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२३५ जइ गिहत्थु दाणेग विणु जग पभरिणज्जइ कोइ । ता गिहत्थु पंखिवि हवइ जे घर ताहवि होइ ॥
दान अनेक प्रकार के होते हैं; परन्तु अभयदान सर्वोत्तम होता है :
दाणारण सेट्ठ अभयप्पयारणम् ॥ [अभयदान सब दानों में श्रेष्ठ होता है। किसी मृत्यु मुखमें फंसे प्राणी को बचाना अभयदान है]
वीरसिंह ने एक दिन अपने माता-पिता से कहा : "जिसमें एक की हानि और सौ का नफा हो, ऐसा व्यापार करूं या नहीं ?
माता-पिता ने स्वीकृति दे दी। उसी दिन वीरसिंह ने उन नवविवाहित युवक-युवतियों के साढे चार सौ जोडों को मुक्त कर दिया, जिनको बलि के लिए राजा ने किले में कैद कर रक्खा था। किले की सुरक्षा का भार वीरसिंह को सौंपा गया था; परन्तु निर्दोष स्त्रीपुरुषों की हत्या उसे अन्यायपूर्ण लगी। वह जानता था कि राजा की इच्छा के विरुद्ध बन्दियों को मुक्त करने पर वह मार डाला जायगा; परन्तु एक व्यक्ति की हानि से नौ सौ स्त्री-पुरुषों के प्राणों की रक्षा होगी- उन सबको अभयदान मिलेगा- इस बात से उसे विशेष आत्मसन्तोष का अनुभव हो रहा था । फलस्वरूप रात को बारह बजे किले के द्वार खोलकर उसने सबको छोड़ दिया कि वे भाग कर बहुत दूर निकल जायें और कहीं छिप जायँ । वैसा ही हुआ।
प्रातःकाल गुप्तचरों से राजा को ज्ञात हुआ कि दयावश वीरसिंह ने बन्दियों को मुक्न कर दिया है, तो उसके
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