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उसने डेमन को हार्दिक धन्यवाद देते हुए कहा : " मित्र ! अब घर जाओ और फिर परिवार के साथ सुखपूर्वक रहो।"
परन्तु यह क्या ? डेमन ने कहा : " मित्र ! मैं घर जाना नहीं चाहता, क्योंकि तुम्हारे जैसे प्रेमी मित्र के वियोग में मुझे घर पर भी सुख नहीं मिल सकेगा । मैं तो परमेश्वर से बार-बार यह प्रार्थना कर रहा था कि वह तुम्हें रास्ते में रोक ले यहाँ न पहुँचने दे, जिससे मित्र का जीवन बचाने में अपने प्राण खोनेके का सुख मुझे मिल सके । शायद इसलिए आँधी चलाकर उसने तुम्हारी चाल रोकी हो, परन्तु तुम उसकी भी पर्वाह न करके साहसपूर्वक भागते हुए समय पर यहाँ आ पहुँचे । फिर भी मेरी प्रार्थना है कि तुम मुझे ही मरने दो।"
पिथियस : "नहीं मेरे मित्र ! अभियुक्त मैं हूँ और दण्ड भी मेरे लिए घोषित हुआ है, सो मरने का अधिकारी मेरा है, तुम्हारे जैसे निर्दोष का नहीं ।"
राजा दोनों मित्रों के प्रेमल व्यवहार और संवाद से अत्यन्त प्रभावित हुआ । बोला : “लेकिन मैं तुम दोनों में से अब किसी को भी दण्डित करना नहीं चाहता । जो पिथियस डेमन को धोखा नहीं दे सका और उसकी प्राणरक्षा के लिए भागता हुआ चला आया, वह किसी और को भी अपने किसी तुच्छ स्वार्थ के लिए धोखा नहीं दे सकताऐसा मेरा विश्वास है । तुम्हारे पारस्परिक प्रेम और विश्वास से मैं परम प्रसन्न हुआ हूँ । तुम दोनों आज से बिल्कुल मुक्त हो - मित्रता करना चाहता हूँ मैं भी तुम दोनों से ।” यह सुन कर दोनों मित्र सानन्द अपने - अपने परिवार से जा मिले ।
मन मैत्री का निवास है । धर्म और आत्मा की अखण्ड अनिवार्य मंत्री भी वही कराता है; परन्तु मन दुधारी तलवार के समान है - साधक भी और बाधक भी । जब मन
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