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आप उपवास करते हैं तो दिनभर भोजन याद आता रहता है; किन्तु जब भोजन करते हैं, तब उपवास याद नहीं आता। वह पाना चाहिए। भोजन के समय यदि उपवास की याद आने लगे तो भोजन में संयम अपने आप आ जायगा।
इसी प्रकार वाणी का संयम रखने के लिए आपको विचारपूर्वक बोलने का अभ्यास करना है :
बोली बोल अमोल है, बोल सके तो बोल । पहले भीतर तौल कर फिर बाहर को खोल ॥
रहीम साहब ने बिना विचारे बोलने के अनर्थ का वर्णन इन शब्दों में किया है :
'रहिमन' जिह्वा बावरी, कहिगै सरग-पतार ।
आपु तो कही भीतर रहो, जूती खात कपार ॥ मूर्ख और विद्वान में यही अन्तर है कि विद्वान सोचकर बोलता है किन्तु मुर्ख पहले बोल लेता है और बाद में सोचता रहता है कि वह क्या कह गया !
प्रभु महावीर कहते हैं"बहुयं मा य पालवे ॥" [बहुत नहीं बोलना चाहिए। जो कुछ कहना हो, संक्षेप में कहना चाहिए; क्योंकि-- मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमन्थू ॥ -स्थानांगसूत्र [वाचालता सत्य वचन का विघात करने वाली है] एक शेर हैकहे एक जब सुन ले इन्सान दो। कि हक़ ने जुबाँ एक दी कान दो ॥
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