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अहिंसा जैन धर्म का हृदय है। उसी की रक्षा के लिए अन्य सारे विधान हैं :
एक्कंचिय एत्थ वयं निद्दिट्ट जिणवरेहिं सर्वहिं ।
पाणाइवायविरमणमवसेसा तस्स रक्खट्ठा ॥ [समस्त जिनवरों ने प्राणातिपातविरमण (अहिंसा) नामक एक ही व्रत बताया है और शेष सारे व्रत उसी की रक्षा के लिए बनाये गये हैं]]
भक्तपरिज्ञा नामक ग्रन्थ में अहिंसा के विषय में लिखा
तुग न मन्दराम्रो, आगासाओ विसालयं नस्थि ।
जह तह जगम्मि जाणसु धम्ममहिंसासमं नत्थि ॥ [जैसे मन्दराचल से ऊँचा कोई पर्वत नहीं है- आकाश से अधिक विशाल कुछ नहीं है; उसी प्रकार अहिंसा के समान इस दुनियामें दूसरा कोई धर्म नहीं है- ऐसा जानो]
प्रश्न किया जा सकता है कि यदि जैन धर्म में हिंसा का इतना विरोध किया गया है और जैन मुनि अहिंसक के आराधक हैं-अहिंसक हैं तो फिर वे अपने हाथ में हिंसा का साधन लट्ठ क्यों रखते हैं ?
- इसका उत्तर समझकर दिमाग में रख लेना जरूरी है, जिससे अपने मन में कोई भ्रम न रहे । साथ ही यदि किसी अन्य व्यक्ति के मन में ऐसा भ्रम उत्पन्न हो जाय तो आप स्वयं उसका निराकरण कर सकें।
वैसे यह भ्रम जैनों की अपेक्षा जैनेतर व्यक्तियों में ही अधिक संभव है; क्योंकि वे जैनमुनियों के आचार - विचार से अनभिज्ञ होते हैं ।
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