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५. अन्यत्वभावना - शरीर और जीव में भिन्नता है । शरीर जीव नहीं है और जीव शरीर नहीं है । शरीर तो अन्त में यही छूट जाता है; परन्तु जीव नहीं छूटता । संसार के समस्त भौतिक पदार्थ निर्जीव हैं - क्षणिक हैं । जीव सब प्राणियों में शाश्वत है । यह सोचकर हमें आत्मस्मरण करना है ।
६. अशुचि भावना : शरीर मल, मूत्र, मांस, हड्डी आदि अपवित्र दुर्गन्धमय वस्तुओं से भरी हुई चमड़ी की एक थैली के अतिरिक्त और क्या है ? वह ऐसी मशीन है, जो सुन्दर सुगन्धित मधुर स्वादिष्ट भोजन को भी कुछ ही घंटों में विष्टा बना देती है । ऐसी घिनौनी देहके सुखके लिए पापाचरण करना मूर्खता है, जो हम से छूट नहीं पा रही है । उसे छोड़ने का हमें प्रयास करना है ।
७. आस्रव भावना : प्रशस्त और अप्रशस्त कार्यों से पुण्य और पाप करता हुआ जीव जिन कर्मों का आस्रव करता है, वे ही उसकी मुक्ति में बाधा डालते हैं । बेड़ी बेड़ी हैभले ही वह लोहे की हो या सोने की, बाँधती जरूर है । सुख भी जीव को भोगना पड़ता है और दुःख भी । ये दोनों क्षणिक हैं । इन्हें छोड़ कर हमें शाश्वत मुक्ति सुख पाने का ही प्रयास करना है ।
८. संवर भावना : सम्यक्त्व, व्रत, कषाय विजय, मनवचन-काया के योगों का अभाव - ये सब संवर के रूप हैं । पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ, दशलक्षण धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह विजय और पाँच प्रकार का चारित्र - ये सब उस संवर के साधन हैं । साधनों को अपना कर हमें संवर को जीवन का अंग बनाना है ।
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