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मन में विरक्ति को जन्म देने वाली बारह भावनाएँ हैं :
१. अनित्यभावना – संसार में जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह सब नष्ट भी होता है । जन्म के बाद मृत्यु और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था अनिवार्य रूप से आती है धन, बन्धु, पुत्र, मित्र, कलत्र, सौन्दर्य, शक्ति आदि सब क्षणिक हैं । शाश्वत केबल आत्मा या परमात्मा है, इसलिए अनित्य वस्तुओं के पीछे दौड़-धूप न करके हमें शाश्वत सुख देने वाले मोक्षमार्ग में कदम बढ़ाने हैं ।
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२. अशरणभावना – जैसे सिंह के पंजों में फँसे हरिण की रक्षा कोई नहीं कर सकता, उसी प्रकार मृत्यु से भी प्राणी की कोई रक्षा नहीं कर सकता; किन्तु मृत्यु केवल शरीर को अलग कर सकती है, आत्मा को नहीं - यह बात सिखाने वाले परमात्मा हैं - गुरुदेव हैं - धर्म है; इसलिए हमें सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की शरण ग्रहण करनी है ।
३. संसारभावना - मिथ्यात्व और विषय - कषाय के कारण जीव चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकता रहा है तथा जन्म-जरा-मृत्यु के दुश्चक्र से छूट नहीं पाया है । संसार के इस स्वरूप को समझकर हमें आत्मस्वरूप का ध्यान करना है ।
४. एकत्वभावना - जीव अकेला ही गर्भ में देह को धारण करके जन्म लेता है, शिशु के रूप में प्रकट होता है और फिर क्रमशः बालक, किशोर, युवक, प्रौढ और वृद्ध होकर जलाने या गाड़ने के लिए अपना शरीर छोड़कर चल देता है और फिर शुभाशुभ कर्मो के अनुसार अकेला ही स्वर्ग या नरक के सुख-दुःख भोगता है । परलोक में प्रस्थान करते समय दूसरा कोई उसके साथ नहीं आता - ऐसा सोचकर हमें मोह से दूर रहना है ।
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