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२११ मन रूपी भवन में सम्यग् ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के पंखे तो लगे हों; परन्तु उनमें यदि गति न हो तो क्या लाभ ? भावना ही उनकी गति है।
स्वास्थ्य के लिए औषध और पथ्य (परहेज) दोनों आवश्यक माने जाते हैं। उसी प्रकार आचरण और भावना दोनों मानसिक शान्ति के लिये आवश्यक हैं - ऐसा मानना चाहिये ।
. भावना से मन-भवन वातानुकूलित बन जाता है । फिर न तो वह क्रोध और अभिमान की गर्मी से प्रभावित होता है और न माया और लोभ की ठण्ड से ही !
यदि कोई तालेमें चाबी उल्टी धुमाये तो हाथमें छाला पड़ जायगा, पर ताला नहीं खुलेगा। खुलेगा तभी जब उसे ठीक दिशामें घुमाया जायगा । मन भी एक ऐसी ही चाबी है। उसे संसार की दिशामें न घुमा कर परमात्मा की दिशामें घमायें तो मुक्ति का ताला खल जाये - मोक्ष मिल जाये । वह भावना ही है, जो मन को अनुकूल दिशामें घुमा सकती है।
आत्णकल्याण की साधना में बुद्धिसे अधिक भावना की आवश्यकता होती है। वही जन्म-मरण को मिटा सकती है :
भाबना भवनाशिनी ॥ [भावना भव (जन्म-जरा-मृत्यु रूप चक्र) की नाशिका है]
अमावस को आपने कभी चाँद देखा है ? मन में यदि कषायों का अन्धकार छाया हुआ हो तो प्रात्मदर्शन असंभव हो जायगा । यही हो भी रहा है । भावना उस अँधेरे को नष्ट करने की शक्ति है ।
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