बात नहीं सुनता; इसलिए कहा गया है कि क्रोध समुद्र-सा बहरा होता है और आग-सा उतावला ।
उपदेश देने से मूर्ख क। क्रोध और भी अधिक भड़क जाता है :
उपदेशो हि मूर्खाणाम प्रकोपाय न शान्तये ।
पयः पानं भुजङ्गानाम केवलं विषवर्धनम् ॥ [मूों को उपदेश देने से उनका गुस्सा बढ़ता ही है, शान्त नहीं होता । साँपों को दूध पिलाने से केवल उनका जहर बढ़ता है]
दूसरा भाव है-ईर्ष्या । यह भी बीमारी की तरह घातक है। दूसरों की उन्नती, सुख-समृद्धि आदि को देख कर ईर्ष्यालु मन-ही-मन जलता रहता है, उसका विवेक नष्ट हो जाता : .
ईर्ष्या हि विवेक परिपन्थिनी ।। [ईर्ष्या विवेक की शत्रु है] ईर्ष्या को असाध्य बीमारी बताते हुए कहा गया है : य ईष्यु : परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये ।
सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः ।। [जो व्यक्ति दूसरों के धन, रूप, बल, कुलीनता, सुख सौभाग्य और सत्कार को देख कर ईर्ष्या करता है (मन में जलता है) उसकी बीमारी का कोई अन्त नहीं होता]
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१८५
दो भाई थे। छोटे भाई को एक पुत्र था और एक पुत्री थी। बड़ा भाई निस्सन्तान था। छोटे भाई की सन्तान उसकी आँखो में खटकती थी। एक दिन किसी तरह लड़झगड़ कर उसने छोटे भाई को परिवार से अलग कर दिया ।
छोटा भाई पास के शहर में व्यापार करने जाता था और शाम तक जो कुछ कमाई करके लाता, उसी से दूसरे दिन सब लोग पेट भरते ।
एक दिन की बात है। छोटे भाई के परिवारमें खाने के लिए एक दाना भी नहीं था; क्योंकि पहले दिन कमाई कुछ नहीं हुई थी। दूसरे दिन छोटा भाई सुबह जल्दी उठकर शहर में भूखे पेट ही कमाने के लिए चला गया। कह गया कि ज्यों ही थोड़ी-बहुत कमाई होगी, मैं तत्काल लौट आऊँगा।
इधर दिन चढ़ते ही बच्चे भूख से रोने लगे। उनकी वेदना माँ से सही नहीं गई। वह (छोटी बह) अपनी सास के पास गई और उससे चार रोटी का आटा माँग लाई।
फिर पाटे को जल्दी-जल्दी छुद कर वह रोटी बना ही रही थी कि बड़े भाई को पता लग गया। वह छोटे भाई के घरमें घुसकर बच्चों के हाथ से रोटियाँ छीनकर कुत्तों को डाल आया।
दुखियारी माँ दोनों बच्चों को लेकर कुएँ पर गई । छोटी बच्ची को छाती से चिपटाकर वह बड़े बच्चे से यह कहती हुई उसमें कूद पड़ी कि तू यहीं बैठना, मैं अभी रोटी लेकर पाती हूँ।
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१२. दया
दया धर्म का मूल है पाप-मूल अभिमान । तुलसी दया न छाँडिये जब लग घट में प्राण ॥
जब तक घट में प्राण हैं अर्थात् जब तक मनुष्य जीवित है, तब तक उसे दया नहीं छोड़नी चाहिये-निर्दय (क्रुर) नहीं बनना चाहिये।
यदि हम किसी मुर्दे को जिन्दा नहीं कर सकते तो किसी जिन्दे को मुर्दा बनाने का हमें क्या अधिकार है ?
इस्लाम में ईश्वर को "रहीम" कहा जाता है। रहम का अर्थ है-दया; इसलिए रहीम का अर्थ हुआ-दयालु । परमात्मा यदि दयालू है तो वह निर्दयता का व्यवहार कसे सह सकता है ? इसीलिए हज (तीर्थयात्रा) के समय चींटी तो क्या, जूं तक को मारने का निषेध है। प्रभु महावीर ने फरमाया है :
"धम्मस्स जणणी दया ॥" [दया धर्म को माता है]
धर्म का अर्थ है-परोपकार। दूसरों का उपकार वही कर सकता है, जिसके दिल में दया हो।
दया का एक पर्यायवाची शब्द है-अनुकम्पा । यह बहुत स्पष्ट अर्थ की प्रतीति कराने वाला शब्द है। दूसरे दुःखी प्राणियों को देखने के पश्चात् (अनु) जो हमारे हृदय में कम्पन होता है-सहानुभूति जागृत होती है, उसे कहते हैं
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१८७ यह सुनते ही बेचार मेहमानों के मनमें भारी घबराहट फैल गई। एक क्षण भी उन्होंने घर में ठहरना उचित नहीं समझा । चारों मेहमान सिर पैर रख कर नौ-दो-ग्यारह हो गये।
उधर से फल की टोकरी लेकर सेठजी घर पर लौटे। फल एक ओर रखकर उन्होंने मेहमानों का हालचाल पूछा तो सेठानी ने कहा • " वे मुझसे चार खुरपे गर्म करने को कह रहे थे। मैंने इन्कार कर दिया कि पहले भोजन जरूरी है; फिर खुरपे भी गर्म कर दूंगी; किन्तु वे पहले खुरपे गर्म करने का आग्रह करते रहे । मैंने नहीं माना तो वे नाराज होकर चले गये।"
सेठजी ने चारों गर्म खुरपे हाथों में पकड़े और मेहमानों को ढूढने निकले । वे दूर जाते हुए दिखाई दिये। सेठजीने जोर से पूकार कर कहा : "ठहरिये ! ये चारों खरपे गर्म हो गये हैं। लीजिये !"
मेहमानों ने सोचा कि सेठानी ने ठीक ही कहा था और हम सावधान होकर चले आये, अन्यथा सेठजी तो गर्म खुरपे लेकर हमारी पीठ दागने के लिए हमारा पीछा कर ही रहे हैं। भोजन की लालच में ठहर गये होते तो अवश्य हमारी दुर्दशा हो गई होती।
ऐसा सोचते हुए और भी तेजी से भागकर वे सेठजी को आँखों से ओझल हो गये।
यहाँ हम देखते हैं कि द्वेष के मूल में भी चिन्ता ही काम कर रही थी। सेठजी को चित्ता थी कि आतिथ्यसत्कार में कोई कसर न रह जाय, इसलिए बाझार से वे फल की टोकरी उठा लाये। सेठानी को चिन्ता थी कि मुझे
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१८८ दो के बदले (चार मेहमानों सहित) कुल छह जनों का भोजन बनाना पड़ेगा । मेहमानों को चिन्ता थी कि सेठजी हमें गर्म खुरपों से कहीं दाग न दें।
फिक्कर का फाका करे, बोले वचन गंभीर ।
कबीर इस संसार में वही कहाय फकोर ॥
फकीर वही है, जो फिक्र (चिन्ता) का फाका करे (खा जाय-नाश कर दे)। मुनि वही है, जो मौन रहे-चिन्ता न करे-कष्टों को शान्ति से सहे । साधु वही है, जो चिन्ता का त्याग करके केवल आत्मकल्याण की साधना में लगा रहे-संन्यासी वही है, जो समस्त चिन्ताओं का न्यास (त्याग) कर दे-इन सभी परिभाषाओं में मूल तत्त्व है-निश्चिन्तता।
विश्वविख्यात विचारक डेल कारनेगी ने चिन्ता को कम करने के लिए इन चार प्रश्नों पर विचार करने की सलाह दी थी :
एक-समस्या का स्वरूप क्या है ? दो-समस्या का कारण क्या है ? तीन-समस्या से निपटने के संभाव्य साधन क्या-क्या है ? चार-उन साधनों में सर्वोत्तम साधन कौन-सा है ?
विचारपूर्वक समस्या का सर्वोत्तम साधन अपनाकर जो अपनी चिन्ताओं से पार हो जाते हैं, उन्हीं को मित्र अपनाते है और चिन्तातुरों से वे दूर रहते हैं।
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१८६
भोला बच्चा माँ के लौटने की प्रतीक्षा में बैठा ही था कि उसके पिता शहर से लौट आये। पूछने पर बच्चेने बताया कि माँ रोटी लेने कुए के भीतर गई है।
बाप सब कुछ समझ गया। उसने बच्चे को उठाकर कहा कि चलो हम दोनों भी माँ के पास ही चलें; और फिर वह भी कुए में कूद पड़ा !
ईर्ष्या ने चार प्राणियों की जाने ले लीं, जो बिल्कुल निर्दोष थे। उनके मरने से ईर्ष्यालु बड़े भाई को क्या मिला ? कुछ नहीं।
चिन्ताजन्य तीसरा भाव है- द्वष । जिसमें द्वष होता है, वह दूसरों का बुरा ही सोचता है।
एक सेठानी थी। वह मेहमानों का आतिथ्य सत्कार पसंद नहीं करती थी। एक दिन सेठजी चार मेहमानों को घर में ले आये।
सेठानी को रसोई बनाने का आदेश देकर वे बाजार में कुछ फल खरीदने चले गये।
इघर मौका देखकर सेठानीने चार खुरपे चूल्हे में रख दिये । वे धीरे-धीरे गर्म होकर एकदम लाल लाल हो गये।
मेहमानों ने पूछा : “ये खुरपे गर्म क्यों किये जा रहे
हैं ?"
सेठानी ने कहा : "मुझे आप पर दया पाती है। सेठजी यहाँ आने वाले सभी मेहमानों को भोजन कराते हुए ही उनकी पीठ खुरपों से जला देते हैं। इससे उन्हें इतनी अधिक वेदना होती है कि कोई मेहमान बन कर दुबारा इस घर में आने की हिम्मत नहीं करता।"
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अनुकम्पा, जो सहायता के लिए, दान के लिए, सेवा के लिए हमें प्रेरित करती है। __दया वह भाषा है, जिसे बहरे भी सुन सकते है, गूगे भी सराह सकते हैं और बुद्ध भी समझ सकते हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था : "दयालु अन्तःकरण प्रत्यक्ष स्वर्ग है।"
स्वर्ग में किसी प्राणी को जो सुख मिलता है, वह दयालु को यहीं अपने हृदय में मिल जाता है।
हज़रत मुहम्मद पैगम्बर का कहना था कि जहाँ पशु मरते हों या मारे जाते हों, वहाँ नमाज मत पढो और जब हज (तीर्थयात्रा) के लिए जाओ तो पेड़ की टहनी तक मत तोड़ो। ___काबा आदिनाथ की चरणपादुका है। ऐडम आदिमका घिसा रूप है। आदिमनाथ अर्थात् आदिनाथ । इथियोपिया की राजधानी एडिसबाबा है, जो आदिश्वरबाबा का अपभ्रष्ट रूप है। खोज करने पर ऐसे अनेक सूत्र मिल सकते हैं, जिनके आधार पर जैनसंस्कृति के विस्तृत क्षेत्र का पता लग सके। जहाँ भी दयामूलक व्यवहार पाया जाता है, वहाँ जैन धर्म का अस्तित्व मिल जायगा।"
दया का एक प्रसिद्ध नाम है-अहिंसा, जो सब धर्मों का सार है। अहिंसा की प्रतिष्ठा में सब धर्मों की प्रतिष्ठा है : .
सव्वानोवि नईओ कमेण जह सागरम्मि निवंडन्ति ।
तह भगवईमहिसां सव्वे धम्मा सम्मिलन्ति ।। [सारी नदियाँ क्रमसे जिस प्रकार समुद्र में जा गिरती है, उसी प्रकार भगवती अहिंसा में सारे धर्म मिल जाते हैं]
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यदि किसी सामान्य सर्वमान्य सूत्र के आधार पर सर्वधर्मसम्मेलन करना हो तो वह सूत्र होगा-अहिंसा।
दान पुण्य का जनक ज़रूर है, परन्तु हिंसा के पाप से वह भी बचा नहीं सकता :
मेरु गिरिकणयदाणं धन्नाणं देइ कोडिरासोओ।
इक्कं वहेइ जीवं न छुट्टए तेण पावणम् ॥ [मेरु पर्वत के बराबर कोई सोने का दान करे और अनाज के करोड़ों ढेर भी दे डाले तथा दूसरी ओर एक जीव की हत्या कर दे तो उसके पाप से वह बच नहीं सकता ! फल भोगे बिना उस पाप से उसका छुटकारा नहीं हो सकता]
दया निकल जाय तो कोई धर्म खड़ा नहीं रह सकता। दयाधर्मनदी तीरे सर्वे धर्मास्तृणाङ्कराः ।
तस्यां शोषमुपेतायाम् कियत्तिष्ठन्ति ते चिरम् ॥ [दयाधर्मरूपी नदी के तट पर सारे धर्म तिनकों के अंकुर के समान उगते हैं। यदि वह सूख जाय तो वे (धर्म) कब तक खड़े रह सकते हैं]
कुरान में लिखा है : ईमान की दो शाखाएँ हैं--सज्जनता और दयालुता। "रहम करने वाले पर रहमान (ईश्वर) रहम (दया) करता है। तुम ज़मीन वालों (मानवों और अन्य प्राणियों) पर रहम करोगे तो तुम पर आसमान वाला रहम करेगा।" ऐसा हजरत मुहम्मद कहा करते थे।
बाइबिल में लिखा है : Thou shalt not kill. [तू किसी की हत्या मत कर]
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१६२
अथर्ववेद में लिखा है :
मा जीवेभ्यः प्रमदः ॥ [प्राणियों के प्रति प्रमाद मत करो (लापर्वाह बनकर किसीकी हत्या मत करो)]
यजुर्वेद में लिखा है :
मा हिंस्यात् सर्वभूतानि ॥ [किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो
धम्मपद में लिखा है :
प्रत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ।। [सब जीवों को अपनी प्रात्मा के समान मानकर न किसी का वध करो, न किसीसे करापो]
सूत्रकृतांगसूत्र में लिखा है :
सव्वे प्रकन्त दुषखा य अमो सव्वे अहिसिया ॥ [सब प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है; इसलिए किसीको मारना नहीं चाहिये]
इन समस्त धर्मशास्त्रों के उद्धरण एक स्वर से दयाका समर्थन कर रहे हैं।
एक महात्मा नदी के तट पर स्नान कर रहे थे । उन्हों ने देखा कि जल में एक बिच्छ छटपटा रहा है - जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है । महात्माने उसे बचाने के लिए हाथसे उठाया । बिच्छूने डंक मारा । वेदना से महात्माजी का हाथ काँप गया और बिच्छू छूटकर फिर जलमें गिर पड़ा । दुबारा उठाया । बिच्छूने फिर हाथको डंक मारा । फलस्वरूप वह दुबारा जलमें गिर पड़ा।
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१६३
महात्माने तीसरी बार उसे उठाकर वेगसे नदी तट पर उछाल दिया । शिष्यों में से एकने पूछा : "गुरुदेव ! आपने बार-बार काटने वाले बिच्छू को भी बचाने का प्रयास क्यों किया ?"
बोले : बिच्छू जैसा प्राणी भी जब डंक मारने का स्वभाव नहीं छोड़ता, तब मनुष्य होकर मैं उसे बचानेका स्वभाव कैसे छोड़ देता ? "
दुःखी प्राणियों के दुःख को मिटाना मनुष्य के स्वभाव में शामिल हो जाना चाहिये । यह कार्य उपकार मानकर नहीं, किन्तु अपना स्वभाव मानकर ही करना चाहिये ।
अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन प्रतिनिधि सभा में भाषण देनेके लिए जा रहे थे ।
मार्ग में उनकी नज़र एक ऐसे सूअर पर पड़ी, जो कीचड़ में फँस गया था और बाहर निकलने के लिए छटपटा रहा था ।
लिंकन ने बग्धीं रुकवाई और सूअर को खींच कर बाहर निकाल दिया । इस प्रयास में कीचड़ के छींटे उनकी पोशाक ( ड्रेस ) पर लग गये; परन्तु अब इतना समय नहीं था कि अपने निवास पर लौट कर पोशाक बदली जा सके । सभा में समय पर पहुँचना जरूरी था इसलिए वे कीचड़ से गन्दी पोशाक धारण किये हुए ही सभाभवम में जा पहुँचे और भाषण दे दिया ।
पोशाक पर कीचड़ लगने का कारण पूछने पर एक प्रतिनिधि से राष्ट्रपति के अंगरक्षक ने रास्ते में घटी पूरी घटना का विवरण सुना दिया ।
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प्रतिनिधि ने सभा में उनके भाषण के बाद खड़े होकर उस घटना के सन्दर्भ में राष्ट्रपतिजी की दयालुता की प्रशंसा की। उसके बाद राष्ट्रपति ने तत्काल खड़े होकर कहा : "मैं ने सूअर पर कोई उपकार नहीं किया है। उसे कीचड़ में तड़पते देख कर मेरे हृदय में जो तड़पन (अनुकम्पा) हुई थी, उसी को मिटाने के लिए मैं ने उसे बाहर निकाला था। इस में प्रशंसा जैसी कोई बात ही नहीं है !"
झठा आरोप लगाकर सुदर्शन सेठ का चरित्रहनन किया गया; किन्तु रानी को बचाने के लिए दया वश वे मौन रहे और कर्मफल मान कर आने वाले परीषह को शान्ति से सहते रहे ।
जैन धर्मकी अहिंसाका अर्थ कायरता नहीं है, जैसा कि आलोचक प्रायः कहा करते हैं। उन्हें इतिहास में देखना चाहिये कि जैनधर्माविलम्बियोंने कैसे-कैसे युद्ध न्यायरक्षा के लिए किये थे ।
वस्तुपाल तेजपाल दो भाई थे। दोनों राणा वीरधवल के मन्त्री थे । वीर धवल गुजरात में मण्डली नामक महानगरी के नरेश थे।
वस्तुपाल और तेजपाल दोनों जैन धर्म के अनुयायी थे। वे केवल मन्त्री ही नहीं थे, वीर भी थे-कुशल योद्धा भी थे। राज्य की रक्षा के लिए उन्हों ने ६७ बार जीवन में वीरतापूर्वक युद्ध किया था और एक भी युद्ध में पराजित नहीं हुए थे । सदा सर्वत्र विजय प्राप्त करके अपने राणा की रक्षा की - अपने राज्य का गौरव बढाया और स्थायी प्रतिष्ठा स्वयं भी प्राप्त की थी।
वस्तु
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ये दोनों तो गृहस्थ थे - श्रावक थे; परन्तु श्रीकालिकाचार्य कौन थे ? वे साधारण मुनि नहौं; किन्तु ज्ञान-दर्शनचरित्र से सम्पन्न अट्ठारह हजार शीलाङ्ग रूपी रथ पर आरूढ एक जैन आचार्य थे।
उनकी एक साध्वी शिष्या थी - सरस्वती। उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो कर उसका शील-भंग करने का प्रयास करने वाले घमण्डी कामुक राजा गर्द मिल्ल को सबक सिखाने के लिए उन्होंने तलवार हाथ में लेकर उस पर आक्रमण किया था ! तलवार उठाने से पहले कुछ समयके लिए उन्होंने वेश का त्याग कर दिया था ।
राजा गर्द मिल्ल ने पराजित हो कर क्षमायाचना पूर्वक यह प्रतिज्ञा कर ली कि भविष्य में वह न किसी जैन साध्वी को छेड़ेगा और न छेड़ने ही देगा। इस प्रकार अपने आक्रमण का लक्ष्य पूरा हो जाने पर कालिकाचार्य ने फिर से मुनिवेश धारण कर लिया और जो कुछ विराधना हुई थी, उसके लिए नियमानुसार प्रायश्चित ले लिया ।
उन्होंने सिद्ध कर दिया कि दुष्ट को दण्डित करने के लिए शस्त्र धारण करना अहिंसा के प्रतिकूल नहीं है ।
क्षमा वीरस्य भूषणम् ।। [क्षमा वीरों का भूषण है कायरों का नहीं]
अहिंसा को कायरता मानने वालोंने ही - “मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी !" जैसी कहावतें प्रचलित कर दी हैं, जो सर्वथा अनुचित हैं - निरर्थक हैं ।
अहिंसाके लिए वीरता और वीरता के लिए सुशीलता अनिवार्य है ।
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स्वतन्त्रता संग्राम के समय एक वीर युवक का शरीर गर्दन कटकर नीचे गिर जाने पर भी तलवार चलाता रहा ! उसकी ऐसी वीरता से अंग्रेज बहुत चकित हुए । उन्होंने उसके पिताकी तलाश की । फिर पितासे विनय के साथ निवेदन किया कि आप यूरोप में चलिये और वहाँ भी ऐसे वीर पैदा कीजिये ।
पिताने कहा : " यूरोप में चलने को मैं तैयार हूँ; परन्तु वहाँ चलना व्यर्थ रहेगा ?"
अंग्रेज : "क्यों व्यर्थ रहेगा ?"
पिता : " वहाँ वैसी माँ नहीं मिल सकेगी, जैसी मेरे वीर बेटेकी थी ! "
अंग्रेज : "वहाँ बहुत सुन्दर गोरी-गोरी हजारों युवतियाँ हैं । अपनी मनपसन्द सौ-दो सौ युवतियोंको उनमें से चुन लीजियेगा ।"
पिता "सुन्दर तो वेश्याएँ भी होती हैं; परन्तु वीर पुरुष उत्पन्न करने के लिए सुशीला पत्नी चाहिये ।"
अंग्रेज : " सुशीला ! यह वाइफ का कौन सा प्रकार है ?" पिता : " आप सुनना चाहते हैं तो सुनिये । एक दिन की बात है । रात का समय था । घर में हम दोनों पतिपत्नी के अतिरिक्त और परिवारका कोई सदस्य नहीं था । मैंने प्यार से उसका मुँह चूम लिया । इससे वह नाराज हो कर अचानक बोली कि आपने पर पुरुष के सामने मेरा चुम्बन कैसे ले लिया ! अपने शिशु को ही वह पर पुरुष मान रही थी, जो उस समय पालने में झूल रहा था । इस
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१६७ घटना से मन-ही-मन उसे इतनी ग्लानि हुई उसने आत्महत्या कर ली।"
अंग्रेज यह कहते हुए चले गये कि ऐसी औरत तो हमारे यूरोप में एक भी नहीं मिलेगी।
एक वैदिक रूपक है :
विश्वकर्मा ने पहले सृष्टि बनाई। फिर उपभोक्ता के रूप में जब वह मनुष्य का निर्माण करने लगा, तब सत्यने कहा : यह स्वार्थवश झूठ बोलेगा, अन्याय करेगा।" शान्ति बोली : "जहाँ सत्य और न्याय नहीं रहते, वहाँ मैं कैसे रह सकती हूँ ?' किन्तु उसी समय प्रेमसे मनुष्य की ओर संकेत करते हुए दया बोली : "आप चिन्ता न करें । मैं मनुष्य के हृदय में रहँगी और उसे सदा सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती रहूँगी !” |
तब से दया बराबर अपनी डयूटी बजा रही है। वह विदेशी विद्वानों से भी ऐसे उद्गार प्रकट कराती है :
___ मैं किसी बगुले को तीरका निशाना बनाने के बजाय उसे उड़ते देखना चाहता हूँ। किसी बुलबुलको खा जाने की अपेक्षा उसके गीत सुनना पसन्द करता हूँ।" - रस्किन
"भारी तलवार कोमल रेशम को नहीं काट सकती । दया और मधुर वाणी से हाथी को चाहे जहाँ ले जाओ ।
- शेख सादी
"दयालु हृदय खुशी का वह फव्वारा है, जो अपने पासकी हर चीज़ को मुस्कानों से भर कर ताजा बना देता है । -इविन
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"मैं पृथ्वीभर की उन सोने की खानों की तरह का-जिनमें कभी कोई फूल नहीं उगता, ऐसा धनवान होना पसन्द नहीं करूंगा-जिसके हृदय में सहानुभूति न हो ! मेरी समझ में नहीं आता कि आदमी लखपति-करोड़पति होते हुए भी किस प्रकार प्रतिदिन ऐसे लोगों के पास से गुजर सकता है, जिनके पास खाने तक को पर्याप्त नहीं है !" -कर्नल इंगरसोल
हज़रत अय्यूब एक बार बीमार पड़े। बीमारीने इतना भयंकर रूप ले लिया कि उनके शरीर में घाव हो गये और उनमें कीड़े बिलबिलाने लगे। कीड़े इतने अधिक हो गये कि वे घावों में से निकल-निकलकर ज़मीन पर गिरने लगे।
दयालु अय्यूब अपनी वेदना शान्ति से सहते रहे, परन्तु उन कीड़ों की वेदना भी उनसे देखी न गई। उन्हें उठा-उठा कर वे फिरसे अपने शरीर के घावों में डालने लगे।
पूछने पर अपने शिष्यों से उन्होंने कहा : “इन कीड़ों की खुराक मेरे शरीर में ही है, जहाँ ये पैदा हुए हैं। घावसे निकल जाने पर खुराक न मिलने के कारण भूख के मारे तड़प-तड़प कर ये बेचारे मर जायँगे। मेरा शरीर तो नश्वर है आज है, कल नहीं रहेगा। इस नश्वर शरीर से जितना भी दूसरों का उपकार किया जा सके, उतना ही अच्छा । मरने के बाद तो यह शरीर किसी काम का नहीं रह जाता। यह कौन नहीं जानता ? परोपकार ही सार है-धर्म का, तब परोपकार के इस हाथ आये अवसर को व्यर्थ क्यों जाने दूं?"
धन्य है ऐसे दयालु विदेशी सन्त को।।
श्री हेमचन्द्राचार्य ने महाराज कुमारपाल को दयाधर्म का महत्त्व समझा दिया था। उनके राज्य में जो पशुबलि
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दी जाती थी, उसे बन्द कराने के लिए जनता को समझाने की युक्ति भी कुमारपाल को उन्हों ने समझा दी थी। यह बलि नवरात्रि के अवसर पर आश्विन मास में दी जाती थी। अनेक पाडों और बकरों को धर्म के नाम पर कण्टकेश्वरी देवी के मन्दिर में काट दिया जाता था।
आचार्यश्री द्वारा सुझाई गई युक्ति के अनुसार महाराज ने बलि के लिए एकत्र समस्त पशुओं को उसी मन्दिर में बन्द करके अपने हाथ से द्वार पर ताला लगा दिया। फिर चार-पाँच घंटे बाद ताला खोल कर पशुओं को मुक्त करते हुए वे लोगों से बोले : “भाइयो! यह देवी किसी पशुको खाना नहीं चाहती, अन्यथा इतनी लम्बी अवधि में एक-दो को तो अवश्य खा जाती। देवी को जगदम्बा कहते हैं। वह सब प्राणियों की माता है। कोई मां अपने बच्चों को कभी खाना नहीं चाहती। जितने पशु हमने इस मन्दिर में बन्द किये थे, उतने ही सुरक्षित रूप से बाहर निकल आये। किसी की एक पूछ तक गायब नहीं हुई; इसलिए आज से यहां बलि नहीं दी जायगी-कभी नहीं।"
इस प्रकार वहाँ सदा के लिए पशुबलि बन्द हो गई।
धनपाल शोमनमुनि के सत्संग से जैनधर्मावलम्बी बन गये थे। वे राजा मुंज के मन्त्री थे, कुशल कवि भी थे।
एक दिन मुज जंगल में शिकार खेलने गये। उन्होंने धनपाल को भी साथ ले लिया : वहाँ हरिणों को उछलते हुए और शकरों को पंजे से ज़मीन खोदते हुए देख कर सहज ही पूछा :
किं कारणं नु धनपाल ! मगा यदेते व्योम्न्युत्पतन्ति विलिखन्ति भुवं वराहा: ?
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[हे धनपाल ! ये हरिण आकाश में उछल रहे हैं और शूकर जमीन में खड्डा खोद रहे हैं- इसका कारण क्या
इस पर धनपालने कहा : मुञ्ज ! त्वदस्त्रचकिताः श्रयितु प्रयान्ति
ह्य के मृगाङ्क मृगमादिवराह मन्ये ॥ [हे मुज! आपके अस्त्र (बाण) से चकित (भीत) होकर हरिण चाँद के मृग का और शूकर आदिवराह का आश्रय लेने को जा रहे हैं]
फिर पूछा : “यह शूकर और हरिण-दोनों हमारी ओर देख रहे हैं। क्या कहना चाहते हैं ये ?" धनपाल : “राजन् ! शूकर कहना चाहता है
रसातलं यातु यदत्र पौरुषम्
___ कुनीतिरेषाऽशरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यदलिनाऽतिदुर्बलो
हा हा महाकष्टमराजकं जगत् ॥ [यहाँ जो पौरुष है, वह पाताल में चला जाय; क्योंकि यहाँ बलवान् के द्वारा अनाथ निर्दोष अत्यन्त दुर्बल मार डाला जाता है। अरे ! यह कितने कष्ट की बात है कि सारा जगत् अराजक (जिसका कोई रक्षक न हो ऐसा) हो गया है ? ] और मृग कह रहा है :
पदे पदे सन्ति भटा रणोद्भटा
न तेषु हिंसारस एष पूर्यते ? धिगीदृशं ते नृपते ! कुविक्रमम्
कृपाश्रये यः कृपणे मृगे मयि ॥
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[हे राजन् ! कदम-कदम पर युद्ध में कुशल सैनिक हैं। उनके द्वारा हिंसा का रस क्यों प्राप्त नहीं कर लिया जाता? तुम्हारे उस बुरे पराक्रम को धिक्कार है, जो कृपापात्र बेचारे मुझ मृग पर किया जा रहा है।]
मुज इन तीनों श्लोकों को सुनकर विचारमग्न हो गया। यह देखकर धनपाल ने स्वयं अपनी ओर से एक श्लोक बना कर इस प्रकार सुनाया :
वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते प्राणान्ते तण-भक्षणात् ।
तृणाहाराः सदैवैते हन्यन्ते पशवः कथम् ॥ [प्राण संकट में हों तब मुह में तिनका ले लेने पर दुश्मन भी छोड़ दिये जाते हैं। फिर हमेशा तिनकों का आहार करने वाले ये मृगादि पशु भला क्यों मारे जाते हैं ? ]
यह सुनकर मुजने बाण तूणीर में रख लिया और पशुओं का शिकार सदा के लिए बन्द कर दिया।
आचार्य श्रीमज्जगच्चन्द्रसूरि से प्रभावित, उदयपुर के एक महाराणाने भी पशु-पक्षियों के मांसभक्षण का त्याग कर दिया था।
एक बार उनकी आँखों में भयंकर दर्द उठा। खूब इलाज कराये गये; परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। अन्त में एक वैद्य ने प्राणिजचिकित्सा का गुप्तरूप से प्रयोग करके उनकी आँखें बिल्कुल ठीक कर दी।
बारीकी से खोजबीन करने पर ज्यों ही महाराणा को पता चला कि आँखों के लिए बनाई गई औषध में कबूतर के जिगर का प्रयोग किया गया था, त्यों ही प्रायश्चित स्वरूप सीसा गर्म करवा कर (पिघला हुआ उस का रस)
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२०२ पी लिया। इस प्रकार अपने प्राणों का अन्त कर दिया । बाद में इसी कारण वे सीसोदिया कहलाये और फिर यही उनके वंश का नाम पड़ गया। महाराणा प्रताप जैसे पराक्रमी, तेजस्वी वीर पुरुष इसी वंश में पैदा हुए थे।
प्राणिहत्या का कैसा दुष्परिणाम होता है ? यह जानने के लिए सन् १६६६ के अखबारों में छपी कलकत्ता के एक मुस्लिम परिवार की लोमहर्षक घटना सुना रहा हूँ।
उस परिवार में पति-पत्नि के अतिरिक्त तीन बच्चे थे। पत्नि स्टोव जला कर उस पर भात चढ़ाने के बाद छरी से सब्जी काट रही थी।
पति ने एक मुर्गी पर छुरी चलाई और फिर किसी काम से छुरी वहीं छोड़ कर बाजार चला गया ।
कटती हुई मुर्गी का क्रन्दन सुन कर बड़े बच्चे को मजा आया तो और वैसा ही मजा लेने के लिए पिताजी वाली छुरी उठा कर उसने अपने छोटे भाई की गर्दन उड़ा दी। बच्चे की चिल्लाहट से भागती हुई माँ घटनास्थल पर आई और गुस्से में विवेकहीन होकर अपने हाथ की सब्जी वाली छुरी से उस बच्चे का पेट चीर दिया। उधर एक बच्चा स्टोव से जल मरा। इस प्रकार मुर्गी की हत्या ने एक मिनिट में तीनों बच्चों की जान ले ली।
क्या ऐसी घटनाएँ पढ़-सुन कर भी लोग अपनी क्रूर मनोवृत्ति से अपना पिण्ड छुड़ाने का प्रयास नहीं करेंगे ?
आचार्य सिद्धसेन ने विक्रमादित्य से, हेमचन्द्रसूरि ने कुमारपाल से और हीरविजयसूरि ने सम्राट अकबर से "अमारी प्रवर्तन" करवाया था। उसका अर्थ है-राजाज्ञा से पशुपक्षियों और जलचरों की हत्या का निषेध लागू कराना ।
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२०३
अहिंसा जैन धर्म का हृदय है। उसी की रक्षा के लिए अन्य सारे विधान हैं :
एक्कंचिय एत्थ वयं निद्दिट्ट जिणवरेहिं सर्वहिं ।
पाणाइवायविरमणमवसेसा तस्स रक्खट्ठा ॥ [समस्त जिनवरों ने प्राणातिपातविरमण (अहिंसा) नामक एक ही व्रत बताया है और शेष सारे व्रत उसी की रक्षा के लिए बनाये गये हैं]]
भक्तपरिज्ञा नामक ग्रन्थ में अहिंसा के विषय में लिखा
तुग न मन्दराम्रो, आगासाओ विसालयं नस्थि ।
जह तह जगम्मि जाणसु धम्ममहिंसासमं नत्थि ॥ [जैसे मन्दराचल से ऊँचा कोई पर्वत नहीं है- आकाश से अधिक विशाल कुछ नहीं है; उसी प्रकार अहिंसा के समान इस दुनियामें दूसरा कोई धर्म नहीं है- ऐसा जानो]
प्रश्न किया जा सकता है कि यदि जैन धर्म में हिंसा का इतना विरोध किया गया है और जैन मुनि अहिंसक के आराधक हैं-अहिंसक हैं तो फिर वे अपने हाथ में हिंसा का साधन लट्ठ क्यों रखते हैं ?
- इसका उत्तर समझकर दिमाग में रख लेना जरूरी है, जिससे अपने मन में कोई भ्रम न रहे । साथ ही यदि किसी अन्य व्यक्ति के मन में ऐसा भ्रम उत्पन्न हो जाय तो आप स्वयं उसका निराकरण कर सकें।
वैसे यह भ्रम जैनों की अपेक्षा जैनेतर व्यक्तियों में ही अधिक संभव है; क्योंकि वे जैनमुनियों के आचार - विचार से अनभिज्ञ होते हैं ।
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कभी कहीं जैन मुनियों के एक-दो प्रवचनों में अहिंसा के समर्थन या प्रतिपादन की बात सुनकर तथा उनके हाथ में लाठी भी देखकर वे साधुओं की हँसी उड़ा सकते हैं - उन पर यह आरोप लगा सकते हैं कि उनके विचार और प्रचार में एकरूपता का अभाव है - उनकी कथनी और करनी में अन्तर है - वे अहिंसा के पालन का दूसरों को सभा में बैठ कर एक ओर तो लम्बा चौड़ा उपदेश देते हैं तथा दूसरी ओर अपने हाथों में लाठी भी रखते हैं, जिससे दूसरों की पिटाई की जा सकती है दूसरों का मस्तक फोड़ा जा सकता है !
-
भ्रम अपनी जगह सही है । मुझे इस प्रश्न के उत्तर में कहना है कि जैनसाधु जिन प्रयोजनों से अपने हाथ में लाठी रखते हैं, संक्षेप में वे इस प्रकार हैं :
पहला प्रयोजन है - वृद्धावस्था में सहायता । श्रमण हजारीमल ने राजस्थानी भाषा में बुढापे का वर्णन किया है :
धग धग करे पग डग डग करे नाड़ तग-तग करे नैण पूरो नहीं सूझे है कड़कड़ करे हाड़ सड़-सड़ करे नाक गड़-गड़ करे पेट हाथ घरणा धजे है | काना नहीं सुणे हाका भण भण करे माका प्रस्यो दु:ख बुढापारो डोकरो अमूके है कहत हजारीमल ज्ञानी वचनों के बल अरे जीव- श्रातमा ! तू अब क्यों न बूज्ञे है ? ऐसा कमजोर बूढा मुनि भी लाठी के सहारे खड़ा हो सकता है - कुछ कदम चल भी सकता है ।
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२०५ दुसरा प्रयोजन है - जल की गहराई का ज्ञान । विहार के समय मार्ग में नदी-नालों को पार करने से पहले लाठी से उनके जल की गहराई जानी जा सकती है। और बहुत अधिक गहराई न हो तो उन्हें पार किया जा सकता है ।छोटे-छोटे पल्वलों (जल भरे गड्ढों या पोखरों) को तो लाठी के बल पर कूद कर भी पार किया जा सकता । जिसे तैरने न आता हो, ऐसा मुनि किसी नदी की गहराई जाने बिना यदि उसे पार करने का प्रयास करे तो वह डूब सकता है. बह सकता है अर्थात उसका जीवन खतरे में पड़ सकता है। लाठी जल की गहराई का ज्ञान देकर उस खतरे से हमारी रक्षा करती है।
तीसरा प्रयोजन है - बीमार की सहायता। विहार करते-करते मार्ग में अचानक कोई साधु बिमार हो जाय या उसे हार्ट अटेक हो जाय तो दो लाठियों से स्ट्रेचर बना कर उसकी सहायता से (उसमें उसे बिठा कर) उसे राह पार कराई जा सकती है।
चौथा प्रयोजन - मार्ग में रात बिताना । यदि विहार करते-करते साधु-समुदायको रात राह में ही हो जाय तो एक चादर और लाठियों की सहायता से सोने लायक एक कैम्प बनाया जा सकता है।
लाठी रखने के कुछ और प्रयोजन भी सोच कर निकाले जा सकते हैं। दिशानिर्देश के लिए इतने प्रयोजन पर्याप्त हैं।
इन सबके मूल में केवल अहिंसा है। अहिंसा नेगेटिव है और दया उसीका पोजिटिव । दोनों के मिलन से धर्म का पूर्ण रूप बनता है :
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कोडिकल्याणजणणी दुक्खदुरियारिवग्गनिट्ठवणी । संसारजलहितरणी एका चिय होइ जीवदया ॥ [करोड़ों कल्याणों की जननी, दुःख पाप श्रादि शत्रुनों को समाप्त करने वाली तथा संसार सागर में नौका के समान अकेली जीव-दया है]
दया ही मित्रता की पात्रता है ।
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१३. भावना
भावना हमारे जीवन के समस्त क्रिया-कलापों की संचालिका है। दान, शील, तप और भाव - इन चारों में भाव की ही मुख्यता है। कहा गया है :
दानं दहति दौर्गत्यम् शीलं सृजति सम्पदम् ।
तपस्तनोति तेजांसि भावो भवति भतये ॥ [दान दुर्गति को जला देता है अर्थात् दाता सदा सद्गति ही पाता है । शील सम्पदा का सृजन करता है अर्थात् सुशीलता से व्यक्ति की शोभा (छबि-इमेज) बनती है। तपस्यासे तेजस्विता काविस्तार होता है अर्थात् तपस्वी बड़ा प्रभावक होता है और भाव से कल्याण होता है]
कल्याण हमारा अभीष्ट है –लक्ष्य है। निर्दोष भावना से ही उस लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है । भावना को दूषित करने वाले तीन शल्य हैं- मायाशल्य, मिथ्यात्वशल्य और निदानशल्य ।
दूसरों को ठगने की वृत्ति माया है। सत्यपर विश्वास न रखना अथवा असत्य पर विश्वास रखना मिथ्यात्व है और कामभोग की लालसा रखना निदान है । शल्य (काँटा) शरीर में कहीं भी चुभता रहे तो पूरे शरीर में अशान्ति (बैचेनी) पैदा हो जाती है, उसी प्रकार माया, मिथ्यात्व और निदान मन में चुभ-चुभ कर उसमें अशान्ति असन्तोष आदि उत्पन्न कर देते हैं, ये मन को एकाग्र नहीं होने देते और इसी लिए भावना निर्मल नहीं हो पाती, जो समस्त सिद्धियों की जड़ है।
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मन में विरक्ति को जन्म देने वाली बारह भावनाएँ हैं :
१. अनित्यभावना – संसार में जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह सब नष्ट भी होता है । जन्म के बाद मृत्यु और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था अनिवार्य रूप से आती है धन, बन्धु, पुत्र, मित्र, कलत्र, सौन्दर्य, शक्ति आदि सब क्षणिक हैं । शाश्वत केबल आत्मा या परमात्मा है, इसलिए अनित्य वस्तुओं के पीछे दौड़-धूप न करके हमें शाश्वत सुख देने वाले मोक्षमार्ग में कदम बढ़ाने हैं ।
-
२. अशरणभावना – जैसे सिंह के पंजों में फँसे हरिण की रक्षा कोई नहीं कर सकता, उसी प्रकार मृत्यु से भी प्राणी की कोई रक्षा नहीं कर सकता; किन्तु मृत्यु केवल शरीर को अलग कर सकती है, आत्मा को नहीं - यह बात सिखाने वाले परमात्मा हैं - गुरुदेव हैं - धर्म है; इसलिए हमें सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की शरण ग्रहण करनी है ।
३. संसारभावना - मिथ्यात्व और विषय - कषाय के कारण जीव चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकता रहा है तथा जन्म-जरा-मृत्यु के दुश्चक्र से छूट नहीं पाया है । संसार के इस स्वरूप को समझकर हमें आत्मस्वरूप का ध्यान करना है ।
४. एकत्वभावना - जीव अकेला ही गर्भ में देह को धारण करके जन्म लेता है, शिशु के रूप में प्रकट होता है और फिर क्रमशः बालक, किशोर, युवक, प्रौढ और वृद्ध होकर जलाने या गाड़ने के लिए अपना शरीर छोड़कर चल देता है और फिर शुभाशुभ कर्मो के अनुसार अकेला ही स्वर्ग या नरक के सुख-दुःख भोगता है । परलोक में प्रस्थान करते समय दूसरा कोई उसके साथ नहीं आता - ऐसा सोचकर हमें मोह से दूर रहना है ।
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५. अन्यत्वभावना - शरीर और जीव में भिन्नता है । शरीर जीव नहीं है और जीव शरीर नहीं है । शरीर तो अन्त में यही छूट जाता है; परन्तु जीव नहीं छूटता । संसार के समस्त भौतिक पदार्थ निर्जीव हैं - क्षणिक हैं । जीव सब प्राणियों में शाश्वत है । यह सोचकर हमें आत्मस्मरण करना है ।
६. अशुचि भावना : शरीर मल, मूत्र, मांस, हड्डी आदि अपवित्र दुर्गन्धमय वस्तुओं से भरी हुई चमड़ी की एक थैली के अतिरिक्त और क्या है ? वह ऐसी मशीन है, जो सुन्दर सुगन्धित मधुर स्वादिष्ट भोजन को भी कुछ ही घंटों में विष्टा बना देती है । ऐसी घिनौनी देहके सुखके लिए पापाचरण करना मूर्खता है, जो हम से छूट नहीं पा रही है । उसे छोड़ने का हमें प्रयास करना है ।
७. आस्रव भावना : प्रशस्त और अप्रशस्त कार्यों से पुण्य और पाप करता हुआ जीव जिन कर्मों का आस्रव करता है, वे ही उसकी मुक्ति में बाधा डालते हैं । बेड़ी बेड़ी हैभले ही वह लोहे की हो या सोने की, बाँधती जरूर है । सुख भी जीव को भोगना पड़ता है और दुःख भी । ये दोनों क्षणिक हैं । इन्हें छोड़ कर हमें शाश्वत मुक्ति सुख पाने का ही प्रयास करना है ।
८. संवर भावना : सम्यक्त्व, व्रत, कषाय विजय, मनवचन-काया के योगों का अभाव - ये सब संवर के रूप हैं । पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ, दशलक्षण धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह विजय और पाँच प्रकार का चारित्र - ये सब उस संवर के साधन हैं । साधनों को अपना कर हमें संवर को जीवन का अंग बनाना है ।
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६. निर्जरा भावना : अनशन आदि बाह्य और प्रायश्चित आदि छह आभ्यन्तर तप करने से कर्मोंकी निर्जरा होती है। इसके अतिरिक्त शुभाशुभ फल भोगने पर भी निर्जरा होती है । इस प्रकार निर्जरा के दो भेद हो जाते हैं - तपस्या कृत निर्जरा और फल भोगजन्य निर्जरा - दूसरी निर्जरा तो सभी प्राणियों की अनायास होती रहती है; परन्तु पहली निर्जरा के लिए तपस्या करनी पड़ती है। निर्जरा से मोक्ष का मार्ग क्रमश: छोटा होता जाता है । इसके लिए यथा शक्ति निदानरहित तपस्या हमें करते रहना है ।।
१०. लोक स्वरूप भावना : अनन्त आकाश के बीच में जीवाजीवादि से परिपूर्ण लोक है । उसके शिखर पर अनन्त सिद्ध विराजमान हैं। आगकी लपट जिस प्रकार ऊपर की ओर उठती है, उसी प्रकार आत्मा भी ऊर्ध्वगामी हैऐसा सोचकर हमें उसकी ऊर्ध्वगति में सहायक बनना है ।
११. बोधिदुर्लभ भावना : जिस प्रकार समुद्र में गिरे हुए रत्न का फिर से पाना अत्यन्त दुर्लभ है, उसी प्रकार मनुष्यभव भी दुबारा पाना दुर्लभ है । मनुष्य-भवमें भी मिथ्यात्वका ऐसा चक्र है कि उससे बचकर सम्यक्त्व प्राप्त करना और भी दुर्लभ है । ऐसा सोच कर प्राप्त सम्यक्त्व को सदा टिकाये रखना है ।
१२. धर्मभावना : जिनेश्वर वीतराग देवने दो प्रकार के धर्म की प्ररूपणा की है । पहला श्रावक धर्म है और दूसरा श्रमण धर्म । दुर्गति में गिरने वाले जीव का जो उद्धार करता है, वह धर्म है, हमें ऐसे धर्म का अवलम्बन लेना है।
इन बारह भावनाओंका यहाँ बहुत संक्षिप्त परिचय दिया गया है ।
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२११ मन रूपी भवन में सम्यग् ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के पंखे तो लगे हों; परन्तु उनमें यदि गति न हो तो क्या लाभ ? भावना ही उनकी गति है।
स्वास्थ्य के लिए औषध और पथ्य (परहेज) दोनों आवश्यक माने जाते हैं। उसी प्रकार आचरण और भावना दोनों मानसिक शान्ति के लिये आवश्यक हैं - ऐसा मानना चाहिये ।
. भावना से मन-भवन वातानुकूलित बन जाता है । फिर न तो वह क्रोध और अभिमान की गर्मी से प्रभावित होता है और न माया और लोभ की ठण्ड से ही !
यदि कोई तालेमें चाबी उल्टी धुमाये तो हाथमें छाला पड़ जायगा, पर ताला नहीं खुलेगा। खुलेगा तभी जब उसे ठीक दिशामें घुमाया जायगा । मन भी एक ऐसी ही चाबी है। उसे संसार की दिशामें न घुमा कर परमात्मा की दिशामें घमायें तो मुक्ति का ताला खल जाये - मोक्ष मिल जाये । वह भावना ही है, जो मन को अनुकूल दिशामें घुमा सकती है।
आत्णकल्याण की साधना में बुद्धिसे अधिक भावना की आवश्यकता होती है। वही जन्म-मरण को मिटा सकती है :
भाबना भवनाशिनी ॥ [भावना भव (जन्म-जरा-मृत्यु रूप चक्र) की नाशिका है]
अमावस को आपने कभी चाँद देखा है ? मन में यदि कषायों का अन्धकार छाया हुआ हो तो प्रात्मदर्शन असंभव हो जायगा । यही हो भी रहा है । भावना उस अँधेरे को नष्ट करने की शक्ति है ।
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जैसे तन्तु (धागे) होंगे, वैसा ही पट (वस्त्र) बनेगा। जैसी भावना होगी, वैसी ही सिद्धि होगी।
यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी ॥ [जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है]
बड़े मुल्ला ने एक दिन किसी हिन्दू मित्र से कहा कि तुम्हारे राम अधिक ताकतवर हैं या हमारे खुदा - इस को जाँच करनी चाहिये ।
हिन्द : "कैसे करे ? कौन-सी कसौटी बनायें जाँचके लिए ?"
मुल्ला : “ऐसा करें कि पहले तुम इस खजूर के झाड़ पर चढ़ कर (अपने इष्टदेव का स्मरण करके) जमीन पर कूदो । फिर मैं भी कूद्गा । जिसका इष्टदेव शक्तिशाली होगा, वह बच जायगा और दूसरा घायल हो जायणा ।"
हिन्दू : "ठीक है । मैं तुम्हारा प्रस्ताव मंजूर कर लेता हूँ। चलो कूदो।"
मुल्ला : “नहीं पहले तुम्हीं कूदो।" हिन्दू : "अच्छी बात है । मैं कूद लेता हूँ।"
ऐसा कह कर हिन्दू खजूर पर चढ़ गया और "श्रीराम !" बोलते हुए नीचे कूद पड़ा । उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ ।
अब आई मुल्ला की बारी । वह सोचने लगा - "हिन्दू के राम की तो परीक्षा हो गई । अब मेरे खुदा का नम्बर है । मैं उनके नाम को पुकार कर कूदू गा; किन्तु क्या पता
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२१३ वे इस समय आराम फरमा रहे हों और मुझे बचाने न आये । यदि आ गये तो ठीक; परन्तु नहीं आये तो क्या होगा ? मैं फोकट मैं मारा जाऊँगा ।" आखिर उसने दोनों नाम एक साथ पुकार ने का निश्चय कर लिया। फिर खजूर पर चढ़ कर पुकारा : "जय राम खुदैया ! जय खुदा रमैया !!" ___ और कूद पड़ा । कोई नाराज़ न हो - इस दृष्टि से एक बार राम का और दूसरी बार खुदा का नाम पहले पुकार लिया, परन्तु वह बच नहीं सका । उसकी एक टाँग टूट गई । न रामने रक्षा की और न खुदाने ।
संशयात्मा विनश्यति ॥ [जिसे संदेह होता है, वह नष्ट हो जाता है]
बीमार होने पर कोई व्यक्ति यदि एक गोली होमियो पैथिक की, एक बायोकेमिक की, एक आयुर्वेदिक की और एक एलोपैथिक की मिलाकर खाना शुरू करे कि किसी-नकिसी से कुछ-न-कुछ तो लाभ हो ही जायगा तो परिणाम क्या होगा ? आप स्वयं सोच सकते हैं । स्वास्थ्य के लिए किसी एक पैथी पर पूरी श्रद्धा रख कर उसीका पहले इलाज करना चाहिये । उससे लाभ न हो तो फिर पैथी बदली जा सकती है।
मौलाना रूभी अपने शिष्यों के साथ किसी खेत में गये । वहाँ किसानने दस-दस हाथ गहरे पचास गड्ढे खोद रक्खे थे और उनमें जल न निकलने के कारण वह इक्कावनवाँ नया गड्ढा खोदने की तैयारी कर रहा था। रूमी ने कहा कि यदि पचास गड्ढे अलग-अलग न खोद कर इस किसान
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२१४ ने पूरी शक्ति एक ही गड्ढे में लगा दी होती तो सौ डेढ़ सौ हाथ गहराई पर ही पानी निकल आता ।
यही बात साधना के क्षेत्र में है। किसी एक लक्ष्य पर मनको केन्द्रित करके पूरी शक्ति से उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वाला ही सफल होता है। शर्त यही है कि उस प्रयत्न में भावना को भी शामिल कर लिया जाय । प्रभु महावीर ने एक सूत्र दिया है : जे आसवा ते परिस्सवा । जे परिस्सवा ते प्रासवा ॥
-प्राचारांगसत्र [जो आस्रवहैं, वे ही संवर हैं और जो संवर हैं वे ही आस्रव हैं]
इसका तात्पर्य यह है कि भावना की विशेषता के कारण जो कर्मवन्ध के स्थान हैं, वे ही कर्मनिर्जरा के स्थान बन जाते हैं और जो कर्मनिर्जरा के स्थान हैं, वे ही कर्मबन्ध के स्थान बन जाते हैं।
एक छोटे-से उदाहरण द्वारा मैं इस बात की पुष्टि करने का प्रयत्न करता हूँ :
दो मित्र थे-राम और श्याम । एक दिन राम ने श्याम से कहा कि आज नगर के विशाल मन्दिर में एक पहँचे हुए महात्मा का धार्मिक प्रवचन होने वाला है। सुनने चलते हैं।
श्याम ने कहा : "नहीं मित्र ! क्या लाभ है प्रवचनों से ? धर्मध्यान, भक्ति, उपदेशश्रवण, शास्त्रों का अध्ययन-ये तो सारे वृद्धावस्था के काम हैं। हम तो किशोर हैं। अभी तो हमारे खेलने-खाने के दिन हैं । अमुक टॉकीज में एक नई
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२१५
फिल्म लगी है। अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी और अमजदखान उसके एक्टर-एक्टस हैं। उसे देखने चले।
___ दोनों अपनी बात पर दृढ रहे। किसीने दूसरे का प्रस्ताव नहीं माना । दोनों अलग-अलग दिशाओं में रवाना हो गये। एक मन्दिर में प्रवचन सुनने चला गया और दूसरा टॉकीज में फिल्म देखने।
प्रवचन में राम बैठ तो गया, परन्तु उसका मन उसमें नहीं लगा। वह सोचने लगा कि इधर न आकर यदि मैं यदि श्याम के साथ फिल्म देखने गया होता तो कितना आनंद आता ! मित्र भी नाराज नहीं होता।
यही बात इधर टॉकीज में बैठा-बैठा श्याम सोचता है कि यदि मैं इधर न आकर राम के साथ मन्दिर में प्रवचन सुनने गया होता तो कान पवित्र हो जाते-जीवनसुधार की कुछ प्रेरणा मिली होती और फिर मित्र भी नाराज नहीं होता।
इस प्रकार दोनों का मन अपने अभीष्ट स्थानों पर नहीं लगा। प्रवचन और फिल्म समाप्त होते ही दोनों एक-दूसरे की प्रशंसा करने और धन्यवाद देने के लिए चल पड़े। उसी स्थान पर दोनों आमने-सामने आ मिले और दोनोंने एकदूसरे को नाराज करने की अपनी-अपनी भूल कबूल की।
इस दृष्टांत से आप समझ गये होंगे कि भावना कैसा रोल अदा करती है ! राम के लिए संवर का स्थान भी आस्रव का कारण बन गया और श्याम के लिए प्रास्रव का स्थान भी संवर का कारण बन गया।
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पूर्वभव का संस्कार और घर का तिरस्कार पाकर छह वर्ष का एक बालक वल्लभीपुर के उपाश्रय में आया । उपाश्रय का द्वार खुला था । बालक ने उसमें बिराजमान आचार्यश्री के चरण पकड़ कर प्रार्थना की कि दीक्षा देकर आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए ।
श्राचार्यश्री ने कहा : " वत्स ! हम तुम्हारे माता-पिता की अनुमति पाये बिना तुम्हें दीक्षित नहीं कर सकते ।
बालक : "अनुमति मैं आप को अभी दिला देता हूँ । आप मेरे साथ घर चलिये ।
"
आचार्यश्री चल पड़े । घर पहुँच कर बालक ने माँ-बाप से कहा : "मैंने संसार छोड़ दिया है । ये आचार्यश्री हैं । मैं इनका शिष्य बनना चाहता हूँ । आप इन्हें दीक्षा की अनुमति दे दीजिये । "
माँ-बाप ने कहा : "गुरुदेव ! एक ही शर्त पर हम दीक्षा की अनुमति दे सकते हैं कि दीक्षा के समय बालक का नाम आप ऐसा रखें कि उससे इसके माँ-बाप का ईसको स्मरण होता रहे ।'
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आचार्यश्री ने स्वीकृति दे दी । इस प्रकार अनुमति प्राप्त होते ही दीक्षा देकर बालक का नाम " उमास्वाति" रखा गया, क्योंकि उमा बालक की माता का नाम था और स्वाति पिताका.
ये वही उमास्वाति थे, जिन्होंने अमर ग्रन्थ " तत्त्वार्थसूत्र” की रचना की, जो दिगम्बरों और श्वेताम्बरों का सर्वमान्य शास्त्र है ।
भावना ही थी यहाँ, जिसने बालक का कल्याण कर दिया. परदेश से लौटा हुआ एक आदमी अपने साथ अनेक कलात्मक वस्तुएँ ले कर आया । उसने वस्तुएँ दिखाने
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के लिए अनेक मित्रों को निमन्त्रित किया । मित्र निमन्त्रण पाकर घर आ भी गये और उस आदमी ने एक-एक वस्तु उठाकर उसका परिचय देना प्रारम्भ ही किया था कि अकस्मात् बल्ब फ्यूज हो गया । अब अन्धकार में यदि वह केवल शब्दों का प्रयोग करता रहे तो क्या उन मित्रों को पूरा सन्तोष होगा ? बिल्कुल नहीं । यही बात हमारे धार्मिक प्रवचनों में होती है | श्रावक-श्राविकाओं की भावना का बल्व फ्यूज हो गया है, इसीलिए हमारे कोई शब्दों से किसी को सन्तोष नहीं होता । हाँ, जिनकी भावना का बल्ब जल रहा है, उन्हें आज भी सन्तोष होता है - हो रहा है ।
लालटेन की हंडी पर काजल जमा हो तो लौका प्रकाश बाहर नहीं आ पाता; उसी प्रकार यदि भावना अशुद्ध हो - उस विषयकषाय की कालिमा लगी हो तो आत्मा का प्रकाश प्रकट नहीं हो पाता । ज़रूरत है- उस कालिमा को मिटाने की ।
प्रवचन सायरन के समान भावना को जगाने के लिए है । साधु ओपरेटर है । मेरी तरह प्रतिदिन वह पौने नौ बजे से दस बजे तक सायरन बजाता है; किन्तु होते हैं कुछ लोग, जो सायरन की आवाज़ सुनकर भी सोते ही रहते हैं ।
विद्यार्थी को देख कर आपको विद्यालय की याद आ जाती है, पुलिस को देख कर जेल की और डॉक्टर को देखकर अस्पताल की । उसी प्रकार साधुको देखकर आपको किसकी याद आनी चाहिये ? सिद्धशिला की या मोक्षकी; क्योंकि मोक्ष की साधना में उसने अपना जीवन समर्पित कर दिया है । कहा है :
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अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत् । गृहीत ईव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
[ विद्या और धन का संचय तो बुद्धिमान् अपने को अजर अमर मान कर करे; किन्तु मृत्यु ने मेरे केश पकड़ रक्खे हैं- ऐसा मानकर धर्म का श्राचरण करे ]
मृत्यु तो आयगी ही; परन्तु जो धर्मात्मा है, वह उससे उद्विग्न नहीं होगा । उसको सामने रखकर ही तो उसने धर्माचरण किया है ! यह सोचा है :
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥ [ मौत सदा पास ही खड़ी है; इस लिए मुझे धर्म का संग्रह करना है ]
इस प्रकार धर्मसंग्रह के लिए प्रेरणा भावना ही देती है ।
भावना की जागृति में द्रव्य भी बहुत सहायक होता है । रावण चाहता था कि अशोक वाटिका में बैठी हुई सीता स्वेच्छा से मुझे स्वीकार कर ले । मन्त्रियों ने सलाह दी कि आप वेश बदलने में कुशल हैं । संन्यासी का वेष पहिनकर सीता को चुरा लाये थे; उसी प्रकार राम का वेश पहिनकर सीता के सामने चले जाइये । वह आपको स्वीकार कर लेगी ।
रावण ने क्या कहा ? वह बोला कि यह प्रयास मैं पहले ही कर चुका हूँ; परन्तु उस वल्कलधारी राम का वेश पहिनते ही मेरी वासनाएँ विलीन हो जाती हैं - विकार विलुप्त हो जाते हैं - कामनाएँ कोसों दूर भाग जाती हैं! सारा गुड़ गोबर हो जाता है; क्या करूँ ?
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२१६ वेश का भावना पर प्रभाव इस उत्तर से प्रमाणित होता है यही कारण है कि सामायिक के लिए वेश बदलना आवश्यक माना जाता है :
सामाइयम्मि उकए समणो इव सावनो हवइ जम्हा ।
ए एणं कारणे णं बहुसो सामाइयं कुज्जा । [सामायिक करने पर श्रावक श्रमण के समान हो जाता है। इस कारण बार-बार सामायिक की जानी चाहिये |
सामायिक तो आप करते हैं; परन्तु उसके बत्तीस दोष कौन से हैं ? यह तो मालूम न हो तो निर्दोष सामायिक कैसे होगी ? और जब तक निर्दोष सामायिक आप नहीं करते तब तक शुद्ध भावना की जागृति कैसे होगी ?
धन के लिए धनवानों की आराधना की जाती है तो सामायिक के लिए भी श्रमणों की उपासना करनी होगी; क्योंकि श्रमण निरन्तर सामायिक में ही रहते हैं। वे ही सामायिक की कला में कुशल होते हैं। जो इस कला में कुशल नहीं हैं-ऐसा आप मान सकते हैं।
ज़रा-सा धन पाने के लिए लोग नौकरी ढूढते हैं - इंटरव्यू देने के लिए बड़े-बड़े ऑफिसों में दौड़े जाते हैं ; परन्तु मैं आप सबको निमन्त्रण देता हूँ। आप मेरे आफिस में आइये। बिना इंटरव्यू लिये ही मैं सबको करोड़पतिअरबपति बना देता है। मैं आपको सामायिक की सविस दे दूंगा और तत्काल आपके जीवन में कितना परिवर्तन आ जाता है ? उसे देखिये - परखिये - मूल्यांकन कीजिये उसका ! करोड़पति - अरबपति, राष्ट्रपति आदि सब आपको वन्दन करेंगे। आपका गौरव उन सबसे अधिक होगा। क्या तैयार हैं आप इसके लिए ?
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२२०
आप कहेंगे : "महाराज ! शक्ति तो है, पर भावना नहीं है।"
स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में गये थे। वहाँ उनकी प्रतिभासे चमत्कृत होकर एक महिलाने प्रार्थना की : "मुझे आपके समान तेजस्वी बालक चाहिये। आप मुझसे विवाह कर लीजिये, जिससे आपके समान प्रतिभाशाली पुत्र प्राप्त करने की मेरी अभिलाषा पूरी हो सके ।"
उन्होंने उत्तर दिया : “यदि ऐसी आपकी अभिलाषा है तो आप मुझे ही अपना पुत्र मान लीजिये माताजी ! जीवनभर विवाह न करने का जो मैंने व्रत लिया है, मुझे उसका पालन करना है। व्रत जीवन है मेरा। व्रत को तोड़ना मेरे लिए मृत्यु से बढ़ कर दुःखद होगा।"
इसे कहते हैं - भावना की दृढ़ता।
एक दिन उनके पाँवों में जूते की ओर संकेत करते हुए किसी ने उनसे कहा : "स्वामीजी ! आपने पाँवों में अमेरिकन जूते कहों पहिन रक्खे हैं ?"
बोले : "भाई ! पाँव मेरे दौकर हैं। नौकर किसी भी देश का हो सकता है। हाँ, मस्तिष्क भारतीय है-विचारों में भारतीयता है; इसलिए मस्तक भारतीय साफ से ढका है।"
हमारा मस्तिष्क बुद्धि का निवास है । वह शुद्ध भावना से अलंकृत होना चाहिये।"
विवाह के समय "सावधान" शब्द सुनकर स्वामी रामदास विवाह मण्डप से भाग गये। उन्होंने सोचा कि यहाँ खतरा होता है, वहीं सावधान हो जाना चाहिये ।
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२२१ एक जगह दुलहन की विदाई हो रही थी एक बालक ने अपने पिताजी से कहा : “बापू ! यह दुलहन क्यों रो रही है ?'' पिता ने कहा : बेटे ! यह माँ-बाप को छोड़ कर जा रही है। इसलिए इसे रोना आ रहा है।"
बालक : "और बापू ! यह दुल्हा क्यों नहीं रो रहा है ?"
पिता : “बेटे ! इसे रोने की जल्दी नहीं है; क्योंकि आगे जीवन-भर इसे रोना ही रोना है।"
विवाह के बाद पहले "जान' (राजस्थान में बरात को जान कहते हैं) जाती है और बाद में “वर'' की बिदाई होती है। जान के बाद वर मिलाने से बनता है - जानवर अर्थात वैवाहिक जीवन में जानवर की तरह कष्ट सहने पड़ते हैं। शायद यही सोचकर रामदास बनारस चले गये और संन्यास लेकर आत्मकल्याण में लग गये।
तुकिस्तान के किसी बादशाहने भारत में यह जानने के लिए एक प्रतिनिधि-मण्डल भेजा कि यहाँ के बादशाहों की अपेक्षा भारत के राजाओं की आयु अधिक लम्बी क्यों होती है। प्रतिनिधिमण्डल भारत में आकर दिल्ली के सेम्राट से मिला।
अपनी समस्या सम्राट के सामने रखी। सम्राट ने उत्तर में कहा : "आपको बगीचे में एक बड़ के झाड़ के नीचे ठहरना होगा। जिस दिन दिन वह झाड़ सूख जायगा उसी दिन आपकी समस्या का समाधान किया जायगा । उससे पहले नहीं।'
प्रतिनिधि इस बात से बहुत घबराये; परन्तु उन्हें अपने प्रश्न का उत्तर तो प्राप्त करना ही था; इसलिए जैसा
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२२२ समाट कहें, वैसा करना जरुरी हो गया था। वे बड़ के झाड़ के नीचे ठहरा दिये गये। उसकी विशाल छाया में प्रतिनिधियों के लिए एक-एक पलंग डाल दिया गया। वे दिन-रात उसी के नीचे रहने लगे। भोजन भी उनके लिए वहीं पहुँचा दिया जाता था। शौच, स्नान आदि के लिए छुट्टी मिलती थी।
सब प्रतिनिधियों की नज़र हमेशा झाड़ पर ही लगी रहती और वे "हाय-हाय” करते रहते तथा सोचते रहते कि इतना बड़ा झाड़ है - पता नहीं, कब तक सूखेगा - कब अपने प्रश्न का उत्तर मिलेगा और कब अपने देश लौट कर हम अपने बीबी-बच्चों से मिल पायेंगे ।
छह महीनों बाद वृक्ष सूख गया। बड़ी खुशी से उन्होंने यह सूचना सम्राट को दी। सम्राट ने उत्तर दिया कि जिस प्रकार आपकी आहों से वृक्ष सूख गया, उसी प्रकार जिस बादशाह के लिए प्रजाजनों की अाहें निकलती हैं, वह अल्पायु होता है। यहाँ के सम्राट प्रजा की सेवा कर के आशीर्वाद लेते हैं; इसलिए दीर्घायु होते हैं।
'तुलसी' हाय गरीब को कबहु न निष्फल जाय । मुई खाल को साँससों लौह भस्म व्है जाय ॥
अन्त में भावना का प्रभाव बताने वाली एक छोटी-सी कया और सूनाकर मैं आज का अपना वक्तव्य समाप्त करुंगा। एक बादशाह घोड़े पर सवार होकर जंगल में शिकार खेलने गया। वहाँ साथियों से बिछड जाने के बाद भूख-प्यास और थकावट मिटाने के लिए एक खेत के निकट पहुँचा । खेत में गन्ने खड़े थे। खेत की मालकिन एक बुढिया थी ।
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२२३ घोड़ा एक पेड़ से बाँध कर बादशाह ने खेतमें प्रवेश किया। वहाँ मालकिन से प्रार्थना की : "माताजी ! मैं एक भूखा-प्यासा मुसाफिर हूँ। यदि आप एक गन्ना दे दें तो मैं उसे चूसकर अपनी भूख-प्यास दोनों मिटाने में थोड़ी सफलता पा सकता हूँ।" ।
बुढिया बोली : “बैठो बेटा ! इस खाट पर बैठकर थोड़ विश्राम कर लो। गन्ना चूसने में तुम्हें बहुत समय लगेगा। मैं तुम्हें गन्ने का रस ही ला देती हूँ। पीकर अपनी भूख-प्यास पर काबू पा लेना।"
यह कह कर बुढियाने ढाक के पत्तों में से एक तोड़ा। उसका दोना बनाया। दोना लेकर वह एक गन्ने के पास गई । गन्ने को काँटा चुभोया और ज्यों ही काँटा बाहर निकाला, रस की धार छूट पड़ी। उससे दोना भर लिया और काँटे से पुनः छेद बन्द करके बादशाह के हाथ में दोना दे दिया।
गन्ने का स्वादिष्ट रस पीते हुए बादशाह ने विचार किया कि किसानों को कुदरत कितनी अच्छी फसल देती है ! मैं महल में लौटकर इनका टैक्स दूना कर दूंगा। इसके बाद रसका एक दौना और माँगा। बुढिया गई भी; परन्तु इस बार आठ-दस गन्नों में काँटे चुभोने पर एक दौना बड़ी मुश्किल से भर पाया।
इसका कारण पूछने पर बुढियाने बताया कि या तो मेरे भाग्य बदल गये हैं या यहाँ के बादशाह की नीयत बदल गई है।
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२२४
यह सुनकर बादशाह ने टैक्स आधा करने का निर्णय कर लिया । फलस्वरूप तीसरी बार दोना बहुत आसानी से भर गया । उसने दोना थमाते हुए कहा कि श्राप ही हमारे बादशाह हैं । इन गन्नों के रस से मैं पहिचान गई हूँ ।
भावना का फसलों पर भी जब ऐसा असर होता है, तब मित्रों पर क्यों न होगा ? सद्भावना मित्रता का पोषण करती है ।
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१४. मानवता
चत्तारि परमंगाणि दुल्लहारिण य जंतुणो । माणुस्सत्तं सुईसद्धा संजमम्मि य वीरियम् ॥
इस गाथा में मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम-इन चार श्रेष्ठ अंगों को प्राणियों के लिए दुर्लभ बताया है।
इन में मनुष्यत्व को सबसे पहले गिनाया गया है। चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकते हुए प्राणियों के लिए मनुष्य के रूप में जन्म लेना दुर्लभ है । केवलज्ञान मनुष्य को ही प्राप्त होता है और वही मोक्ष का अधिकारी बनता है।
मनुष्य का जो कर्तव्य है, वही मानवता कहलाती है। संस्कृत में मनुष्य की परिभाषा इस प्रकार की गई है :
मत्वाहिताहितं ज्ञात्वा, कार्याणि कर्त्तव्याणि, सीव्यन्ति कुर्वन्ति इति मनुष्याः ।
हित और अहित को, भलाई और बुराई को जानकर जो कर्तव्यों का पालन करते हैं, वे मनुष्य हैं । विवेकसे ही मनुष्य का स्तर ज्ञात होता है। उसका मापदण्ड उसकी सम्पदा नहीं, बुद्धिमत्ता है।
किसी मनुष्य का मुल्यांकन उन वस्तुओं और व्यक्तियों के मूल्यांकन के समान होगा, जिनसे वह घिरा रहता है। सत्संगति और कुसंगति से वह बनता-बिगड़ता है। एक इंग्लिश विचारक ने बहुत ठीक लिखा है : “मुझे बताओ कि तुम किनके साथ रहते हो? और मैं बता दूंगा कि तुम
क्या हो।"
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परिस्थितियाँ भी मनुष्य का भविष्य निर्धारित करती है। एक निष्कर्ष के अनुसार समाज से तिरस्कृत होने पर मनुष्य दार्शनिक, शासन से प्रताड़ित होने पर विद्रोही, परिवार से उपेक्षित होने पर महात्मा और नारीसे अनाहत होने पर देवता बन जाता है।
किसी विचारक ने मनुष्य के चार आश्रमों की तुलना गणित के चार मूल तत्त्वों से करते हुए कहा है कि ब्रह्मचर्याथम जोड़ के समान है; उसमें वृद्धि और शक्ति का संचय किया जाता है । दूसरा गहस्थाश्रम बाकी के समान है, जिसमें बुद्धि और शक्ति खर्च की जाती है। तीसरा वानप्रस्थाश्रम गुणा के समान है, जिसमें अनुभव मूलक ज्ञान की झपाटे से वृद्धि होती है और चौथा संन्यासाश्रम भाग के समान है, जिसमें अपने अनुभवों से प्राप्त उत्तम ज्ञान का समाज में वितरण किया जाता है।
लोग समुद्र के पास क्यों नहीं जाते ? इसलिए कि वह घमण्ड से कोलाहल करता रहता है- खारा जल उसके पेट में रहता है। समुद्र का जल जब बादलो में पहुँच कर जगत् को देखता है, तब उसका घमंड चला जाता है। उसमें नम्रता और मधुरता आ जाती है। नदी में कितना विनय है ? समुद्र को अपना सर्वस्व देती रहती है। फिर भी कहती है- मैंने कोई बस्तु न दी ! (न+दी-नदी) यह विनय ही उसे समुद्र से महान् बनाता है । पशु-पक्षी और मनुष्य उसके समीप जाते है और अपनी प्यास बुझा कर परम तृप्ति का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार यदि मनुष्य में भी नम्रता हो- उसकी वाणी में मधुरता हो तो उसके प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ जायगा।
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२२७ बिजली का बटन ऊँचा हो तो कमरे में अँधेरा छाया रहता है और यदि नीचा हो जाय - नम जाय तो प्रकाश हो जाता है। 'मन' को उलटने पर 'नम' बनता हैं । अहंकार को अंकुशमें रखने के लिए नमस्कार की ज़रूरत है; इसी लिए जैन धर्म में प्रचलित सबसे बड़े मन्त्र का नाम 'नमस्कार मन्त्र' है ।
एक रूपक द्वारा विनय पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला गया है।
समुद्र ने एक दिन नदी से कहा : "तू बहुत-सी चीजें अपने साथ बहा-बहा कर भेंट करती है, परन्तु मुझे उनसे सन्तोष नहीं है ।"
नदी : "तो आप क्या चाहते हैं ? जो भी चाहते हों, निस्संकोच बता दीजिये । आपको सन्तुष्ट करने के लिए मैं उसे ले आऊँगी :"
समुद्र : "मैं वेत्रलता से मिलना चाहता हूँ। क्या उसे ला सकेगी तू ?"
नदी : "क्यों नहीं ? जब मैं बड़े-बड़े पेड़ों को अपने साथ बहा लाती हूँ तो वेत्रलता मेरे सामने किरा खेत की मूली है ? मैं अभी लाती हूँ।"
फिर नदी ने बाढ पर बाढ लाकर वेत्रलताको उखाड़ना चाहा, किन्तु उसमें उसे जरा भी सफलता नहीं मिली। वह अत्यन्त निराश होकर समुद्र के पास आई और बोली : जिसमें विनय होता है- नम्रता होती है, उसे उखाड़ने की शक्ति किसी में नहीं है। मैंने अपनी बाढ़ के द्वारा उसे उखाड़ना चाहा और वह तत्काल झुक गई। मैं क्या करती?
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२२८
उसकी नम्रता के सामने मेरी शक्ति कुछ भी काम नहीं आ सकी । मैं हार गई । क्षमा करें ।"
I
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समुद्र : “तेरे अहंकारको मिटाने के ही लिए मैंने तुझे वेत्रलता लाने का कार्य सौंपा था । जब ग्रामीण कन्याएँ मटके लेकर तेरे तट पर पानी भरने आती हैं, तब वे भी तुझे नम्रताका पाठ पढ़ाती हैं । मटके हाथोंमें लेकर यदि वे सीधी खड़ी रहे तो मटकों में जल नहीं भर जाता । जल भरने के लिए पहले उन्हें अपने शरीर झुकाने पड़ते हैं और फिर मटके भी !
नदी : " जी ! मैं समझ गई अच्छी तरह जान गई कि जीवन में नम्रताका स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है !
विनय, सेवा, सहायता आदि गुणों के समूह को ही धर्म कहते हैं । धर्म ही है, जो पशु से मनुष्य के अन्तर को स्पष्ट करता है :
--
श्राहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥ [ आहार, निद्रा, भय और मैथुन - ये प्रवृत्तियां पशु और मनुष्य दोनों में होती हैं; परन्तु अकेला धर्म ही मनुष्यों में अधिक होता है । जो धर्म से रहित हैं, वे मनुष्य पशुतुल्य हैं ] बृहदारण्यकोपनिषद् में लिखा है :
इदं मानुषं सर्वेषां भूतानां मधु ॥
[ मनुष्य समस्त प्राणियों का मधु है- उत्तम प्राणी है यह मनुष्य । ]
जिस प्रकार फूलों में रस उत्तम होता है मधु उसी से बनता है; उसी प्रकार प्राणियों में सर्वोत्तम मनुष्य होता
है कर्त्तव्य उसी में प्रतिष्ठित होते हैं ।
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__२२६ अवजानन्ति मां मूढा मानुषों तनुमाश्रितम् ।।
- गीता (वे भोले हैं, जो 'मनुष्य' के शरीर में रहने वाले 'मैं' (आत्मा या परमात्मा) का अपमान करते हैं महाभारत के शान्तिपर्व में लिखा हुआ है : गुह्य ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि
न मानुषाच्श्रेष्ठतरं हि किञ्चित् ॥ [तुम लोगों को मैं एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ कि मनुष्य से अधिक श्रेष्ठ इस दुनिया में कुछ भी नहीं है]
एक रूपक से यह बात सिद्ध की जाती है। सुनिये
चाँदी की सिल्ली ने कहा : "मैं तो चाँद के समान चमकती हूँ।"
सोना : "मैं सूरज की तरह चमकता हूँ।"
हीरा : "मेरा मूल्य तुम दोनों से अधिक है और भार कम ।"
पेटी : "रक्षक इस दुनिया में बड़ा होता है। तुम सब मेरे पेट में रहते हो । मैं तुम्हारी संरक्षिका हूँ।"
ताला : लेकिन पेटी की रक्षा मेरे हाथ में है, इसलिये बड़ा मैं हूँ।"
चाबी : 'तू तो मेरे इशारे पर ही खुलता और बन्द होता है; फिर घमण्ड कैसा ?"
हाथ : “पगली ! मेरे बिना तो तू हिल भी नहीं सकती !"
सुनार : "तुम सब बेकार झगड़ रहे हो । पेटी, ताले और चाबी का आविष्कार मनुष्य के मस्तिष्कने किया है ।
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२३० जिस हाथ से चाबी घुमाई जाती है, वह भी मनुष्यका ही है । सोना, चाँदी और हीरे का मूल्यांकन भी मनुष्य ही करता है और ये सब भी मनुष्य के शरीरकी शोभा बढ़ाने के लिए ही विविध अलंकारों के रूप में परिवत्तित होते रहते हैं; इसलिए मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ है !"
एक आदमी ने अपने बेटे को कागज पर बना हआ एक ऐसा चित्र दिखाया, जिसमें सारे संसार के देश, बड़े - बड़े नगर, समुद्र आदि मौजूद थे। फिर उसी कागजको उलटकर उस पर बना हुआ एक मनुष्य का चित्र दिखाया । फिर कागज के दस टुकड़े करके बालक से कहा कि इन्हें यथास्थल जमा कर संसारका चित्र फिरसे तैयार करके दिखाओ ।
बालक ने बहुत कोशिश की, परन्तु उन टुकड़ों से संसार की प्राकृति स्पष्ट नहीं हो सकी । आखिर पिताने कहा : "तुम उल्टे टुकड़े जमा कर मनुष्य की आकृति तैयार करो और फिर फटे स्थानों पर कागज़ की चिन्द्रियाँ गोंद से चिपका दो। उसके बाद पूरे कागज को उलट दो तो संसार अपने आप बन जायगा ।
उसने वैसा ही किया। मनुष्य को जोड़ते ही सारा संसार जुड़ गया । वास्तव में सारा संसार मनुष्य के पीछे ही तो है ! संसार को स्वादिष्ट बनाने वाला यदि कोई नमक है तो उसका नाम मनुष्य ही है। उसी से संसारकी शोभा है ।
वह मनुष्य ही है, जिसने बड़े-बड़े जंगलों को खेतों में, बगीचों में और वस्ती में बदल दिया। बड़े - बड़े भवन बनाये। बड़े - बड़े वैज्ञानिक आविष्कार किये । चन्द्रतल पर जाकर वहाँ की मिट्टी खोद लाया । क्या नहीं किया उसने ?
परन्तु स्वार्थवश उसने संहारक अश्त्र-शस्त्रोंका निर्माण
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२३१ भी कर डाला ! अमेरिकाने एक 'न्यूट्रॉन' नामक ऐसा बम बनाया है, जिससे केवल जीव ही मरते हैं, शेष सारी जी, बच जाती हैं । मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन बन गया ।
सिंह शिकार न सिंह का, क्योंकि जाति है एक । मानव कितना मूर्ख है, इतना भी न विवेक ॥
-सत्येश्वर गीता मनुष्य मनुष्य का संहारक बन कर पशुओं से भी गयागुजरा हो गया है। महाकवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं :
बुद्धि तृष्णा की दासी हुई मृत्यु का सेवक है विज्ञान । चेतता अब भी नहीं मनुष्य विश्व का क्या होगा भगवान !
नदी बहना नहीं छोड़ती, समुद्र मर्यादा नहीं छोड़ता, चाँद-सूरज चमक नहीं छोड़ते और वृक्ष फलना-फूलना-छाया देना नहीं छोड़ते तो फिर मनुष्य ही क्यों अपना धर्म छोड़ता हैं ? अपने कर्तव्य को भूलता हैं ?
आदमी के बुरे पक्ष को प्रकट करते हुए एक पाश्चात्य विचारक ने लिखा हैं :
"सिर्फ आदमी ही रोता हुमा जन्म लेता है-शिकायत करता हुआ जीता है तथा निराश होकर मर जाता है।"
--सर वाल्टर टेम्पल एक हिन्दी कवि ने आज़ के आदमी की दुर्दशा का कारण खुद आदमी को ही बताते हुए कहा है :
आदमी की शक्ल से अब डर रहा है आदमी आदमी को लट कर घर भर रहा है आदमी । आदमी ही मारता है मर रहा है आदमी समझ कुछ अाता नहीं क्या कर रहा है आदमी ।।
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२३२
आदमी अब जानवर की सरल परिभाषा बना भस्म करने विश्व को वह आज दुर्वासा बना । क्या जरूरत राक्षसों की चूसने इन्सान को
आदमी ही आदमी के खून का प्यासा बना ।। जिस प्रकार गाय-गाय की एक जाति है और हाथीहाथी की एक जाति, उसी प्रकार मनुष्यमात्र की भी एक ही जाति है; परन्तु आदमीने जातिभेद की कल्पना करके विशाल मानवसमाज के टुकड़े-टुकड़े कर दिये :
भेदः कृतो मनुष्येण, 'न धात्रा समशिना ।
शीलं चिह्न सुजातस्य, न जाति न च जीविका ॥ [जातिभेद विघाताने नहीं बनाया, क्योंकि वह समदर्शी हैं । यह भेद मनुष्य ने ही बनाया है। अच्छे मनुष्य का लक्षण शील है (सदाचार है), न जाति है और न जीविका]
सदाचार परोपकार के लिए प्रेरित करता है
इंग्लैंड के कवि गोल्डस्मिथ केवल कविता ही नहीं, इलाज भी करते थे। एक दिन कोई महिला अपने बीमार पतिदेव का इलाज कराने के लिए उन्हें अपने घर बुला ले गई।
कवि चले गये । घर जाकद उन्होंने पति की हालत देखी तो पता चला कि गरीबी के कारण उत्पन्न मानसिक चिन्ता ही उसकी बीमारी का मूल कारण है।
कविने कहा : "मैं घर जाकर एक दवा भेज दूंगा। उससे इनका स्वास्थ्य सुधर जायगा।"
घर लोटकर कविने एक छोटा-सा पैकेट भेजा। उस पर लिखा था-"जब-जब जरूरत हो, इस पैकेट में रखी दवा का उपयोग करें।"
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२३३ महिलाने पैकेट खोलकर देखा तो मालूम हुआ कि इसमें दस स्वर्णमुद्राएँ हैं। मन-ही-मन उसने कदि की उदारता को प्रणाम किया। उसके पति का स्वास्थ्य सी सुधर गया और उन मुद्राओं की सहायता से दे कमाई करने लगे।
एक भिखारी किसी भवन के द्वार पर खड़ा था। वह खाने के लिए रोटी या कूल पैसे माँग रहा था। भवन का मालिक पहले तो चुप रहा, यह सोचकर कि कुछ नहीं बोलेंगे तो भिखारी चला जायगा, परन्तु वह खड़ा ही रहा और पुकारता रहा।
अन्त में मालिक ने चिल्लाकर कहा : "चल हट ! आगे बढ़। यहाँ अभी कोई आदमी (नौकर) नहीं है।'
भिखारी ने कहा : "तो थोड़ी देर के लिए आप ही आदमी बन जाइये न?"
जो देता है, वही ग्रादमी है। दान करके आप आदमी (सच्चे इन्सान) बन जाइए-ऐसा उस भिखारी की बातका आशय था।
किसी गाँव मैं एक बार कोई कमिश्नर साहब पहँचे। वहाँ के पटेल ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया। फिर बिदाई के समय कहा : “साहब ! अब तक हमारे इस गाँव में कलेक्टर, डाक्टर, मास्टर, मिनिस्टर, मिस्टर, सिस्टर आदि 'टर' तो अनेक बार आते रहे हैं; किन्तु नर (मनुष्य, कमिश्नर शब्द का उत्तरार्ध) तो आप यहाँ पहली ही बार आये हैं।"
'नर' का अर्थ है-मनुष्य, जिसकी परिभाषा इन शब्दों में भी की गई है : __ मनुष्य हैं वही कि जो मनुष्य के लिए मरे ॥
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जा रही थी-एक सड़क पर कोई कार । उसमें लाखों रुपयों की लागत से बने अलंकार धारण किये हुए एक सेठजी बैठे थे।एक छोटा-सा बालक उस कार से कुचल गया। तत्काल सेठजी के मुह से फल झरे : "ये लोग जब अपने बच्चों को सँभाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हैं ? इन पर तो केस चलाया जाना चाहिये ! ढोर कहीं के ? पता नहीं कैसे-कैसे नमूने भरे पड़े हैं इस दुनिया में !”
कार आगे बढ़ गई-सई से । बच्चा बेहोश और घायल अवस्था में दुर्घटना स्थल पर ही पड़ा रहा।
__ थोड़ी ही देर बाद उधर से गुजरने वाले किसी भिखारी की नजर उस बालक पर पड़ी। वह दौड़कर उसके निकट पहुँचा। उसने पानी से मुह पर कुछ छींटे लगाये। फिर अपनी फटी चादर के छोर से हवा करने लगा। जब बालक होश में आया, तब उसके माँ-बाप का नाम उसीसे पूछकर उनके पास बालक को पहुँचा दिया। किसी फारसी कवि ने ठीक ही कहा है :
तने आदमी शरीफस्त बजाने आदमीयत ।
न हमी लिबाप्त जेबास्त निशाने आदमीयत ॥ [शरीर मानवता से ही पवित्र होता है। आकर्षक पोशाक मानवता का लक्षण नहीं है] ___ यदि नेत्र, कान, मुख, नाक और हाथ-पाँव के आधार पर ही कोई मनुष्य होने का दावा करे तो दीवार के चित्र और मनुष्य में कोई अन्तर नहीं रहेगा।
घरमें रहने वाले मनुष्य को गृहस्थ नहीं कहते, दाता को कहते है; अन्यथा पक्षी भी अपने घर (घोंसले) में रहता है, सो उसे भी गृहस्थ कहा जायगा।
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२३५ जइ गिहत्थु दाणेग विणु जग पभरिणज्जइ कोइ । ता गिहत्थु पंखिवि हवइ जे घर ताहवि होइ ॥
दान अनेक प्रकार के होते हैं; परन्तु अभयदान सर्वोत्तम होता है :
दाणारण सेट्ठ अभयप्पयारणम् ॥ [अभयदान सब दानों में श्रेष्ठ होता है। किसी मृत्यु मुखमें फंसे प्राणी को बचाना अभयदान है]
वीरसिंह ने एक दिन अपने माता-पिता से कहा : "जिसमें एक की हानि और सौ का नफा हो, ऐसा व्यापार करूं या नहीं ?
माता-पिता ने स्वीकृति दे दी। उसी दिन वीरसिंह ने उन नवविवाहित युवक-युवतियों के साढे चार सौ जोडों को मुक्त कर दिया, जिनको बलि के लिए राजा ने किले में कैद कर रक्खा था। किले की सुरक्षा का भार वीरसिंह को सौंपा गया था; परन्तु निर्दोष स्त्रीपुरुषों की हत्या उसे अन्यायपूर्ण लगी। वह जानता था कि राजा की इच्छा के विरुद्ध बन्दियों को मुक्त करने पर वह मार डाला जायगा; परन्तु एक व्यक्ति की हानि से नौ सौ स्त्री-पुरुषों के प्राणों की रक्षा होगी- उन सबको अभयदान मिलेगा- इस बात से उसे विशेष आत्मसन्तोष का अनुभव हो रहा था । फलस्वरूप रात को बारह बजे किले के द्वार खोलकर उसने सबको छोड़ दिया कि वे भाग कर बहुत दूर निकल जायें और कहीं छिप जायँ । वैसा ही हुआ।
प्रातःकाल गुप्तचरों से राजा को ज्ञात हुआ कि दयावश वीरसिंह ने बन्दियों को मुक्न कर दिया है, तो उसके
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२३६ क्रोध का पार न रहा। सैनिकों की एक टुकड़ी को आदेश दिया कि वह वीरसिंह को कैद करके दरबार में उपस्थित करे।
टुकड़ी गई; किन्तु वीरसिंह ने उस टुकड़ी को अपने युद्ध कौशल से खदेड़ दिया।
दूसरी बार राजाने चौगुने सैनिक भेजे । वीरसिंह वीरतापूर्वक युद्ध करता रहा । सस्तक कट जाने पर भी उसका धड़ लड़ता रहा।
अन्त में जहाँ मस्तक गिरा, वहाँ पर हिन्दुओं ने और जहाँ धड़ गिरा, वहाँ पर मुसल्मानों ने उनका स्मारक बनाया; क्योंकि मुक्त जोड़ों में हिन्दु भी थे। और मुसल्मान भी।
आज भी लोग “बन्दी छोड़ महाराज' के नाम से उनका आदर के साथ स्मरण करते हैं।
एकेनापि सुपुत्ररण सिंही स्वपिति निर्भयम् ।
सहैव दशभिः पुत्रेारं वहति गर्दभी ॥ [एक सुपुत्र से भी सिंहनी निर्भय होकर सोती है, परन्तु गघी अपने दसों पुत्रों के साथ भार ढोती है]
सुपुत्र वही है, जिसमें मानवता के गुण विकसित हुए हों।
बुद्धिपरीक्षा के लिए एक शालानिरीक्षक ने किसी कक्षा के भीतर जाकर छात्रों से एक प्रश्न किया : “तुम यहाँ पढ़ने क्यों आते हो?"
प्रश्न ब्लेकबोर्ड पर लिख कर आदेश दिया गया कि तुम इसका उत्तर कागज के टुकड़े पर अलग-अलग लिख कर दिखाप्रोगे। जिसका उत्तर सर्वश्रेष्ठ होगा, उसे पुरस्कार दिया जायगा।
सबने अपना-अपना लिखित उत्तर प्रस्तुत कर दिया। निरीक्षक ने उन्हें पढ़ा। कुछ उत्तर इस प्रकार थे :
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२३७ "यह प्रश्न आप क्यों पूछ रहे हैं ? पहले इस प्रशा का उत्तर आप हमें दीजिये।
"यह प्रश्न हमारी पाठयपुस्तक में कहीं है ही नहीं।" "इस प्रश्नका उत्तर अध्यापकजी ने हमें नहीं लिखवाया।"
"प्रश्न का उत्तर इतनी जल्दी नहीं दिया जा सकता। सोचने के लिए हमें अधिक समय दिया जाय ।"
"इस प्रश्न का उत्तर हम अपने माता-पिता से पूछ कर आयेंगे और कल लिख कर देंगे।"
__ "हम इसलिए पढ़ने आते हैं कि हमें माता-पिता यहाँ भेज देते हैं।
"हम इसलिए पढ़ने आते हैं कि माता-पिता से मिलने वाली हाथ खर्ची बन्द न हो जाय ।"
__“मैं आपके ही समान पढ़-लिखकर शालानिरीक्षक बनना चाहता हूँ।"
"मैं डाक्टर बनकर रोगियों की सेवा करने का लक्ष्य प्राप्त करना चाहता हूँ।" ____ "मैं पढ़-लिखकर बैरिस्टर बनना चाहता हूँ, जिससे निर्दोष लोगों को कानून के फन्दे से बचा सकू।" ।
"मैं टीचर बनना चाहता हूँ, जिससे साक्षरता का और ज्ञान का प्रसार कर सकू।"
"मैं मिनिस्टर बनना चाहता हूँ, जिससे जन सेवा के काम कर सकू।"
___ "मैं मनुष्य बनना चाहता हूँ। मानवता क्या है ? उसे समझने ओर अपनाने के लिए पढ़ने आता हूँ।" ____ कहने की आवश्कता नहीं कि अन्तिम उत्तर ही सर्वोत्तम माना गया और उसी छात्र को पुरस्कृत भी किया गया।
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२३८
एक राजस्थानी दोहा है : मिले मोकला मिनख परण मिले न मिनखाचार । फोकट फोनोग्राफ ज्यू वातारो व्यवहार ॥
मनुष्य तो बहुत से मिल जाते हैं, किन्तु मनुष्य के योग्य आचरणशीलता (मानवता) नहीं मिलती। फोनोग्राफ के समान केवल बातों का व्यवहार ही देखा जाता है।
जीवन में उतरे नहीं, दिये हुए व्याख्यान । गुरुता वहाँ न पा सकी, फोनोग्राफ समान ॥
-सत्येश्वर गीता जो व्यक्ति प्रवचन देता है, किन्तु दिये हुए उपदेशों को अपने जीवन में नहीं उतारता, उसमें गुरुत्व नहीं है। जैसे फोनोग्राफ या केसेट से भी लोग प्रवचन सुन लेते हैं, परन्तु उसे 'गुरु' मान कर वन्दन नहीं करते। इसी प्रकार मनुष्यता के व्यवहार के बिना भी किसी को मनुष्य नहीं माना जा सकता।
एक जगह कुछ मज़दूर लकड़ी के एक भारी लट्ठ को ढकेलने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु उसमें उन्हें सफलता इसलिए नहीं मिल रही थी कि उसमें एक आदमी के बल की और ज़रूरत थी।
उसी समय उधर से एक धुड़सवार आ निकला । मजदूरों की परेशानी को समझ कर उसने पास ही खड़े अफसर से कहा कि वह उनकी मदद कर दे।
अफसर ने कहा : “महोदय ! मैं अफसर हूँ, मजदूर नहीं। मेरा काम हुक्म देना है, हाथ बँटाना नहीं, समझे ?"
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२३६
"समझ गया" कहकर घुड़सवार स्वयं घोड़े से नीचे उतरा और उन मज़दूरों की मदद की। फिर अफसर को सलाम करते हुए उसने कहा : "यदि फिर कभी इन मज़दूरों को मदद की आवश्यकता हो तो मुझे बुलवा लीजियेगा । मेरा नाम और पता है— जार्ज वाशिंगटन, राष्ट्रपति, अमेरिका !"
यह सुनते ही अफसर के पैरों तले से की ज़मीन खिसकने लगी । तत्काल दौड़कर उसने जार्ज के पाँव पकड़ लिये । जार्ज ने इस शर्त पर उसे क्षमा प्रदान की कि भविष्य में वह कभी इस प्रकार मनुष्यता का अनादर नहीं करेगा ।
मानवजीवन परोपकार से ही सफल होता है । उसे केवल पशुपक्षियों के समान भोगों में बिता देने वाले कैसे मूर्ख हैं ? सो इस श्लोक में देखिये :
।
स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पादशौचं विधत्ते पीयूषेण प्रवरकरिणं प्रवरकरिणं वाहयत्येन्धभारम् । चिन्तारत्नं विकिरति कराद् वायसोड्डापनार्थम् यो दुष्प्राप्यं गमयति मुधा मर्त्यजन्म प्रमत्तः ॥ [ जो प्रमादी ममुष्य अपने दुर्लभ जीवन को व्यर्थ गँवा रहा है, वह सोने की थाली में धूल डाल रहा है- अमृत से पैर धो रहा है, और श्रेष्ठ हाथी से ईंधन का भार उठवा रहा है और चिन्तामणि रत्न को कौए उड़ाने के लिए हाथ से फेंक रहा है ]
किसी वज़ीर की सेवा से प्रसन्न होकर एक बार बादशाह ने एक मूल्यवान् छाल भेंट की उसे ।
शाल ओढ कर वज़ीर अपने घर जा रहा था। ठंड के दिन थे । वज़ीर को जुकाम हो रहा था । उसने शाल से ही अपनी नाक पोंछ ली ।
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२४०
किसी ने यह देखकर बादशाह से चुगली कर दी । बादशाह ने नाराज होकर शाल छीन ली और वजीर को नौकरी से अलग कर दिया ।
___ मानव शरीर भी उस शाल की तरह हमें प्राप्त हुआ है। नाक पोंछने की तरह पाप करके हम उसका दुरुपयोग न करें ।
एक वैज्ञानिक और कवि के दृष्टिकोण में बहुत अन्तर होता है। वैज्ञानिक की दृष्टि तथ्यों का अन्वेषण-विश्लेषण करती है और कविकी रि मानवता का अर्थात् सद्गुणोंका।
किसी वैज्ञानिकसे पूछा गया : 'कृपया बताइये कि लकड़ी जलमें क्यों तैरती है ?"
वैज्ञानिक ने कहा : "जल की अपेक्षा लकड़ी का धनत्व कम होता है, इसलिए वह उसमें तैरती है।
यही प्रश्न एक मानवतावादी कवि से भी पूछा गया । उस ने उत्तर दिया : "जल सोचता है कि यह लकड़ी जिस वृक्षकी है, उसका पालन-पोषण मैंने ही किया है, इसलिए मैं इसे भला कैसे डुबोऊँ ! इस प्रकार लकड़ी पर पुत्रवत् वात्सल्य की भावना के कारण जल उसे डुबोने में संकोच करता है। इतना ही नहीं, बल्कि अपनी हिलोरों के कोमल हाथों से उसे दुलराता है।"
कविके उत्तर में वात्सल्यकी शिक्षा है - प्रेरणा है । मानवता का मानवजीवन में पदसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहा है :
अधिकारपदं प्राप्य नोपकारं करोति यः ।
अकारस्य ततो लोपः ककारो द्वित्वमाप्नुयात् ॥ [अधिकार का पद पाकर जो उपकार नहीं करता, उसके 'अ' कार का लोप हो जाता है और 'क' कार को द्वित्व प्राप्त होता है अर्थात् ऐसे व्यक्ति को धिक्कार' मिलता हैं]
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२४१ बादशाह सिकन्दर के जीवन की यह घटना है, जिसे सुना कर मैं आजका अपना वक्तव्य समाप्त करूंगा।
उसने एक दिन अपने एक सज्जन सेनापति को पदच्युत कर दिया। सेनापति पूर्ववत् प्रसन्न रहने लगा। इस से चकित होकर सिकन्दर ने जब इसका कारण जानना चाहा तो सेनापति ने कहा : "सभी वर्तमान सेनापति आज भी मेरे पास सलाह लेने पाते हैं। यहाँ तक कि एक साधारण सैनिक भी बेखट के निस्संकोच होकर मेरे पास आ जाता है और अपनी समस्याओं का समाधान पाकर सन्तुष्ट होकर चला जाता है। मेरे प्रति सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं आई है।"
सिकन्दर : "फिर भी पद पर न रहने का कुछ दु:ख तो आपको होगा ही न ?”
सेनापति : "बिल्कुल नहीं। सम्मान के लिए सहानुभूति, सेवा और सहायता की भावना ही आवश्यक है, जिसे मानवता कहते है, पद उसके सामने तुच्छ है । पद पर रह कर भी जो आदमी रिश्वत लेता है - लोगों को अपने स्वार्थ के लिए परेशान करता है -- अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता अर्थात् मानवता का परिचय नहीं देता, उसे भला सम्मान कैसे मिल सकता है ?"
इस उत्तर से प्रसन्न होकर सिकन्दरने उसे पुन: सेनापति के महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त कर दिया।
जिनमें मानवता का निवास होता है, वे मानव ही सच्चे मित्र बन सकते हैं।
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१५. मित्रता
पिछले चौदह प्रवचनों में जिन विषयों का विस्तृत विवेचन हुआ है, वे सब मित्रता में सहायक हैं, मित्रता के समर्थक हैं, मित्रता के लिए अनिवार्य हैं।
आखिर यह मित्रता क्या चीज़ है ? प्रवचन” खला की इस अन्तिम कड़ी में हम यही बात समझने की कोशिश करेंगे।
प्रेम के तीन प्रकार होते हैं - श्रद्धा, मित्रता और वात्सल्य, तीर्थकर, गुरुदेव, माता-पिता, बड़े कुटुम्बी आदि अपने से महान्
यक्तियों के प्रति जो मन में प्रेम होता है, उसे श्रद्धा कहते है। अपने समान व्यक्तियों प्रति जो प्रेम होता है, उसे मित्रता कहते है और अपने से छोटों (पुत्र, शिष्य आदि के प्रति जो प्रेम होता है, उसे वात्सल्य कहते हैं।
हमें केवल मित्रता पर ही यहाँ विचार विमर्श करना है। वाचक उमास्वाति ने लिखा है :
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगृणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेष ॥
-तत्त्वार्यसूत्रम् ७/६ [प्राणिमात्र से मैत्री, गुणाधिकों से प्रमोद, पीडितों से करुणा
और अविनीत (जड़ शिष्यों) से माध्यस्थ्य वृत्ति रहनी चाहिये]
यह बात किसी ने :
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदम् ॥ [प्राणिमात्रके प्रति मित्रता और अपने से अधिक गुणवानों के प्रति प्रमोद
इन शब्दों के द्वारा कही है।
प्राणिमात्र के साथ मित्रता की वृत्ति हो तभी व्यवहार अहिंसामय और सत्यमय रह सकता है। मित्रता का अर्थ
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२४३
है - दूसरों से आत्मीयता - दूसरों को अपने समान समझना और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न देना, धोखा न देना, यथाशक्ति सहायता करना ।
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निज दुःख गिरिसम रज करो जाना ।
मित्र दुःख रज मेरु समाना ॥
-तुलसीदास
अपना दुःख पहाड़ के समान भी हो तो उसे धूलि कण के समान समझना और मित्र के रजकण के समान साधारण दुःख को भी मेरु पर्वत के समान मानना मित्र का ही कार्य मित्रता है ।
कराविव शरीरस्य नेत्रयोरिव पक्ष्मणी । प्रविचार्य प्रियं कुर्यात् तन्मित्रं मित्रमुच्यते ॥
[ हाथ शरीर का और पल के आँखोंका भला जिस प्रकार बिना सोचे करती हैं, उसी प्रकार जो बिना सोचे प्रिय ( हितकर ) कार्य करता है, वह मित्र ही वास्तव में 'मित्र' कहा जा सकता है]
अवास्तविक मित्र को हम कुमित्र कहेंगे, जिनकी संख्या अधिक पाई जाती है । सुमित्र तो भला करने वाली कड़वी बात भी निस्संकोच कह देगा, क्योंकि वह सदा मित्र की भलाई का विचार ही प्रमुखरूपसे किया करता है :
मिसरी घोले झूठ की ऐसे मित्र हजार । जहर पिलावे साँचका वे विरला संसार ॥ संस्कृत के एक श्लोक में भी ऐसी ही बात कही गई है: श्रप्रियाण्यपि पथ्यानि ये वदन्ति नृणामिह । त एव सुहृदः प्रोक्ताः अन्ये स्युर्नामधारकाः ॥
[ मनुष्यों को अप्रिय ( कटु) पथ्य ( हितकर ) वचन भी जो कहते हैं, वे ही ( वास्तविक ) मित्र कहे गये हैं । शेष सब केवल नामधारक है (नाम मात्र के मित्र हैं ) ]
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२४४
मित्रता प्रायः समान स्वभाव वालोंमें होती है । कहा है : मृगा मुर्गे सङ्गमनुव्रजन्ति गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरङ्गः । मूर्खाश्च मूर्खे: सुधियः सुधीभिः समानशीलव्यसनेषु मैत्री ॥ [हरिण हरिणों के, गायें गायोंके, घोड़े घोड़ों के, मूर्ख मूर्यो के और बुद्धिमान बुद्धिमानों के पीछे जाते हैं, क्योंकि समान स्वभाव और व्यसन वालों में मित्रता होती है]
हिन्दी में एक कहावत है : "नादान की दोस्ती और जी का जंजाल !" एक और कहावत है : "नादान दोस्त से दाना दुश्मन अच्छा !"
दाना का अर्थ है - बुजुर्ग या समझदार । मूर्ख मित्र की अपेक्षा समझदार दुश्मन को अच्छा बताया गया है :
हरेः पादाहति : श्लाध्या न श्लाध्यं खररोहणम् ।
स्पर्धापि विदुषा श्लाध्या न श्लाघ्या मूर्खमित्रता ॥ [सिंह की लात अच्छी, किन्तु गधे पर सवारी भी अच्छी नहीं । विद्वान से स्पर्धा भी प्रशंसनीय है, परन्तु मूर्ख की मित्रता अच्छी नहीं]
एक राजस्थानी सोरठे में भी कुमित्रों से दूर रहने की सलाह इस प्रकार दी गई है :
मुख ऊपर मीठास, 'घटमाहो शोटां घड़े । इसड़ास इखलास राखीजे नहिं राजिया !
चाणक्यनीति का यह श्लोक भी कुमित्रों से दूर रहने का हमें सुझाव देता है :
परोक्षे कार्यहन्तारम् प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।
वर्जयेत्तादृशं मित्रम् विषकुम्भं पयोमुखम् ।। १. मन में बुराइयों की कल्पना करे । २ ऐसोंसे । ३. मेलमिलाप या मित्रता । ४. एक शिष्य का नाम ।
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२४५
[सामने मीठा बोलने वाले और पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले मित्र का त्याग इसी प्रकार कर देना चाहिए, जिस प्रकार विष से भरे हुए उस घड़े का त्याग किया जाता है, जिसके मुंह में दूध हो]
सच्चा मित्र स्वयं कष्ट झेलकर भी निरन्तर सहायता के लिए कटिबद्ध रहता है । कहा है :
मित्र ऐसा कीजिये, जैसे लोटा-डोर ।
प्रापुन गला फँसाइके, प्यावै नीर झकोर ॥
लोटा अपना मित्र है, इसलिए डोरमें अपना गला फँसा कर वह कूएमें उतर जाता है। वहाँ से जल लेकर ऊपर आता है और पिलाकर प्यास मिटा देता है । मित्र मनुष्य भी दूसरे मित्रों के साथ ऐसा ही व्यवहार करता है। मित्रता को समझनेके लिए दूध और पानीका दृष्टान्त भी बहुत उपयोगी है : क्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ता: पुरा तेऽखिलाः क्षीरे तापमवेक्ष्य तेन पयसा ह्यात्मा कृशानों हुतः गन्तुं पावकमुन्मनस्तदभवद् दृष्टवा तु मित्रापदम्
युक्तं तेन जलेन शाम्यति सताम् मैत्री पुनस्त्वीदृशी ॥ [दूध में जल मिल गया। दूधने अपने सारे गुण उसे दे दिये । जब दूध को ताप लगा तो यह देखकर जल पहले आग में जलने लगा। दूधने सोचा कि मित्र (जल) के शत्रु (आग) को नष्ट कर देना चाहिये। इसके लिए वह उफनने लगा। जब जल के कुछ छींटे उफनते दूध पर डाले गये, तब मित्रमिलन की प्रसन्नता से दूध पुन: शान्त हो गया। सज्जनों की मैत्री ऐसी ही होती है] हितोपदेश में मित्र को रत्न बताया गया है :
शोकारातिभयत्राणम् प्रीतिविश्रम्भभाजनम् केन रत्नमिदं सृष्टम् मित्रमित्यक्षरद्वयम् ॥
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२४६ [शोक, शत्र और भय से रक्षा करने वाला तथा प्रेम और विश्वास का पात्र- ऐसे 'मित्र' इन दो अक्षरों से बने रत्न को किसने बनाया ?] मित्र नारियल के समान भीतर से कोमल हृदय वाले होते हैं :
नारिकेल समाकारा दृश्यन्ते हि सुहृज्जनाः ।
अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः ।। [अच्छे मित्र नारियल के समान आकार वाले अर्थात् भीतर से कोमल मधुर और ऊपर से कठोर-बेस्वाद होते हैं । दूसरे (कुमित्र) बेरके समान ऊपर से ही मनोहर होते हैं, भीतर से अत्यन्त कठोर और स्वापहीन]
सुकवि श्री भर्तृहरि ने अच्छे मित्र के लक्षण इस श्लोक में एक साथ बताये हैं : पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्य निगृहति गुणान्प्रकटीकरोति । प्रापद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥ [सज्जन अच्छे मित्र के लक्षण इस प्रकार बताते हैं- वह पाप से हमें बचाता है, भले कार्यों में हमें लगाता है, गुप्त बात को छिपाता है, गुणों को प्रकट करता है, संकटों में हमारा त्याग नहीं करता और समय पर सहायता करता है।
सुख और दु:ख में से किसी एक को मित्र बनाने के लिए कहा जाय तो आप किसे मित्र बनाना पसन्द करेंगे ? - सभी व्यक्ति सुख को पसन्द करेंगे; किन्तु महापुरुषों ने दुःख को मित्र बनाया था :
सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै । दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै ॥
दु:ख को मित्र बनाकर ही राम, कृष्ण, महाबीर, बुद्ध आदि महापुरुष बने । अनार्य देश में प्रभु महावीर ने भूख,
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२४७ प्यास, अपमान आदि घोर कष्ट सहे । शान्ति से कष्ट सहना ही तप है । तप से कर्मनिर्जरा होती है । आत्मा शुद्ध होती है ।
टेलिग्राम से दुःखदायक समाचार मिलने पर क्या आप पोस्टमैन को पीटते हैं ? नहीं पीटते । इसी प्रकार समझना चाहिये कि दुःख देने वाला व्यक्ति भी कर्मराज का भेजा हुआ पोस्टमैन है। उसके निमित्त से हमें दुःख भले ही मिला हो, परन्तु दु:ख का वास्तविक कारण हमारे ही पूर्वोपार्जित कर्मों का उदय है। दु:ख देकर जो व्यक्ति हमें कर्ममुक्त कर जाता है, वह मित्र है, शत्रु नही।
दीपक मित्र है, जो आपके रात्रिकालीन पापों को देख कर प्रातःकाल आत्महत्या कर लेता है (बुझ जाता है)ऐसा किसी कवि ने कहा है।
__ यदि कोई कलेक्टर आपका मित्र हो तो जिले पर, मुख्यमन्त्री मित्र हो तो प्रदेश पर और प्रधानमन्त्री मित्र हो तो पूरे देश पर आप अपना ही राज्य समझते हैं। उसी प्रकार यदि परमात्मा से आपकी मित्रता हो जाय तो पूरे विश्व पर आप अपना राज्य समझ सकते हैं।
विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्रभु से दुःख हटाने की प्रार्थना नहीं करते थे। वे केवल दु:ख सहने की शक्ति ही परमात्मा से माँगते थे।।
प्रभु महावीर ने कहा है : पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तम् किं बहिया मित्तमिच्छसि ?
_ -आचारांग ३/३ [हे पुरुष ! तुम स्वयं ही अपने मित्र हो; बाहर के (दूसरे) मित्र क्यों चाहते हो ?]
दूसरे मित्र चाहने का अर्थ है-दूसरों से सहायता की आशा करना यह परावलम्बन है-दासता है- परतन्त्रता है । स्वतन्त्र व्यक्ति स्वयं अपना सहायक होता है; इसलिए दूसरों से
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२४८ सहायता की अपेक्षा वह नहीं रखता, न वह किसी से सहायता की याचना ही करता है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि आप दूसरों की सहायता न करें। आपको तो सहायता करते ही रहना है। सहायता करना ही मित्रता है। आप में मित्रता का गुण रहना ही चाहिये ; भले ही दूसरों में यह गुण रहे या न रहे।
पोपटलाल भाई को जुआ खेलने का चस्का लग गया था। उनका एक मित्र था-अब्दुल्ला नाई। वह चाहता था कि पोपट भाई उस दुर्व्यसन से बाहर निकल जायँ ।
एक दिन की बात है। पोपट भाई ने नाई को उसकी दूकान पर अनुपस्थित देखकर इधर-उधर पूछताछ की। उससे पता चला कि वह तो वहीं एक आलमारी की ओट में छिपकर बैठा है। पोपट भाई ने आलमारी के पिछे जाकर देखा कि अब्दुल्ला दोनों टाँगों के बीच मुह रख कर रो रहा है— सिसकियाँ ले रहा है- आँसू बहा रहा है ।
कारण पूछने पर अब्दुल्ला नाई ने पोपट भाई से कहा : "लोग मुझे क्या कहेंगे? वे कहेंगे कि नाई की दोस्ती से ही पोपट भाई ने जूआ खेलना सीखा है। खेल सीखकर खेलना शुरु कर दिया है। और अपने परिवार को मुसीबत में डाल दिया है । मैं हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करता हूँ कि या तो आज से आप जूआ छोड़ दीजिये या फिर मेरी दोस्ती। दोनों एक एक साथ नहीं चल सकते, क्योंकि मैं झूठी बदनामी नहीं सह सकता।" ।
यह सुनकर पोपट भाई की आँखें भी आँसू बरसाने लगीं। उन आँसूओं से दुर्व्यसन का दाग धुलकर साफ हो गया । तत्काल उन्होंने जू आ छोड़ने का संकल्प प्रकट कर दिया। इस प्रकार मित्रता ने उन्हें पाप से और परेशानी से बचा लिया।
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२४६ इंग्लिश की एक सूक्ति है :
The flower that follows the sun does so even in cloudy days.
सूर्यमुखी फूल बादल के दिन भी (जब सूर्य बादल से ढका हो तब भी) सूर्य का अनुसरण करता है]
एक किसान था । वह चूहों से बहुत परेशान था। उन्हें पकड़ने के लिए वह एक बड़ा-सा पिंजरा ले आया। पिंजरा उसने खेत में रख दिया। पिंजरे में रखे अनाज के ढाने पाने के लोभ में ढेर सारे चूहे उसमें आ फँसे ।
वहीं कुछ दूरी पर एक हाथी खड़ा-खड़ा यह सारा दृश्य देख रहा था। उसे चहौ की दुर्दशा पर दया आ गई। अपनी सूड उठाकर उससे उसने पिजरे का दरवाजा खोल दिया। सारे चहे बन्धनमुक्त हो गये। फिर अपना पाव खाली पिंजरे पर रख कर उसे भी तोड़ डाला, जिससे दुबारा चूहों को फंसाने का उपक्रम न हो सके।
किसान ने हाथी की इस करतूत पर अप्रसन्न होकर उसीको मारने के लिए एक बड़ा-सा गड्ढा खोदा । गड्ढे का मुह बाँस और घास-फससे ढंक दिया। हाथी उसे साधारण भूमि समझकर एक दिन उधर से निकला तो गडढे में गिर पड़ा । वहाँ से बाहर निकलना उसके लिए संभव नहीं था।
चूहे यह करुण दृश्य देख रहे थे। उन्हें विचार आया कि हाथी बेचारा इस गडढे में भूखों मर जायगा । उसने हमारी रक्षा को थी, सो वह हमारा मित्र है । उसे किसी तरह 'संकट' से बचा कर हमें भी अपनी मित्रताका परिचय देना है।
आखिर सब चूहों ने मिल कर उस गड्ढे का एक किनारा खोदकर गिरा दिया। हाथी समझ गया और वह उस ओर से चल कर गड्ढे से बाहर निकल आया ।
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२५०
किसीने ठीक ही कहा हैं : "मित्र न छोटा जानिये, तासै सुधरे काज ।।"
हमें किसी मित्र को छोटा नहीं समझना चाहिये । छोटे से छोटा मित्र भी हमारे बिगड़े काम को सुधार सकता हैबिगड़ी बात को बना सकता है- हमें प्राणसंकट से बचा सकता है, तब भला वह छोटा कैसे ?
जंगल में एक बार आग लगी । दूसरे वृक्षों के साथ आम का एक विशाल पेड़ भी जलने लगा । उस पेड़ पर जो पक्षी बैठे थे, वे उस पागके भय से भी नहीं उड़े यह देख कर पेड़ने उनसे कहा :
दव लागी निकसत धुआँ सुरण पंछीगरण ! बात । हम तो जलें जु पाँख बिन तुम क्यू ना रवि लात ?
पक्षी पेड़ से प्रेम करते थे। वे अपने मित्रको संकट में छोड़कर जाना उचित नहीं समझते थे। स्वयं जलते हुए भी अपने आश्रित पक्षियों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने वाले उस महात्मा आम्रवृक्ष के सामने पक्षियों का मस्तक यदि श्रद्धा से झुक गया तो यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। उनके हृदय में आम्रवृक्षने और भी ऊँचा स्थान बना लिया था - यह कह कर कि हम तो पंख न होने के कारण मज़बूरी में जल रहे हैं, परन्तु तुम उड़ सकते हो, फिर क्यों उड़ कर दूर नहीं जा रहे हो ?
पक्षी सोच रहे थे कि सूखके साथी तो प्रायः सभी होते हैं ; परन्तु दुःख में भी जो साथ निभाते हैं, उन्हीं की मित्रता सच्ची होती है :
रहिमन विपदा हू भली जो थोरे दिन होय । हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोय । मित्र और शत्रु की पहिचान संकट में ही होती है । आखिर पेड़ के साथ पक्षी भी आगकी लपटों में जल
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२५१
मरे | मरने से पहले पेड़ के प्रश्न का उत्तर उन्होंने इस
प्रकार दिया था :
पान बिगाड़े फल भखे उड़-उड़ बैठे डाल | तुम तो जलो, हम उड़ चलें ? जीना कितनें काल ! इससे विपरीत जो कुमित्र होते हैं, वे संकट आने पर दूर भाग जाते है । एक दृष्टांत से यह बात स्पष्ट होगी ।
दो मित्र थे - मोटेराम और पतलेराम | दोनोंने संकट आने पर एक-दूसरे की सहायता करने का दृढ़ संकल्प कर रखा था ।
एक दिन प्राकृतिक दृश्यों के सौन्दर्य का सुख लूटने के लिए वे किसी जंगल में जा पहुँचे । मोटेराम को पहाड़, झरने, पेड़, लताएँ, मोर, कोयल, तोते आदि में सुन्दरता और मधुरता के दर्शन हो रहे थे तो पतलेराम को उसी सुन्दरता में छिपी भयंकरता का भान हो रहा था । साँप, भालू, सिंह, भेड़िये, बिच्छू, कांटे, चट्टाने, गुफाएँ, घाटियाँ आदि अनिष्ट दुःखदायक प्राणियों एवं वस्तुओं का सामना भी इस जंगल में किसी भी समय करना पड़ सकता हैऐसा यह सोच रहा था ।
ठीक उसी समय सामने से दौड़कर आता हुआ एक भयंकर भालू पतलेराम को दिखाई दिया। अपनी जान बचाने के लिए पतलेराम पास ही खड़े एक पेड़ पर चढ़कर विराजमान हो गये ।
मोटेराम अपने स्थूल शरीर के कारण न तो भाग सकते थे और न पेड़ पर ही चढ़ सकते थे; किन्तु थे वे बुद्धिमान । आत्मरक्षा के लिये वे जमीन पर लेट गये । भालू निकट आया । मोटेरामने साँस रोक ली थी । भालूने शरीर को मुर्दा मान लिया और फिर कानके पास सूंघकर चुपचाप जिधर से आया था, उधर ही लौट गया ।
भालू के दूर जाने पर पतलेराम पेड़ से नीचे उतर पड़े ।
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२५२
उन्होंने मोटेराम से पूछा : “मित्र ! वह भालू उस समय तुम्हारे कान में क्या कह रहा था ?
इस प्रश्न के उत्तर में मोटेरामने कहा : "भाल कह रहा था कि संकट में सहायता का झठा संकल्प करने वाले मित्र के साथ नहीं रहना चाहिये।"
वरं न मित्रम्, न कुमित्रमित्रम् ॥ [कुमित्र को मित्र बनाने की अपेक्षा मित्र न होना (मित्रहीन रहना) अच्छा है]
महात्मा गाँधी के आध्यात्मिक गुरु श्रीमद् रायचंद जौहरी ने अपने एक व्यापारी मित्रके सामने उसके साथ हुए सौदेका दस्तावेज फाड़ कर उसकी समस्त चिन्ताओं को चकनाचर करते हुए कहा- "इसी दस्तावेज के कारण प्राप के हाथ-पाँव बँधे हुए थे । बाजार में इस समय जो भाव है, वह अपेक्षित भाव से इतना ऊँचा है कि आपको साठ हजार रुपयोंका घाटा हो जायगा, जिसकी पूत्ति करना आपकी आर्थिक स्थिति को देखते हुए सर्वथा असम्भव है। मैं केवल दूध पी सकता हूँ, खून नहीं ।"
दूसरों की प्रतिकूल परिस्थितिसे अनुचित लाभ उठाने वाले व्यापारी इस घटना से बहुत कुछ सोख सकते हैं। उन्हें अन्य व्यापारियों के साथ सदा मित्रतापूर्ण व्यवहार ही रखना चाहिये, शत्रुतापूर्ण नहीं ।
रघुनाथ पण्डित की निमाई पण्डित से घनिष्ट मित्रता थी। दोनों मित्र एक दिन नौकाविहार कर रहे थे। दोनों बड़े भारी दार्शनिक थे । रघुनाथ पण्डितने कहा कि मैंने 'न्याय शास्त्र' पर दीधिति नामक एक टीका लिखी है । निमाई ने कहा : टीका तो मैंने भी लिखी है; परन्तु कुछ अघूरी है । मैं उसे अपने साथ ही सदा रखता हूँ, जिससे विचार सूझते ही उन्हें तुरन्त पन्नों पर लिखा जा सके ।
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२५३ अधिक जिज्ञासा देख कर निमाईने टीका के कुछ पन्ने पढ़ कर सुना दिये । रघुनाथ पण्डित सुनते-सुनते रो पडे ।
दुःख का कारण पूछने पर बोले : "आपकी टीका इतनी अच्छी है कि उसके सामने मेरी दीघिति को कोई पूछेगा तक नहीं, इस प्रकार मेरा सारा परिश्रम, जिसका मुझे गर्व था, आज तुच्छ और व्यर्थ हो गया है। यही मेरे दु:ख का कारण है।" ' यह सुनते ही करुणासागर निमाई पण्डितने मित्र का दु:ख मिटाने के लिए एक-एक करके उस बह मूल्य टीका के पन्ने गंगाजी की धारामें बहा दिये
आगे चलकर यही निमाई पण्डित "चैतन्य महाप्रभु"के नाम से विख्यात हुए ।
मित्रता के लिए त्याग का इससे बढ़कर उदाहरण भला और क्या मिलेगा ?
अकबर और बीरबल में भी घनिष्ट मित्रता थी। एक दिन बादशाह की ओर से लड़ते हए बीरबल वीरगति को प्राप्त हुए। इस घटना से अकबर के हृदय को गहरा आघात लगा। बीरबल के इस दु:खद वियोग में अकबर के मूह से एकं सोरठा प्रकट हुआ : दीन जानि सब दोन एक न दीनो दुसह दुख । सो तुम हमको दीन कछु न राख्यो बीरबल । ___ इसका आशय यह था की तुमने गरीब जान कर लोगों को सब कुछ दे डाला केवल दुस्सह दुःख किसीको नहीं दिया था, सदा के लिए बिछुड़ कर वही दुःख मुझे दे डाला । हे बोरबल ! अपने पास तो तुमने कुछ भी नहीं रक्खा। ___महाराज वीरधवल भी मित्रवत् प्रजा का पालन करते थे। जब वे परलोकवासी हुए तब उनके महामन्त्री वस्तुपाल ने शोकोद्गार इस प्रकार प्रकट किये थे:
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२५४
आयान्ति यान्ति च परे ऋतव : क्रभेण । सज्जातमेतदनुयुग्म मगत्बरं तु ॥ वीरेण वीरधवलेन विना जनानाम् । वर्षा विलोचनयुगे हृदये निदाध: ॥
[ अन्य ऋतुएँ तो क्रमश: आती-जाती रहती हैं; परन्तु पराक्रमी वीरघवल के बिना ( उनके अभाव के कारण ) आज दो ऋतुएँ स्थायी हो गई है; लोगों की आँखों में वर्षा और उनके हृदय में ग्रीष्म ( निदाघ ) ]
पिथियस और डेमन को मित्रता से क्या लाभ हुआ ? सो भी स्मरणीय है ।
किसी आरोप में पिथियस को जब मृत्युदण्ड दिया गया, तब उससे मित्र डेमन ने आगे बढ़ कर पन्द्रह दिन की अवधी के लिए उसकी जमानत दी, जिससे वह घर जाकर अपने परिवार से मिल सके और उसके पालन-पोषण का पूरा प्रबन्ध करके लौट सके ।
राजा ने इस शर्त पर जमानत मंजूर की कि यदि निर्धारित दिनांक तक पिथियस लौट कर नहीं आया तो उसके बदले डेमन को फांसी पर लटका दिया जायगा । साथ ही पिथियस के बदले डेमन को जेल में रहना होगा । डेमन और पिथियस दोनों ने शर्तें मान लीं । पिथियस छोड़ दिया गया । डेमेन पकड़ लिया गया ।
वात ही बात में दो सप्ताह बीत गये : पन्द्रहवाँ दिन आ गया, परन्तु पिथियस नहीं आया । वह रास्ते में लौटते समय अन्धड़ से घिर जाने के कारण सरलता से नहीं चल सका, इसलिए कुछ देरी हो गयी ।
उधर डेमन को वधस्थल पर ज्यों ही ले जाया गया, त्यों ही डेमन के प्राण बचाने के लिए भागता -दौड़ता - हांफता हुआ पिथियस वहाँ आ पहुँचा । उसने ठीक क्षण पर चिल्लाकर कहा : " डेमन को छोड़ दीजिये । मैं आ गया हूँ ।"
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२५५
उसने डेमन को हार्दिक धन्यवाद देते हुए कहा : " मित्र ! अब घर जाओ और फिर परिवार के साथ सुखपूर्वक रहो।"
परन्तु यह क्या ? डेमन ने कहा : " मित्र ! मैं घर जाना नहीं चाहता, क्योंकि तुम्हारे जैसे प्रेमी मित्र के वियोग में मुझे घर पर भी सुख नहीं मिल सकेगा । मैं तो परमेश्वर से बार-बार यह प्रार्थना कर रहा था कि वह तुम्हें रास्ते में रोक ले यहाँ न पहुँचने दे, जिससे मित्र का जीवन बचाने में अपने प्राण खोनेके का सुख मुझे मिल सके । शायद इसलिए आँधी चलाकर उसने तुम्हारी चाल रोकी हो, परन्तु तुम उसकी भी पर्वाह न करके साहसपूर्वक भागते हुए समय पर यहाँ आ पहुँचे । फिर भी मेरी प्रार्थना है कि तुम मुझे ही मरने दो।"
पिथियस : "नहीं मेरे मित्र ! अभियुक्त मैं हूँ और दण्ड भी मेरे लिए घोषित हुआ है, सो मरने का अधिकारी मेरा है, तुम्हारे जैसे निर्दोष का नहीं ।"
राजा दोनों मित्रों के प्रेमल व्यवहार और संवाद से अत्यन्त प्रभावित हुआ । बोला : “लेकिन मैं तुम दोनों में से अब किसी को भी दण्डित करना नहीं चाहता । जो पिथियस डेमन को धोखा नहीं दे सका और उसकी प्राणरक्षा के लिए भागता हुआ चला आया, वह किसी और को भी अपने किसी तुच्छ स्वार्थ के लिए धोखा नहीं दे सकताऐसा मेरा विश्वास है । तुम्हारे पारस्परिक प्रेम और विश्वास से मैं परम प्रसन्न हुआ हूँ । तुम दोनों आज से बिल्कुल मुक्त हो - मित्रता करना चाहता हूँ मैं भी तुम दोनों से ।” यह सुन कर दोनों मित्र सानन्द अपने - अपने परिवार से जा मिले ।
मन मैत्री का निवास है । धर्म और आत्मा की अखण्ड अनिवार्य मंत्री भी वही कराता है; परन्तु मन दुधारी तलवार के समान है - साधक भी और बाधक भी । जब मन
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२५.६
विषय- कषायके चक्कर में पड़ कर कर्मको उपार्जन करने लगता है, तब धर्म और आत्मा की मैत्री में बाधक बन जाता है : मन एव मनुष्याणाम् कारणं बन्धमोक्षयो : ॥
[ मन ही मनुष्यों के बन्धन का भी कारण है और मोक्षका भी ]
एक बार ब्रह्मा के पास रूसका डेलीगेशन गया । उसने कहा : "अमेरिका पूँजीवादी है, शोषक है । उसका पहले नाश कीजिये । फिर हम सोचेंगे कि आप पर विश्वास किया जाय या नहीं ।"
फिर अमेरिकन डेलीगेशन ने उनके पास जाकर कहा : "रूस नास्तिक है । जो आपके अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करता, पहले आप उसका संहार कीजिये । "
दोनों की फेसरीडिंग के बाद ब्रा के पास पहुँचकर ब्रिटिश डेलीगेशन ने निवेदन किया : “सबसे पहले आप उन दोनों महादेशों की माँगें ही पूरी कर दें । हमें और कुछ भी नहीं चाहिये ! "
उसने सोचा कि दोनों की माँगें पूरी करने का परिणाम होगा - दोनों का नाश । यदि दोनों नष्ट हो जाते हैं तो फिर से हमारा राज्य दुनिया पर चलने लगेगा ।
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इस रूपक में प्रयुक्त ब्रिटिश डेलीगेशन के समान हमारा मम है, जो कर्म के द्वारा धर्म और आत्मा को लड़ाकर (Divide and rule की नीति पर चलकर ) अपना राज्य चलाना चाहता है । हमें धर्म और आत्मा की मैत्री को बनाये रखना है । इतना ही नहीं बल्कि आत्मा और परमात्मा की तथा आत्मा और अन्य आत्माओं की मैत्री भी स्थापित करना है | वेद कहते हैं : मित्रेणेशस्व चक्षुषा ॥ [ सबको मित्र (सूर्य) की आँख से देखो ] प्रभु महावीर ने कहा था : मित्ती में सव्वभूएसु । [मेरी समस्त जीवों से मंत्री है |
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नभयो भोग
घटज्ञान
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प. पू. आचार्यदेव श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म. सा. को
कोटी कोटी वंदना
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आचार्य श्री पन्सागरसूरि
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भोर
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