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३. आत्मा
__ काँटा निकालने के लिए जिस प्रकार सुई ज़रूरी होती है, उसी प्रकार मन में फंसे जगत् को निकालने के लिए शास्त्र ज़रूरी हैं-ग्रन्थ ज़रूरी हैं, बाद में नहीं; क्योंकि जगत् के बाहर निकलते ही मन निर्मल हो जाता है-निर्ग्रन्थ हो जाता है।
हम जगत् को जानने का प्रयत्न करते हैं। पूरे जगत् को तो जान नहीं पाते; परन्तु जितना कुछ जान पाते हैं, उसीसे अपने को बड़ा भारी ज्ञानी समझने लगते हैं। उस से मन में अभिमान पैदा होता है, जो आत्माके पतनका कारण है।
जीवन-भर भौतिक विज्ञान की साधना करने वाले बड़ेबड़े विश्वविख्यात वैज्ञानिक भी जीवन के अन्त में कह गये हैं कि यह जगत् इतना जटिल है-इतना विशाल है-इतना अज्ञात है कि अब तक हमने जो कुछ जाना है, वह समुद्र में एक बूंद के बराबर ही है !
यह तो हुई मुट्ठीभर वैज्ञानिकों की बात; परन्तु जो अन्य अध्ययनशील व्यक्ति करोड़ों की संख्या में हैं, वे तो उनके लिखे हुए ग्रन्थ भी पूरे नहीं पढ़ पाते और उनका पूरा जीवन समाप्त हो जाता है। व्यर्थ ही वे ज्ञानी होने का भ्रम पालते रहते हैं। एक शायर का यह भ्रम टूटा तो उसने यह शेर लिखकर अपने हार्दिक उद्गार यों प्रकट किये
हम जानते थे इल्म से कुछ जानेंगे । जाना तो यह जाना कि न जाना कुछ भी।
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