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३६ सच पूछा जाय तो कोरी किताबों से ज्ञान होता ही नहीं है। किताबों में केवल शब्द होते हैं, अर्थ नहीं। अर्थ तो दुनिया में होता है। शब्दकोश में "अश्व” शब्द मिल जायगा। आगे "घोड़ा' भी लिखा मिलेगा, जो उसका अर्थ नहीं, केवल पर्यायवाची शब्द हैं। यदि आपको उसका अर्थ देखना हो तो अश्वशाला या घुड़साल में जाकर उसे प्रत्यक्ष देखना पड़ेगा; अन्यथा पापका अश्व सम्बन्धी ज्ञान अधूरा रहेगा।
शास्त्रों-ग्रन्थों-पुस्तकों या हम जैसे साधुओं के प्रवचनों का उपयोग इतना ही है कि वे हमें अपने लक्ष्य का भान कराते हैं-उसका विस्तार से वर्णन करते हैं-उसके प्रति हमारी रुचि जागत करते हैं; परन्तु लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कराते । वह प्राप्ति तो हम सबको व्यक्तिगत प्रयत्न के बाद ही होती है।
अरिहन्तो असमत्थो तारिउंलोप्राण भवसमुद्दम्मि ।
मग्गे देसणकुसलो तरन्ति जे मगि लग्गन्ति ।। [संसाररूपी समुद्र से लोगों को तारने (पार ले जाने) में अरिहन्त असमर्थ हैं। वे मार्गदर्शन में कुशल हैं। तैरते वे ही हैं, जो उस मार्ग पर चलते हैं]
दूसरों को जानने के लिए हम सदा समुत्सुक रहते हैं; परन्तु अपने आपको जानने का प्रयास नहीं करते। यदि हम अपने आपको जानने का प्रयास करें तो वास्तविक ज्ञानी बन सकते हैं-सर्वज्ञ बन सकते हैं। जैसा कि आचारांगसूत्र में स्वयं सर्वज्ञ प्रभुने फरमाया है :
"जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥
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