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ईश्वर ने जीभ एक दी है और कान दो दिये हैं, जिस से वह दो बातें सुनकर एक बोले । हजार शब्द बोलने की अपेक्षा वज़नदार चार शब्द अधिक प्रभावक होते हैं। "सोख्ता" नामक शायर ने अपना परिचय देते हुए कहा है--
आदत है हमें बोलने की तौल तौल कर । है एक एक लब्ज बराबर वजन के साथ ॥
तोतों और कोयलों की बोली मीठी लगती है-भले ही वे थोड़ा बोलें। मेढक बहुत अधिक बोलता है, पर उसे कौन रुचिपूर्वक सुनता है ? कोई नहीं। इस विषय में एक राजस्थानी सोरठा श्रोतव्य है :
शुक पिकलगे सवाद, भल थोड़ो ही माखणो । वृथा करे बकवाद, भेक लवै ज्यू 'भेरिया !
अधिक बोलने की अपेक्षा उपयोगी बोलना अच्छा होता है। उपयोगी कार्य करना उससे भी अधिक अच्छा होता है। मेंढक बैलों से अधिक बोलते है, न तो वे हल चला सकते हैं और न उनकी खाल के जूता ही बनाये जा सकते हैं।
हिन्दी में एक कहावत है--- थोथा चना । बाजे धना ।।
जिसके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता, वही अधिक बोलता है
बहुवचन मल्पसारम् यः कथयति विप्रलापी सः ॥
[जिसके भाषण में शब्द अधिक हों और सार कम वह बकवादी है] तोता, कोयल, रोचक, “अच्छा, मेंढक, बोलते हैं, 'कवि के एक शिष्य का नाम ।
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