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६. निर्जरा भावना : अनशन आदि बाह्य और प्रायश्चित आदि छह आभ्यन्तर तप करने से कर्मोंकी निर्जरा होती है। इसके अतिरिक्त शुभाशुभ फल भोगने पर भी निर्जरा होती है । इस प्रकार निर्जरा के दो भेद हो जाते हैं - तपस्या कृत निर्जरा और फल भोगजन्य निर्जरा - दूसरी निर्जरा तो सभी प्राणियों की अनायास होती रहती है; परन्तु पहली निर्जरा के लिए तपस्या करनी पड़ती है। निर्जरा से मोक्ष का मार्ग क्रमश: छोटा होता जाता है । इसके लिए यथा शक्ति निदानरहित तपस्या हमें करते रहना है ।।
१०. लोक स्वरूप भावना : अनन्त आकाश के बीच में जीवाजीवादि से परिपूर्ण लोक है । उसके शिखर पर अनन्त सिद्ध विराजमान हैं। आगकी लपट जिस प्रकार ऊपर की ओर उठती है, उसी प्रकार आत्मा भी ऊर्ध्वगामी हैऐसा सोचकर हमें उसकी ऊर्ध्वगति में सहायक बनना है ।
११. बोधिदुर्लभ भावना : जिस प्रकार समुद्र में गिरे हुए रत्न का फिर से पाना अत्यन्त दुर्लभ है, उसी प्रकार मनुष्यभव भी दुबारा पाना दुर्लभ है । मनुष्य-भवमें भी मिथ्यात्वका ऐसा चक्र है कि उससे बचकर सम्यक्त्व प्राप्त करना और भी दुर्लभ है । ऐसा सोच कर प्राप्त सम्यक्त्व को सदा टिकाये रखना है ।
१२. धर्मभावना : जिनेश्वर वीतराग देवने दो प्रकार के धर्म की प्ररूपणा की है । पहला श्रावक धर्म है और दूसरा श्रमण धर्म । दुर्गति में गिरने वाले जीव का जो उद्धार करता है, वह धर्म है, हमें ऐसे धर्म का अवलम्बन लेना है।
इन बारह भावनाओंका यहाँ बहुत संक्षिप्त परिचय दिया गया है ।
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