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[ कृपण ( कंजूस) और कृपाण (तलवार) में केवल आकार ( 'आ' की मात्रा अथवा प्राकृति) का ही भेद है; अन्यथा ये दोनों दृढतर निबद्ध मुष्टि (कृपण मज़बूती से मुट्ठी बन्द रखता है - किसीको दान नहीं करता और कृपाण की मूठ मज़बूत होती है ) कोषनिष्षण कृपण खजाने के पास बैठा रहता है और कृपाण म्यान में रहती है- - म्यान को भी कोष कहते हैं) और सहज मलिन (कृपण स्वाभाविक रूपसे मैला होता है और कृपाण काली होती हैं) होते हैं ]
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लोभी या कंजूस धन का दान इसलिए नहीं करता कि मैं कहीं दरिद्र न हो जाऊँ, परन्तु उदार व्यक्ति भी यही सोचकर धन का दान करता है कि कहीं मैं दरिद्र न हो जाऊँ ! कैसी विचित्र है दोनों में समानता ? उदार व्यक्ति सोचता है कि यदि मैं दरिद्र हो गया तो फिर दान नहीं कर सकूँगा, इसलिए जब तक धन मौजूद है, दान कर दूँ तो अच्छा रहेगा अथवा वह यह सोचता है कि पूर्वभव में दान किया था, इसलिए इस भवमें मैं धनवान् बना हूँ । यदि इस भवमें दान नहीं करूंगा तो अगले भवमें मुझे कहीं दरिद्र न बनना पड़े !
दान शब्द की याद न आ जाय और दान में हाथसे धन न छूट जाय - इस दृष्टि से कंजूस 'द' अक्षर वाले शब्दों के प्रयोग तक से बचने का प्रयास करता है । यदि ऐसा कोई शब्द बोलना हो तो उसका पर्यायवाची शब्द बोलता है :
देवता को सुर श्रौ असुर कहे दानव को दाई को सुधाय तिया दार को कहत है । दर्पण को आरसी त्यों दाख को मुनक्का कहे दास को खवास आम खास विचरत है ॥
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