________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१३. भावना
भावना हमारे जीवन के समस्त क्रिया-कलापों की संचालिका है। दान, शील, तप और भाव - इन चारों में भाव की ही मुख्यता है। कहा गया है :
दानं दहति दौर्गत्यम् शीलं सृजति सम्पदम् ।
तपस्तनोति तेजांसि भावो भवति भतये ॥ [दान दुर्गति को जला देता है अर्थात् दाता सदा सद्गति ही पाता है । शील सम्पदा का सृजन करता है अर्थात् सुशीलता से व्यक्ति की शोभा (छबि-इमेज) बनती है। तपस्यासे तेजस्विता काविस्तार होता है अर्थात् तपस्वी बड़ा प्रभावक होता है और भाव से कल्याण होता है]
कल्याण हमारा अभीष्ट है –लक्ष्य है। निर्दोष भावना से ही उस लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है । भावना को दूषित करने वाले तीन शल्य हैं- मायाशल्य, मिथ्यात्वशल्य और निदानशल्य ।
दूसरों को ठगने की वृत्ति माया है। सत्यपर विश्वास न रखना अथवा असत्य पर विश्वास रखना मिथ्यात्व है और कामभोग की लालसा रखना निदान है । शल्य (काँटा) शरीर में कहीं भी चुभता रहे तो पूरे शरीर में अशान्ति (बैचेनी) पैदा हो जाती है, उसी प्रकार माया, मिथ्यात्व और निदान मन में चुभ-चुभ कर उसमें अशान्ति असन्तोष आदि उत्पन्न कर देते हैं, ये मन को एकाग्र नहीं होने देते और इसी लिए भावना निर्मल नहीं हो पाती, जो समस्त सिद्धियों की जड़ है।
For Private And Personal Use Only