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७. कृपणता
उदारताका विलोम है - कृपणता । यह मनकी एक संकुचित वृत्ति है, जो परोपकार में बाधक होती है ।
संसार में यदि मूरों की सूची बनाई जाय तो उसमें सब से ऊपर कृपण (कंजूस) व्यक्तियों का नाम लिखा जायगा; क्योंकि धन होते हुए भी वे उसका न भोग करते हैं और त्याग ही; केवल अर्जन, रक्षण और वियोगका दु:ख ही उनके पल्ले पड़ता है।
एक कवि ने कृपणको सबसे बड़ा दाता बताते हुए उस पर व्यंग्य किया है :
कपणेन समो दाता, न भूतो न भविष्यति ।
अस्पृशन्नेव वित्तानि, य: परेभ्यः प्रयच्छति ।। [कंजूस के समान दाता न हुअा है और न होगा, जो बिना छूए ही अपना धन दूसरोंको दे डालता है] ,
जीवित अवस्था में तो धनको छूकर देना पड़ता है; परन्तु कृपण मृत्यु के बाद दूसरों को धन देता है; इसलिए बिना छुए दे देता है अर्थात् मृत्यु के बाद दूसरे लोग उसके घनका मजे से उपभोग करते हैं ।
पिपीलिकार्जितं धान्यम् मक्षिका-सञ्चितं मधु ।
लुब्धेन सञ्चितं द्रव्यम् समूलं हि विनश्यति ॥ [चींटियोंके द्वारा इकट्ठा किया हुआ धान्य, मधुमक्खियों के द्वारा इकट्ठा किया गया शहद और लोभी के द्वारा इकट्ठा किया गया धन मूल सहित नष्ट हो जाता है।
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