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नहि भवति यन्न भाव्यम् भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति यस्य हि भवितव्यता नास्ति ।
अवश्यं भाविनो भावा भवन्ति महतामपि ।
नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहिशयनं हरेः ।। [जो होने वाला नहीं है, वह कभी नहीं होता और जो होने वाला है, वह बिना प्रयत्न के भी हो जाता है । होनहार न होने पर हाथमें आई हई चीज़ भी नष्ट हो जाती है ! अवश्य होने वाले भाव महान् पुरुषों को भी होते हैं। यही कारण है कि शंकरजी वस्त्रहीन (दिगम्बर) हैं और विष्णुजी को साँप पर सोना पड़ता है]
चातक पक्षी का उदाहरण भी भाग्यवाद की पुष्टि करता है :
देवमुल्लंध्य यत्कार्यम् क्रियते फलवन्न तत् ।
सरोऽम्मश्चातकेनात्तम् गलरन्घ्रण गच्छति ॥ [भाग्यके विरुद्ध किया गया कोई कार्य सफल नहीं होता। चातक जब तालाब का जल पीता है, तब वह उसके गले के छेद से बाहर निकल जाता है ! ]''
पुरुषार्थवादीने कहा : "राजन् ! यदि भाग्य ही सब कुछ है तो भाग्यवादी को कुछ बोलने का प्रयत्न ही नहीं करना चाहिये था । वह अपने आप सिद्ध हो जाना चाहिये था । मैं भाग्यवादी से पूछना चाहता हूँ कि अपनी बात के समर्थनमें जो श्लोक आपने सुनाये, क्या वे किसी ग्रन्थ से बिना कण्ठस्थ किये ही अपने आप कण्ठस्थ हो गये हैं ? यह जो राजमहल बना है, क्या वह आसमानसे टपका है ?' ये जो वस्त्र हमने पहिन रक्खे हैं, क्या वे किसी झाड़ से पैदा हुए हैं ? ये जो बड़े-बड़े पोथे लिखे गये हैं, क्या वे
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