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१८३ एक फ्रांसीसी विचारक ने आनन्द प्राप्ति के तीन नियम बताये थे। पहला था- अपने को कार्यव्यस्त रखना । दूसरा भी यही और तीसरा भी यही। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यदि तुम आनन्द पाना चाहते हो तो किसीन-किसी काम में लगे रहो- लगे रहो- लगे रहो। इस प्रकार जो कार्यव्यस्त रहता है चचिल की तरह उसे चिन्ता करने के लिए समय ही नहीं मिलता।
प्राचीन काल में चीनी शासक कैदियों को कष्ट देने के लिए यह उपाय काममें लाते थे।
पहले वे कैदियों के हाथ-पाँव बाँध देते थे। फिर उन्हें ऐसे पानी के मटकों के नीचे बिठा देते थे, जिनके पैंदोंसे निकल कर एक-एक बूद उनके मस्तकों पर गिरती रहे। मस्तक पर टपकने वाली बूद का प्रहार चिन्ता के कारण अपराधी को हथौड़े की चोट के समान पीड़ित करता था। परिणामस्वरुप कैदी पागल हो जाता था।
दियासलाई दूसरों को जलाने से पहले स्वयं को जलाती है, उसी प्रकार क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि चिन्ताजन्य भाव भी दूसरों से पहले अपने आश्रय को ही जलाते हैं।
क्रोध काँटे से अधिक भयंकर होता है; क्योंकि कांटा तो जिसे चुभता है, उसी को कष्ट देता है। परन्तु क्रोध क्रोधी को भी कष्ट देता है और जिसके प्रति क्रोध किया जाता है, उसे भी । यदि हमें अपना बूरा करने वालों के प्रति क्रोध आता है तो फिर क्रोध पर ही क्रोध आना चाहिये : __ अपकारिषु कोपश्चेत् कोंपे कोपः कथं न ते ? [यदि अपकारीयों पर क्रोध आता है तो क्रोध पर तुझे
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