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पंडितोंके श्रमके फल नहीं हैं ? सारी दुनिया में सर्वत्र श्रम का ही नृत्य दिखाई देता है। यदि श्रम न होता तो मनुष्य पशु-पक्षियोंकी तरह जंगलों में नंगा-भूखा भटकता रहता !
अप्रकटीकृत शक्तिः शक्तोऽपिजनस्तिरस्क्रियां लभते ॥ [जो अपनी शक्ति को प्रकट नहीं करता, वह समर्थ हो तो भी तिरस्कार पाता है]
वसिष्ठ ऋषिने रामचन्द्रजी को भाग्यकी निरर्थकताके विषयमें जो कुछ समझाया था, वह सबके लिए मनन करने योग्य है :
कालविद्भिर्विनिर्णीतम् पाण्डित्यं यस्य राघव ! अनध्यापित एवासौ तज्ज्ञश्चेद् दैवमुत्तमम् ॥ कालविद्धिर्विनिर्णीता यस्यातिचिरजीविता । स चेज्जीवति संछिन्न-शिरास्तदैवमुत्तमम् ॥ न च निस्पन्दता लोके दृष्टेह शवतां विना ।
स्पन्दाच्च फलसम्प्राप्तिः तस्माद्देवं निरर्थकम् ॥ [हे रामचन्द्र ! ज्योतिषियोंने जिसके विद्वान् होने की भविष्यवाणी की है वह बिना पढाये ही विद्वान हो जाय तो भाग्य उत्तम है । फलितशास्त्रियों ने जिसकी आयु लम्बी बताई है, वह सिर काट देने पर भी यदि जीवित रहे तो भाग्य उत्तम है । मुर्दे के अतिरिक्त संसार में कहीं भी स्थिरता (निष्क्रियता) नहीं दिखाई देती। क्रियासे ही फल की प्राप्ति होती है (कार्य सफल होते हैं) इस लिए भाग्य निरर्थक है]
पशु-पक्षियों को भी श्रम से ही खुराक मिलती है। जुगन का उदाहरण भी पुरुषार्थ को प्रतिष्ठित करता है। जब तक वह उड़ता रहता है, चमकता रहता है । रुकते ही उसका प्रकाश नष्ट हो जाता है।"
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