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भाग्यवादी बनकर बैठे रहते तो दोनों भूखे रहते । भाग्यवादी को जो कुछ मिला था, वह पुरुषार्थवादी के पुरुषार्थ का ही प्रतिफल था ! अतः मेरी दृष्टि में विजय पुरुषार्थ की ही
राजाने भी मन्त्रीजी के निर्णय से अपनी सहमति घोषित कर दी।
एक जगह मन्दिर के लिए मूर्तियों के निर्माण का कार्य चल रहा था। किसी पथिक ने रुक कर एक प्रश्न किया : "भाई ! आप क्या कर रहे हैं ?"
एक ने कहा : “मैं अपने पेट के लिए पत्थर पर छैनी के प्रहार कर रहा हूँ।"
दूसरे ने कहा : "मैं धन कमाने के लिए मूर्ति बना रहा हूँ।"
तीसरे ने कहा : “मैं मूर्ति में सौन्दर्य को निर्मित कर रहा हूँ-दर्शनीयता का सृजन कर रहा हूँ-प्रभुता को प्रतिष्ठित कर रहा हूँ।"
श्रम तीनों बराबर ही कर रहे थे; परन्तु तीसरे कलाकारका श्रम में आनन्द का अनुभव हो रहा था। ऐसा ही अनुभव प्रत्येक श्रमिक को करना चाहिये ।
दो आदमी प्रात:काल उठ कर टहलने जाते हैं। एक आदमी सोचता है कि टहलने से हाथ-पाँव हिलते हैं-व्यायाम होता है-रक्तसंचार की गति तेज होती है आदि। दूसरा सोचता है कि टहलने से शुद्ध हवा मिलती है-सुन्दर प्रकृति के दृश्य देखने का अवसर मिलता है-सूर्य की सुनहरी किरणें शरीर पर पड़ती हैं आदि ।
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