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२४१ बादशाह सिकन्दर के जीवन की यह घटना है, जिसे सुना कर मैं आजका अपना वक्तव्य समाप्त करूंगा।
उसने एक दिन अपने एक सज्जन सेनापति को पदच्युत कर दिया। सेनापति पूर्ववत् प्रसन्न रहने लगा। इस से चकित होकर सिकन्दर ने जब इसका कारण जानना चाहा तो सेनापति ने कहा : "सभी वर्तमान सेनापति आज भी मेरे पास सलाह लेने पाते हैं। यहाँ तक कि एक साधारण सैनिक भी बेखट के निस्संकोच होकर मेरे पास आ जाता है और अपनी समस्याओं का समाधान पाकर सन्तुष्ट होकर चला जाता है। मेरे प्रति सम्मान में कहीं कोई कमी नहीं आई है।"
सिकन्दर : "फिर भी पद पर न रहने का कुछ दु:ख तो आपको होगा ही न ?”
सेनापति : "बिल्कुल नहीं। सम्मान के लिए सहानुभूति, सेवा और सहायता की भावना ही आवश्यक है, जिसे मानवता कहते है, पद उसके सामने तुच्छ है । पद पर रह कर भी जो आदमी रिश्वत लेता है - लोगों को अपने स्वार्थ के लिए परेशान करता है -- अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता अर्थात् मानवता का परिचय नहीं देता, उसे भला सम्मान कैसे मिल सकता है ?"
इस उत्तर से प्रसन्न होकर सिकन्दरने उसे पुन: सेनापति के महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त कर दिया।
जिनमें मानवता का निवास होता है, वे मानव ही सच्चे मित्र बन सकते हैं।
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