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११० घन इस (कंजूस) का था (क्योंकि निर्धन को काई दुःख नहीं होगा)]
दान और भोग न करने वाले का धन नष्ट क्यों होता है ? सो बताया है :
दानं भोगो नाश-स्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ [दान, भोग और नाश-ये धन की तीन गतियाँ हैं। जो न धन किसी को देता है और न भोगता है, उसके घनकी तीसरी गति (बर्बादी) हो जाती है]
मनुष्य शरणागत का त्याग नहीं करता और जहर को नहीं खाता-इस बात को ध्यान में रखकर एक कविने कहा है :
शरणं किं प्रपन्नानि विषवन्मारयन्ति किम् ?
न त्यज्यन्ते न भुज्यन्ते कृपणन धनानि यत् ॥ [कृपण की शरण में आया है धन, क्योंकि वह उसका त्याग नहीं करता ? धन विष की तरह मारक (घातक) है क्या कि कृपण उसका भोग नहीं करता ?]
बहरे के सामने गाया जाने वाला संगीत, अन्धे के सामने रखा गया सुन्दर चित्र और मुर्दे के गले में डाला गया फूलों का हार जिस प्रकार व्यर्थ होता है, उसी प्रकार कंजूस की लक्ष्मी भी व्यर्थ होती है।
उदार व्यक्तियों का यश फैलता है। उन्हे सब याद करते हैं; किन्तु कंजूसों का कोई नाम लेना भी पसन्द नहीं करता। कहा है :
दिन ऊग्यां दातार याद करे सारी 'इला ।
समारो संसार नाम न लेवे नाथिया ! 1 पृथ्धी। कंजूसों का। 3 कवि के एक शिष्य का नाम ।
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