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१११ महा कवि श्री हर्ष की दृष्टि में कंजूस का ही भार लगता है, पृथ्वी को। उनके शब्द ये हैं :
याचमानजनमानसवृत्तेः पूरणाय बत जन्म न यस्य ।
तेन भूमिरतिभारवतीयम् न द्रुमैन गिरिभिर्न समुद्रः ॥ [याचकजनों की इच्छापूर्ति के लिए जिसका जन्म नहीं हुआ, उसीसे यह भूमि अति भारवती (बहुत बोझा ढोने वाली) है; न पेड़ों से, न पहाड़ों से और न समुद्रों से ही]
पहले लोग रखवाली के लिए खेत में खाली घास-फूस और बाँस से बना एक पुतला खड़ा कर देते थे। रात को चोर उसे आदमी समझकर दूरसे ही चले जाते थे। कंजूस भी उस पुतले के समान होता है-ऐसा एक कविने इन इन शब्दों में प्रकट किया है। या न ददाति न भुक्ते
सति विभवे नव तस्य तद् द्रव्यम् । तृणमयकृत्रिमपुरुषो
रक्षति सस्यं परस्यार्थे ॥ [धन होते हुए भी जो न देता है और न भोगता है, उसका वह धन है ही नहीं। घाससे बना हुआ नकली पुरुष जिस प्रकार दूसरों के लिए धान्य की रक्षा करता है, वैसा ही वह कंजूस भी (केवल रखवाला) है (धन का मालिक नहीं है] ___कृपण और कृपाण-ये दोनों शव्द मिलते-जुलते हैं। इन दोनों के स्वभाव में भी समानता है। 'प' के बदले दसरे शब्द में 'पा' है; इस प्रकार आकार (आकृति) में ही थोड़ा सा भेद है।
दृढतरनिबद्धमुष्टेः कोषनिषण्णस्य सहजमलिनस्य । कृपणस्य कृपाणस्य च केवलमाकारतो भेदः ॥
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