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२५.६
विषय- कषायके चक्कर में पड़ कर कर्मको उपार्जन करने लगता है, तब धर्म और आत्मा की मैत्री में बाधक बन जाता है : मन एव मनुष्याणाम् कारणं बन्धमोक्षयो : ॥
[ मन ही मनुष्यों के बन्धन का भी कारण है और मोक्षका भी ]
एक बार ब्रह्मा के पास रूसका डेलीगेशन गया । उसने कहा : "अमेरिका पूँजीवादी है, शोषक है । उसका पहले नाश कीजिये । फिर हम सोचेंगे कि आप पर विश्वास किया जाय या नहीं ।"
फिर अमेरिकन डेलीगेशन ने उनके पास जाकर कहा : "रूस नास्तिक है । जो आपके अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करता, पहले आप उसका संहार कीजिये । "
दोनों की फेसरीडिंग के बाद ब्रा के पास पहुँचकर ब्रिटिश डेलीगेशन ने निवेदन किया : “सबसे पहले आप उन दोनों महादेशों की माँगें ही पूरी कर दें । हमें और कुछ भी नहीं चाहिये ! "
उसने सोचा कि दोनों की माँगें पूरी करने का परिणाम होगा - दोनों का नाश । यदि दोनों नष्ट हो जाते हैं तो फिर से हमारा राज्य दुनिया पर चलने लगेगा ।
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इस रूपक में प्रयुक्त ब्रिटिश डेलीगेशन के समान हमारा मम है, जो कर्म के द्वारा धर्म और आत्मा को लड़ाकर (Divide and rule की नीति पर चलकर ) अपना राज्य चलाना चाहता है । हमें धर्म और आत्मा की मैत्री को बनाये रखना है । इतना ही नहीं बल्कि आत्मा और परमात्मा की तथा आत्मा और अन्य आत्माओं की मैत्री भी स्थापित करना है | वेद कहते हैं : मित्रेणेशस्व चक्षुषा ॥ [ सबको मित्र (सूर्य) की आँख से देखो ] प्रभु महावीर ने कहा था : मित्ती में सव्वभूएसु । [मेरी समस्त जीवों से मंत्री है |
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