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२०५ दुसरा प्रयोजन है - जल की गहराई का ज्ञान । विहार के समय मार्ग में नदी-नालों को पार करने से पहले लाठी से उनके जल की गहराई जानी जा सकती है। और बहुत अधिक गहराई न हो तो उन्हें पार किया जा सकता है ।छोटे-छोटे पल्वलों (जल भरे गड्ढों या पोखरों) को तो लाठी के बल पर कूद कर भी पार किया जा सकता । जिसे तैरने न आता हो, ऐसा मुनि किसी नदी की गहराई जाने बिना यदि उसे पार करने का प्रयास करे तो वह डूब सकता है. बह सकता है अर्थात उसका जीवन खतरे में पड़ सकता है। लाठी जल की गहराई का ज्ञान देकर उस खतरे से हमारी रक्षा करती है।
तीसरा प्रयोजन है - बीमार की सहायता। विहार करते-करते मार्ग में अचानक कोई साधु बिमार हो जाय या उसे हार्ट अटेक हो जाय तो दो लाठियों से स्ट्रेचर बना कर उसकी सहायता से (उसमें उसे बिठा कर) उसे राह पार कराई जा सकती है।
चौथा प्रयोजन - मार्ग में रात बिताना । यदि विहार करते-करते साधु-समुदायको रात राह में ही हो जाय तो एक चादर और लाठियों की सहायता से सोने लायक एक कैम्प बनाया जा सकता है।
लाठी रखने के कुछ और प्रयोजन भी सोच कर निकाले जा सकते हैं। दिशानिर्देश के लिए इतने प्रयोजन पर्याप्त हैं।
इन सबके मूल में केवल अहिंसा है। अहिंसा नेगेटिव है और दया उसीका पोजिटिव । दोनों के मिलन से धर्म का पूर्ण रूप बनता है :
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