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१८४ क्रोध क्यों नहीं आता ? (क्रोध ही सबसे बड़ा अपकारी है; इसलिए उसी को क्रोध का पात्र बनाना चाहिये)]
एक विचारक ने लिखा है : "क्रोध मूर्खता से शुरू होता है और पछतावे पर खत्म।"
क्रोधी किसी की बात नहीं सुनता; इसलिए कहा गया है कि क्रोध समुद्र-सा बहरा होता है और आग-सा उतावला ।
उपदेश देने से मूर्ख क। क्रोध और भी अधिक भड़क जाता है :
उपदेशो हि मूर्खाणाम प्रकोपाय न शान्तये ।
पयः पानं भुजङ्गानाम केवलं विषवर्धनम् ॥ [मूों को उपदेश देने से उनका गुस्सा बढ़ता ही है, शान्त नहीं होता । साँपों को दूध पिलाने से केवल उनका जहर बढ़ता है]
दूसरा भाव है-ईर्ष्या । यह भी बीमारी की तरह घातक है। दूसरों की उन्नती, सुख-समृद्धि आदि को देख कर ईर्ष्यालु मन-ही-मन जलता रहता है, उसका विवेक नष्ट हो जाता : .
ईर्ष्या हि विवेक परिपन्थिनी ।। [ईर्ष्या विवेक की शत्रु है] ईर्ष्या को असाध्य बीमारी बताते हुए कहा गया है : य ईष्यु : परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये ।
सुखसौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः ।। [जो व्यक्ति दूसरों के धन, रूप, बल, कुलीनता, सुख सौभाग्य और सत्कार को देख कर ईर्ष्या करता है (मन में जलता है) उसकी बीमारी का कोई अन्त नहीं होता]
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