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कभी कहीं जैन मुनियों के एक-दो प्रवचनों में अहिंसा के समर्थन या प्रतिपादन की बात सुनकर तथा उनके हाथ में लाठी भी देखकर वे साधुओं की हँसी उड़ा सकते हैं - उन पर यह आरोप लगा सकते हैं कि उनके विचार और प्रचार में एकरूपता का अभाव है - उनकी कथनी और करनी में अन्तर है - वे अहिंसा के पालन का दूसरों को सभा में बैठ कर एक ओर तो लम्बा चौड़ा उपदेश देते हैं तथा दूसरी ओर अपने हाथों में लाठी भी रखते हैं, जिससे दूसरों की पिटाई की जा सकती है दूसरों का मस्तक फोड़ा जा सकता है !
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भ्रम अपनी जगह सही है । मुझे इस प्रश्न के उत्तर में कहना है कि जैनसाधु जिन प्रयोजनों से अपने हाथ में लाठी रखते हैं, संक्षेप में वे इस प्रकार हैं :
पहला प्रयोजन है - वृद्धावस्था में सहायता । श्रमण हजारीमल ने राजस्थानी भाषा में बुढापे का वर्णन किया है :
धग धग करे पग डग डग करे नाड़ तग-तग करे नैण पूरो नहीं सूझे है कड़कड़ करे हाड़ सड़-सड़ करे नाक गड़-गड़ करे पेट हाथ घरणा धजे है | काना नहीं सुणे हाका भण भण करे माका प्रस्यो दु:ख बुढापारो डोकरो अमूके है कहत हजारीमल ज्ञानी वचनों के बल अरे जीव- श्रातमा ! तू अब क्यों न बूज्ञे है ? ऐसा कमजोर बूढा मुनि भी लाठी के सहारे खड़ा हो सकता है - कुछ कदम चल भी सकता है ।
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