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सम्पादकीय मंत्री में सबको समान माना जाता है - न छोटा, न बड़ा । किसीको छोटा मानने में घमण्ड की और बड़ा मानने में दीनता की भावना आ सकती है- सुपीरियरिटी अथवा इन्फोरियरिटी काम्प्लेक्स की उत्पत्ति हो सकती है। दोन उन्नति में बाधक हैं। मित्रता में उनकी कोई सम्भावना नहीं रहती।
"मोक्षमार्ग में बोस कदम" के बाद सम्पादित प्रवचनों के इस संकलन का नाम "मैत्री मार्ग में पन्द्रह करम" रखने का विचार था; परन्तु उसी समय :
"मित्ती में सव्वभूएसु ॥" [मेरी समस्त प्राणियों के साथ मित्रता है।]
इस महात्मा महावीर के मुखारविन्द से प्रस्रुत सूक्तिमकरन्द-बिन्दु का सहसा स्मरण हो आने से यही नाम रख दिया गया।
__"पद्मपरिमल" पुस्तक में मुद्रित तथा कुछ टेपांकित प्रवचनों से प्राप्त, आचार्य श्री पयसागरसूरिजी की विचारसामग्री को विषयानुसार विभिन्न पन्द्रह शीर्षकों के अन्तर्गत विभाजित करके उनका पुनर्लेखन यद्यपि पूरी सावधानी से किया गया है, फिर भी प्रमादवश कहीं असंयत सावध भाषा का प्रयोग हो गया हो तो उसे केवल मेरा दोष माना जाय, प्रवचनकार का नहीं।
अन्त में निवेदन है कि इस प्रवचन-शंखला की अगली कड़ी किस शीर्षक से प्रकाशित होकर आपके कर-कमल-युगल में कब तक पहुँच पाती है -सो इस बात पर निर्भर रहेगा कि आप कितनी अधिक उत्सुकता से उसकी निरन्तर प्रतीक्षा करते हैं!
-शान्तप्रकाश सत्यदास बिरलाग्राम-नागदा जं०
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