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दोनों की बाते सुनकर राजा कोई निर्णय नहीं कर सका कि भाग्य को श्रेष्ठ माना जाय या पुरुषार्थ को । उसने अपने बुद्धिमान् मन्त्री को निर्णय का कार्य सौंप दिया । मन्त्री ने कहा कि वाद-विवाद से जो सिद्धान्त नहीं प्रमाणित होते, उनकी प्रत्यक्ष परीक्षा की जानी चाहिये । आपका प्रदेश हो तो मैं इन दोनों विद्वानों की प्रत्यक्ष परीक्षा करूँ ।
राजाने आदेश दे दिया । मन्त्री ने दोनों पंडितों को गाँव के बाहर बने एक मन्दिर में प्रविष्ट करा के फाटक पर ताला लगा दिया । तोन दिन बाद दोनों को बाहर निकाल कर महाराज के सामने ले आया । दोनों प्रसन्न दिखाई दे रहे थे । मन्त्री ने कहा : "मन्दिर में आपको जो भी अनुभव हुआ हो, उसके आधार पर आप अपने सिद्धान्त का समर्थन कीजिये ।"
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पुरुषार्थवादी : "मुझे जब भूख लगी तब उठकर मैं इधर-उधर हाथ फिराने लगा । एक ताक में मुझे दो लड्डू मिल गये ! यदि मैं प्रयत्न न करता तो भूखों मरना पड़ता, इसलिए पुरुषार्थवाद ही विजयी हुआ है ।"
भाग्यवादी : "मैं तो भाग्य भरोसे चुपचाप एक जगह बैठा रहा । भूख मुझे भी लगी थी; परन्तु मैंने कोई प्रयत्न नहीं किया । बिना कुछ किये ही लड्डू मेरे मुँह मैं आ गया । पुरुषार्थवादी भाईने सोचा कि दो लड्डू मिले हैं, सो अकेले खाना अशिष्टता होगी । उन्होंने एक लड्डू मुझे दे दिया था । इस प्रकार बैठे-बैठे अनायास मुँह में लड्डू आ जाने से विजय भाग्यवाद की ही हुई है - ऐसा मैं मानता हूँ ।"
मन्त्री : " लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता; क्योंकि यदि पुरुषार्थवादी पंडितजी ने पुरुषार्थ न किया होता अर्थात् दोनों
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